दुनिया के कई देशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्बंध बहुत प्राचीन हैं। पश्चिम में ईरान, अरब और मिस्र के साथ बहुत लम्बे समय से भारत का व्यापारिक सम्बंध स्थापित रहा है।
जिस समय यूरोप में राेमन साम्राज्य का सूर्य चमक रहा था, उस समय रोम-सागर के आस-पास के सारे देश इस साम्राज्य के अंतर्गत थे। उस समय भारत के व्यापारिक पदार्थों- मसाले, लाल मिर्च, रेशम तथा सूती माल की यूरोप की मंडियों की ख़ूब बिक्री होती थी। यह सारा व्यापारिक सामान तीन भागों के द्वारा यूरोप पहुंचता था।
एक मार्ग तो पूरी तरह से थलमार्ग था। यह पंजाब से होकर पेशावर, दर्रा खैबर, काबुल और हिरात होकर अथवा मुलतान, दर्रा बोलन, कंधार और हिरात होकर ईरान और वर्तमान तुर्की या कुस्तुन्तुनिया (आज का इस्तांबुल) को जाता था।
दूसरा मार्ग कुछ थल और कुछ जलमार्ग था। सूरत अथवा सुपारका (मुम्बई के पास) के बंदरगाह से भारतीय माल अरब सागर और फ़ारस की खाड़ी से होता हुआ वसरा पहुंचता था। वहां से बगदाद, दमिश्क और अलप्पो होता हुआ रोम-सागर के बंदरगाहों में पहुंचता था।
तीसरा रास्ता पूरी तरह से जलमार्ग था। सूरत, कालीकट, सुपारका और भरूच से भारत का माल अरब सागर और लाल सागर को पार करके मिस्र होता हुआ रोम-सागर के बंदरगाहों काहिरा और सिकंदरिया पहुंचाया जाता था। कुस्तुन्तुनिया, अलप्पो और सिकंदरिया की मंडियों में वेनिस और जिनेवा के सौदागर भारत के माल को ख़रीदकर सारे यूरोप में बेचा करते थे।
कई शताब्दियों तक व्यापार इसी तरह चलता रहा। जब अरब शक्तिशाली हुए और मध्य एशिया, ईरान, मेसोपोटामिया, वर्तमान तुर्की, सीरिया तथा मिस्र में उनका साम्राज्य फैला, उस समय भी इन तीन व्यापारिक मार्गों का उपयोग किया जाता रहा। लेकिन जब 13वीं और 14वीं शताब्दी ईस्वी में तुर्क लोगों ने अरबों के मध्यवर्ती पूर्वी साम्राज्य पर अधिकार कर लिया और तुर्कों का साम्राज्य भारत से लेकर बालकन राज्यों तक फैल गया, तब ये व्यापारिक मार्ग बंद हो गए।
जब तुर्कों ने भारत और यूरोप के व्यापारिक मार्गों को बंद कर दिया, तब यूरोपियन सौदागरों ने भारत के माल को यूरोप लाने के लिए कुछ अन्य उपाय सोचने शुरू किए। वे ऐसे मार्ग की खाेज करने लगे जो कि तुर्कों के राज्य में से हाेकर न गुज़रता हो।
इसी समय यूरोपीय वैज्ञानिकों को एक ख़ास बात पता चली, वह यह थी कि पृथ्वी गेंद की तरह गोल है। यदि यह बात वास्तव में सच है तो पश्चिम की ओर यात्रा करके पूर्वी देशों में पहुंचना सम्भव था।
कुछ जलयात्रियों ने यह भी सोचा कि यूरोप के दक्षिण में स्थित अफ्रीका महाद्वीप का कहीं न कहीं अंत अवश्य होगा। यदि काेई दक्षिण में अफ्रीका के पश्चिमी तटों के साथ यात्रा करे, तो कभी न कभी वह अफ्रीका के अंतिम सिर पर अवश्य पहुंच जाएगा और वहां से पूर्व की ओर भारत के लिए भी रास्ता मिल सकता है। इस विचार के साथ पश्चिमी यूरोप के जलयात्रियों ने पश्चिम तथा दक्षिण की ओर यात्राएं आरम्भ कर दीं।
उस समय यूराेप के लोग भारत का नया मार्ग ढूंढने को इतने आतुर थे कि यूरोप के प्रत्येक देश ने इसकी खोज शुरू कर दी थी। कोलम्बस को स्पेन की सरकार ने धन की सहायता दी और वह भारत की खोज करने के लिए एटलांटिक महासागर के पार पश्चिम की ओर चल पड़ा। लेकिन भारत की खोज करते हुए वह अकस्मात वर्ष 1590 में नई दुनिया जा पहुंचा, जिसे आज अमेरिका के नाम से जानते हैं।
इस प्रकार अमेरिका के दो महाद्वीप स्पेन के अधिकार में हो गए और बहुत-सा सोना और चांदी उसके हाथ लगी। जिस समय स्पेन पश्चिम सागर में से होकर भारत का मार्ग खोज रहा था, उसी समय पुर्तगाल वाले भी दक्षिण मार्ग से अफ्रीका के चारों ओर चक्कर काटकर भारत पहुंचने का प्रयत्न कर रहे थे। अंत में उनका प्रयत्न सफल हुआ।
वास्कोडिगामा नामक एक पुर्तगालवासी वर्ष 1587 में अफ्रीका महाद्वीप के सबसे दक्षिणी सिरे पर जा पहुंचा। यहां से पूर्व की ओर मुड़कर अफ्रीका महाद्वीप के तट के साथ चलता हुआ वह मोज़म्बिक पहुंचा और भारत से आने वाले व्यापारियों के साथ उसका समागम हुआ।
यहां से वह एक भारतीय व्यापारी के साथ हाे लिया और अरब सागर की यात्रा करता हुआ वर्ष 1598 में मालाबार तट पर स्थित कालीकट के बंदरगाह पर आ पहुंचा। कालीकट के तत्कालीन राजा जमाेरिन ने वास्कोडिगामा का स्वागत किया। उसे देश में व्यापार करने की आज्ञा भी मिल गई और पुर्तगाल वाले भारत से सीधा माल ले जाने लगे।
साभार : ‘भारतवर्ष का इतिहास’