बनारस में काशी विश्वनाथ कोरिडोर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर दिया. उद्घाटन के लिए बहुत सारे तामझाम दिखे. जितना प्रदर्शन हो सकता था- हुआ. अब तक कोई प्रधानमंत्री शायद ही कभी इस तरह के धार्मिक आयोजनों में शामिल दिखा हो. स्वाभाविक है कि मोदी के विरोधी संविधान का हवाला देकर कोरिडोर उद्घान के नाम पर तामझाम-पूजा पाठ को लेकर सवाल कर रहे हैं. कोरिडोर के उद्घाटन से पहले सभी प्रमुख अखबारों के फ्रंट पेज पर विज्ञापन छपे. जिसमें नरेंद्र मोदी की तस्वीर ही नजर आई.
कुछ लोग इस बात पर निरर्थक चर्चा कर रहे कि जब सीएम योगी राज्य के मुख्यमंत्री हैं और उनके ही कार्यकाल में काशी विश्वनाथ कोरिडोर पर काम शुरू हुआ फिर प्रचार में उनके चेहरे का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जा रहा है? जबकि योगी आदित्यनाथ को हिंदुत्व के नए पोस्टर बॉय के रूप में प्रचारित किया जाता है? योगी, मोदी के साथ बराबर मौजूद नजर आ रहे मगर हकीकत में जो कतार है- उसमें आगे की बजाय पीछे ही खड़े हैं.
इस पूरे आयोजन को ही राजनीतिक बताया जा रहा है. सच भी है. काशी भाजपा के लिए आस्था का विषय हो सकती है मगर राजनीतिक विषय भी कम नहीं है. और आज नरेंद्र मोदी के जरिए भाजपा समूचे देश को राजनीतिक संदेश देने में कामयाब रही. काशी से मोदी का संदेश कितना असरदार है- उसकी झलक पत्रकारों को प्रतिक्रिया देते वक्त यूपी में भाजपा को रोकने की कोशिश कर रहे अखिलेश यादव के चेहरे पर नजर आ रही है.
काशी में नरेंद्र मोदी.
“अयोध्या तो एक झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है.” 90 के दशक में इसी नारे ने भाजपा को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया. लेकिन यह नारा जिस दौर में आया था- मंडल कमीशन लागू होने की वजह से अखिल हिंदू का नारा नहीं बन पाया था. नारे को सवर्णों ने ज्यादा भावुक रूप से लिया. अन्य हिंदू जातियां जो संघ के संपर्क में थीं वही भाजपा के साथ नारे पर खड़ी हुई.
भाजपा दावा भले हिंदुओं की पार्टी होने का करती रही हो, एक दशक पहले तक वोट शेयरिंग के मामले में वह थी नहीं. भाजपा के पास देशभर में सबसे ताकतवर हिंदू अपील वाले पिछड़े नेताओं के चेहरे तो थे, मगर केंद्र की सत्ता की चाभी रखने वाले यूपी के पिछड़ों को अपील करने में बेअसर साबित हो रही थी. इसी चीज ने बीजेपी को दोबारा केंद्र में आने से रोके रखा.
याद ही होगा कि मंदिर आंदोलन के सालों बाद कैसे भाजपा कल्याण सिंह और उमा भारती को यूपी में इस्तेमाल करने के बावजूद बुरी तरह से फेल हो गई थी. और इसकी वजह मंडल के बाद निकली हिंदू पिछड़ी जातियों का आपसी टकराव था. मंडल के बाद एक दशक में टकराव इतना गहरा हो गया कि कुछ जातियां आपस में पावर सेंटर बांटने को तैयार नहीं थीं. चूंकि एक दूसरे के खिलाफ असल में जाति विरोध के नाम पर उस वक्त की राजनीति मजबूत हो रही थी- इस वजह से समाज में बहुत सारे शक्तिशाली कास्टिस्ट नैरेटिव नजर आते थे.
जो काम भाजपा चाहकर भी नहीं कर पा रही थी उसे मायावती ने एक झटके में कर दिखाया. यह भाजपा लिए अब तक के सबसे बड़े पॉलिटिकल ब्रेकथ्रू की तरह था जो उसे बसपा से मिला. मायावती ने अगर ब्राह्मणों को साथ लाने की कोशिश ना की होती तो शायद यूपी या केंद्र में बीजेपी उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाती- जहां वो आज है.
हकीकत में अन्य जातियों को जोड़ने के लिए पहले-पहल मायावती की अपील ही कारगर हुई. उनकी अपील की वजह से ही कास्टिस्ट नैरेटिव कमजोर हुए. और बाद में इसी बुनियाद पर भाजपा के अखिल हिंदुत्व का सपना पूरा होता दिखने लगा. संभवत: मायावती के फ़ॉर्मूले के बाद ही तमाम हिंदू जातियां सत्ता के बंटवारे वाले फ़ॉर्मूले में खुद को सेफ पाने लगीं. सत्ता केन्द्रों में अलग-अलग जातियों की आपसी भागीदारी बढ़ रही थी.
