नई दिल्ली। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह बीते कुछ सप्ताह से जो समस्या झेल रहे हैं, वह परंपरागत नहीं है। आमतौर पर असंतोष तब देखने को मिलता है, जब कोई सरकार किसी तरह के संकट में हो। ऐसी स्थिति में सांसद और विधायक इसलिए अपनी आवाज उठाते हैं ताकि पार्टी को चुनाव में हार का सामना न करना पड़े। लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह और योगी आदित्यनाथ की बात करें तो यह विद्रोह हार को नजदीक देखकर नहीं है। दरअसल यह जीत की संभावना के चलते है।
यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की बात करें तो इस बात में संदेह नहीं है कि वह अपने ही कुछ विधायकों के बीच अलोकप्रिय हैं। इसके अलावा समाज के कुछ वर्गों में भी उन्हें लेकर असंतोष है। लेकिन इसका कहीं से भी यह अर्थ नहीं है कि कुछ महीने बाद यूपी में होने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी हार की ओर बढ़ रही है।
बीते कुछ सालों का यूपी का चुनावी विश्लेषण एकदम स्पष्ट रहा है। एक तरफ बीजेपी ने 40 फीसदी के करीब वोट हासिल किया है तो वहीं अखिलेश और मायावती का वोटबैंक 20 फीसदी के करीब ही रहा है। इसके अलावा कांग्रेस 10 फीसदी वोट हासिल करती रही है। बाकी का कुछ वोट छोटी पार्टियों के खाते में गया है।
इसमें भी बीजेपी के वोट की बात करें तो वह स्थिर रहा है, लेकिन दूसरी पार्टियां एक-दूसरे को अपने वोट ट्रांसफर नहीं करा पाई हैं। इसलिए गठबंधनों का अच्छा प्रदर्शन करना तय नहीं माना जा जा सकता। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि योगी आदित्यनाथ से असंतोष के चलते बीजेपी का वोट 40 फीसदी से नीचे जा सकता है, लेकिन जिस तरह से बीएसपी का वोट कम होता जा रहा है, वह दूसरी पार्टियों में ट्रांसफर होगा।
इसीलिए योगी आदित्याथ के खिलाफ पार्टी में आवाजें उठती दिख रही हैं। इसकी वजह यह है कि पार्टी हार नहीं रही है बल्कि जीत भी सकती है। यदि ऐसा होता है तो योगी आदित्यनाथ बेहद मजबूत बनकर उभरेंगे और इससे बीजेपी के ही कई विधायकों का करियर खत्म हो सकता है, जो उन्हें पसंद नहीं करते हैं।
जानें- कहां सफल होते दिख रहे हैं बीजेपी में योगी के विरोधी
इस रणनीति के लिहाज से देखें तो बीजेपी के भीतर योगी से असहमति रखने वाले लोग कुछ हद तक भाग्यशाली नजर आ रहे हैं। योगी आदित्यनाथ बीजेपी का चुनावी चेहरा हो सकते हैं, लेकिन संभव है कि विपक्षियों को भी महत्व मिले। उन्हें टिकटों के बंटवारे में पूरी तरह से खारिज न किया जाए। ऐसा लगता है कि यह संकट इसी स्थिति में जाकर समाप्त होगा।
यूपी में बीजेपी और पंजाब में कांग्रेस का एक सा है संकट
अब यदि पंजाब कांग्रेस की बात करें तो यह उत्तर प्रदेश में बीजेपी में खड़े हुए संकट के समान ही है। पंजाब उन कुछ राज्यों में से एक है, जहां कांग्रेस आराम से सत्ता में है। यहां कांग्रेस के मुख्य विपक्षी गठबंधन में टूट हो गई है। अकाली और बीजेपी की राह अलग हो गई है। अकाली किनारे लगे महसूस कर रहे हैं।
