विश्व बैंक की हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार युद्ध, गरीब देशों पर अत्यधिक कर्ज, तापमान वृद्धि और महामारी के कारण वैश्विक स्तर पर अत्यधिक गरीबी के विरुद्ध युद्ध में हम हारने लगे हैं। पिछले तीन दशकों के दौरान इस क्षेत्र में जितनी सफलता हासिल की गई थी, अब हम वहीं ठहर गए हैं। अत्यधिक गरीबी काम करने के वर्तमान उपायों में यदि तेजी से बदलाव नहीं लाया गया तो दुनिया के 70 करोड़ से भी अत्यधिक गरीबों की गरीबी दूर करने में दुनिया को तीन दशक से भी अधिक समय लगेगा। जाहिर है, ऐसे में संयुक्त राष्ट्र का सतत विकास लक्ष्य, जिसके तहत वर्ष 2030 तक दुनिया से अत्यधिक गरीबी को मिटाना है, निश्चित तौर पर असंभव है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में अत्यधिक गरीबी की प्रचलित मान्य परिभाषा किसी व्यक्ति द्वारा प्रति दिन 2.15 डॉलर, या लगभग 150 रुपये से कम की आमदनी है। पिछले तीन दशकों के दौरान वैश्विक स्तर पर इस गरीबी को कम करने के संदर्भ में तेजी से प्रगति देखी गई, जिसका कारण चीन द्वारा अत्यधिक गरीबी को पूरी तरह खत्म करना है। वर्ष 1990 में दुनिया की 38 प्रतिशत आबादी अत्यधिक गरीब थी, वर्ष 2024 में यह संख्या 8.5 प्रतिशत रह गई पर वर्ष 2030 में यह आबादी 7.3 प्रतिशत होगी। वर्ष 2019 के बाद से अत्यधिक गरीबी के आँकड़े ठहर गए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि युद्ध, कर्ज, जलवायु परिवर्तन और महामारी के कारण अत्यधिक गरीबी बढ़ती जा रही है और अब परंपरागत नीतियों से इसे खत्म नहीं किया जा सकता है।
औद्योगिक देशों में अत्यधिक गरीबी का पैमाना 6.85 डॉलर प्रतिदिन, यानि लगभग 480 रुपये, की आमदनी है। इस स्तर तक पूरी दुनिया को पहुँचने में 100 वर्षों से भी अधिक का समय लगेगा। इस समय दुनिया की लगभग आधी आबादी 6.85 डॉलर प्रतिदिन से काम कमा पाती है।
इस रिपोर्ट में आर्थिक असमानता की चर्चा भी की गई है। पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक स्तर पर आर्थिक विकास से एक आश्चर्यजनक विरोधाभास उभरता है – अत्यधिक अमीरों की संख्या और संपत्ति के साथ ही अत्यधिक गरीबों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। दुनिया की 49 प्रतिशत आबादी अत्यधिक आर्थिक असमानता वाली अर्थव्यवस्था में रहती है, एक दशक पहले यह संख्या 66 प्रतिशत थी। दुनिया में सर्वाधिक अमीर 1 प्रतिशत आबादी की संपत्ति 95 प्रतिशत आबादी से भी अधिक है।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में अत्यधिक गरीबी सरकारी आंकड़ों में काम होती जा रही है, पर हरेक ऐसी रिपोर्ट में सरकार आंकड़ों के लिए अलग-अलग तरीके अपनाती है, जिससे एक-दूसरे से तुलना करना असंभव हो जाता है। हमारे देश में मोदी सरकार के अंतिम आदमी तक पहुँचने के तमाम दावों के बीच आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ी है और साथ ही गरीबी भी। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रतिदिन 6.85 डॉलर से, यानि लगभग 480 रुपये से काम आमदनी वाली आबादी वर्ष 1990 की तुलना में वर्ष 2024 में बढ़ गई है।
देश की गरीबी और साथ ही भुखमरी का मंजर तो ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2024 में भी नजर आता है। आयरलैंड की संस्था कन्सर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी की संस्था वेल्थहंगरलाइफ द्वारा संयुक्त तौर पर तैयार किए गए इस इंडेक्स में भारत को कुल 27.3 अंक दिए गए है, जो गंभीर भुखमरी की श्रेणी को दर्शाता है। कुल 127 देशों के इस इंडेक्स में स्वघोषित विश्वगुरु भारत 105 वें स्थान पर है।