मायावती की हार और अखिलेश की ताजपोशी के बाद बीजेपी को मुंहमांगी चीजें मिल गईं. याद करिए- यह लगभग वही समय है जब अखिलेश यूपी की कमान संभाल रहे और लगभग उसी वक्त में भाजपा की राजनीति से लालकृष्ण आडवानी युग की विदाई हो रही है. लालकृष्ण आडवानी, नितिन गडकरी, शिवराज सिंह चौहान, राजनाथ सिंह समेत कई ताकतवर चेहरे लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद के दावेदार दिखते हैं मगर गुजरात के लोकप्रिय मुख्यमंत्री और उग्र हिंदुत्व के पोस्टर बॉय नरेंद्र मोदी सबको किनारे रख देते हैं. यही वो दौर है जब पिछड़ों का एकछत्र नेतृत्व कर रहे अखिलेश से जातियां टूटती हैं. परिवार में भी असंतोष खड़ा होता है.
भाजपा में मोदी की ताजपोशी से पहले इसका असर यह रहा कि कई पिछड़ी जातियां सवर्णों के साथ सत्ता भागीदारी के लिए तैयार थीं.
मोदी की ताजपोशी यूं ही नहीं थी. मोदी एक साधारण कार्यकर्ता थे. साधारण परिवार से आए थे जो बचपन में चाय बेचा करता था. अन्य पिछड़ी जाति से थे. गोधरा दंगों के बाद उनकी छवि फायर ब्रांड थी. विकास पुरुष माने गए. कुल मिलाकर अखिल हिंदुत्व के लिए हर लिहाज से मोदी का चेहरा भाजपा और संघ के लिए अनुकूल था. अगर मोदी नहीं होते तो पिछले सात सालों में भाजपा का जो जादुई करिश्मा दिखता है वो नहीं होता.
मोदी को इसी वजह से देश के किसी दूसरे हिस्से की बजाय बनारस से लड़ाया गया. अखिलेश की सरकार में एक जाति विशेष के लोगों की अराजकता ने अन्य पिछड़े समूहों को दूसरे राजनीतिक विकल्प पर सोचने को मजबूर किए. मोदी-शाह की जोड़ी ने एक-एक कर इन्हीं समूहों को अपने साथ जोड़ा. इसके लिए गठबंधन भी किए.
संघ के हिंदुत्व की पहली पीढ़ी का नेतृत्व जरूर सवर्णों ने किया, लेकिन अब दूसरी पीढ़ी अन्य पिछड़ों के हाथ में है. फिलहाल तो उसका चेहरा नरेंद्र मोदी ही हो सकते हैं, केशव मौर्य भी हो सकते हैं- योगी आदित्यनाथ नहीं. संघ और भाजपा को यह बात मालूम है. योगी आदित्यनाथ को भी. इस मामले में उनकी आपसी समझदारी अन्य दलों के मुकाबले थोड़ा बेहतर है. वे चीजों में सामंजस्य बना लेते हैं.
हार का श्रेय भले ही भाजपा मोदी को देने से बचे मगर जीत बिना उनके मुश्किल है. काशी में आयोजन की भव्यता पर मत जाइए. उस भव्यता की वजह से जो ध्वनियां निकल रही हैं उन्हें सुनिए. काशी में बिना तोड़-फोड़, कानूनी लड़ाई लड़े उसे अयोध्या की तरह ही मोदी के नेतृत्व में अखिल हिंदुत्व की उपलब्धि के रूप में लिया जा रहा है.
सोशल मीडिया पर कई कहानियां हैं. इसके जरिए पता चलता है कि कुछ हिस्सा जो ज्ञानवापी परिसर में था उसे भी कोरिडोर के जरिए अलग करा लिया गया है. मोदी के भाषण को सुनिए. जो कहते हैं वो करते हैं का उनका दावा देखिए. सोशल मीडिया पर लोगों के जश्न को देखिए. उन्होंने काशी पर कहा- और तमाम चीजें कर दीं. “अयोध्या तो एक झांकी है काशी मथुरा बाकी है”. अगर अयोध्या के बाद काशी भी एक उपलब्धि है तो अब क्या बचा? सिर्फ मथुरा!
अयोध्या और काशी के विजुअल सामने आने के बाद मथुरा अखिलेश का सबसे बड़ा सिरदर्द है चुनावों में. केशव मौर्य का ट्वीट तो याद ही होगा- जो उन्होंने कुछ ही दिन पहले किया था. ट्वीट के बाद प्रधानमंत्री से मिले भी. संकेत साफ़ हैं. हिंदुत्व की नई पीढ़ी ने सत्ता समझौता कर लिया है. और उसी के तहत आगे बढ़ रहे हैं.
मोदी के अधीन अयोध्या-काशी की उपलब्धि ही 2022 के चुनावों में भाजपा का घोषणापत्र है. बाकी आम लोग जिन चीजों की वजह से मोदी पर अभी भरोसा करते दिख रहे हैं वह बना हुआ है. दिल्ली में बैठे पत्रकार अगर उन चीजों को देख नहीं पा रहे तो यह उनकी निजी गलती है.