हमारे पड़ोसी देशों में से केवल पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही हमसे भी पीछे हैं। दुनिया के 42 देश ऐसे हैं जहां भुखमरी की स्थिति गंभीर है, जिसमें भारत भी एक है। इस इंडेक्स में अफगानिस्तान 116वें, पाकिस्तान 108वें, भारत 105वें, बांग्लादेश 84वें, म्यांमार 74वें, नेपाल 68वें और श्रीलंका 56वें स्थान पर है। चीन इंडेक्स में शीर्ष पर काबिज 22 देशों में शामिल है, जिनके अंक 5 से कम हैं। इस इंडेक्स में अंतिम 5 देश हैं – दक्षिण सूडान, बुरुंडी, सोमालिया, येमेन और चाड।
इंडेक्स में भारत को 27.3 अंक मिले हैं। देश की 13.7 प्रतिशत आबादी कुपोषित है, 5 वर्ष से काम उम्र के बच्चों में से 35.5 प्रतिशत की ऊंचाई और 18.7 प्रतिशत का भार सामान्य से कम है, देश में 2.9 प्रतिशत शिशु अपना 5वां जन्मदिन भी नहीं देख पाते। देश में वर्ष 2008 में 35.2 प्रतिशत आबादी भुखमरी की चपेट में थी, वर्ष 2016 तक इस आबादी में से 6 प्रतिशत आबादी बाहर हो गई और 29.3 प्रतिशत आबादी भुखमरी के दायरे में रह गई। is अवधि के अधिकतर समय में श्री मनमोहन सिंह की सरकार थी, जिसे नरेंद्र मोदी लगातार देश की बर्बादी का काल बताते हैं। वर्ष 2016 से वर्ष 2024 के बीच मोदी सरकार तमाम खोखले दावों और हरेक तरफ फैले विज्ञापनों के बाद भी भुखमरी से जूझती आबादी को 29.2 प्रतिशत से 27.3 प्रतिशत तक ही पहुंचा पाई।
गरीबी और कुपोषण के संदर्भ में महिलाओं की स्थिति और भी खराब है। हमारे देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार महिलाओं के मामले में विकास पर अपनी पीठ थपथपाते हैं, पर हकीकत यह है कि महिलाओं के पोषण और स्वास्थ्य के मामले में हमारा देश दुनिया के सबसे पिछड़े देशों की जमात में शामिल है। महिलाओं की स्थिति केवल झारखंड या दूसरे परंपरागत पिछड़े राज्यों में ही खराब नहीं है, बल्कि तथाकथित विकास का उदाहरण बने गुजरात में भी खराब है। वर्ष 2019 से 2021 के बीच किए गए पांचवें नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे के निष्कर्षों के अनुसार देश में 15 से 49 की आयुवर्ग की 18.7 प्रतिशत महिलाओं का वजन सामान्य से काम है, यानि इतनी प्रजनन आयु-वर्ग की महिलाएं कुपोषित हैं। राष्ट्रीय औसत से भी अधिक
कुपोषण वाले राज्यों में बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र का नाम शामिल है। इन सभी राज्यों में तथाकथित डबल इंजन की सरकारें हैं। इससे पहले के चौथे फॅमिली हेल्थ सर्वे (2015-2016) में 15 से 49 वर्ष की महिलाओं में सामान्य से काम वजन वाली महिलाओं की संख्या 22.9 प्रतिशत थी।
दोनों फॅमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि वर्ष 2016 से 2021 के बीच के 5 वर्षों के दौरान तमाम सरकारी प्रचारों और तथाकथित योजनाओं के बाद भी महज 4.2 प्रतिशत महिलाओं का वजन सामान्य श्रेणी तक पहुंचा। यदि सरकारी योजनाएं इसी तरह चलती रही, तब भी सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही सभी महिलाओं को सामान्य वजन की श्रेणी में लाने में अगले 24 वर्ष और लगेंगे। हमारे देश में प्रसव के दौरान मरने वाले महिलाओं के संख्या वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक में एक है। लगभग 5 करोड़ महिलायें प्रजनन संबंधी समस्याओं की चपेट में हैं, और 15 से 49 वर्ष की आयु की सभी महिलाओं में से 50 प्रतिशत से अधिक खून की कमी से ग्रस्त हैं।
मोदी सरकार केवल विज्ञापनों और खोखले दावों पर आधारित विकास की बात करती है। वास्तविकता तो यह है कि गरीबी, आर्थिक और लैंगिक असमानता और कुपोषण के संदर्भ में अमृत काल के स्वर्णिम अध्याय का भारत वाकई में विश्वगुरु है।