इसके अलावा बीजेपी ने मान लिया है कि पंजाब वह राज्य है, जहां पीएम नरेंद्र मोदी का करिश्मा नहीं चल सकता। ऐसे में आम आदमी पार्टी ही है, जो कांग्रेस के खिलाफ चर्चा में नजर आती है। हालांकि ऐसा मुश्किल दिखता है कि उसे जितनी चर्चा मिल रही है, वह चुनावी सफलता में तब्दील होगी।
अमरिंदर सिंह जीते तो फिर बने रहेंगे कैप्टन, रोकना होगा मुश्किल
पंजाब में कांग्रेस की लोकप्रियता की वजह दशकों की विरासत और संगठन की मौजूदगी तो है ही। इसके अलावा सेंट्रल लीडरशिप का भी कुछ असर है। लेकिन मुख्य वजह कैप्टन अमरिंदर सिंह ही है। वह किसी भी कांग्रेस शासित राज्य के सबसे लोकप्रिय सीएम हैं। यदि कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब में अगला चुनाव जीतते हैं तो फिर उन्हें रोकना मुश्किल होगा। उनकी उम्र 80 के करीब हो रही है और यदि वह इस बार जीतते हैं तो फिर खुलकर काम करेंगे। इसकी वजह यह है कि उन्हें दोबारा चुनाव जीतकर आने की परवाह नहीं होगी।
आखिर क्यों कैप्टन के खुले विरोध में हैं सिद्धू
इससे उनके प्रतिद्वंद्वियों और पार्टी में विरोधियों को चिंता है। इसलिए चुनाव नजदीक आते ही वे जोर-जोर से शिकायत करने लगे हैं। कुछ लोगों को डर है कि टिकट बंटवारे में उनके धड़े हाशिए पर जा सकते हैं। कुछ बस अमरिंदर को रोकना चाहते हैं।
असंतुष्टों में सबसे प्रसिद्ध नवजोत सिंह सिद्धू हैं, जो एक लोकप्रिय और मिलनसार राजनेता हैं, जिन्होंने भाजपा में वर्षों बिताए और फिर अंततः कांग्रेस में शामिल होने से पहले आम आदमी पार्टी से भी उनकी नजदीकी देखने को मिली थी। सिद्धू के करिश्मे के बावजूद वह कभी भी असंतुष्टों के नेता नहीं हैं। वास्तव में उनमें से कई उन्हें उतना ही आपत्तिजनक पाते हैं जितना कि वे अमरिंदर को पाते हैं।
गांधी परिवार से करीबी का क्यों प्रचार कर रहे सिद्धू
सिद्धू ने हाल के हफ्तों में प्रियंका और राहुल गांधी से अपने संबंधों के कारण अधिक महत्व प्राप्त कर लिया है। इस सप्ताह उनके संबंध गांधी परिवार के दोनों युवा नेताओं से और मजबूत हुए। दोनों ने उनके साथ दिल्ली में कई घंटे बिताए। इस तथ्य को सिद्धू ने ट्विटर पर गर्व से प्रचारित किया।
यह हो सकता है कि गांधी परिवार बस उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहा था और उन्हें एक समझौता स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रहे था। हालांकि इसकी सटीक जानकारी किसी के पास नहीं है। लेकिन बैठक के तुरंत बाद, सिद्धू को राज्य कांग्रेस इकाई का प्रमुख बनाए जाने की खबरें प्रेस में लीक हो गईं।
यदि ऐसा होता है, तो यह असाधारण होगा। एक व्यक्ति भाजपा छोड़ देता है, कांग्रेस में शामिल हो जाता है, अपने राज्य के नेताओं के नाम पुकारता है और उस पार्टी का मुखिया बनकर पुरस्कृत होता है, जिसके विरोध में उसने अपना अधिकांश करियर बिताया है।
कैप्टन अमरिंदर को जीत का श्रेय नहीं देना चाहती कांग्रेस लीडरशिप
एक व्याख्या यह है कि गांधी परिवार अंततः भयानक चुनावी हार (केरल, असम, पुदुचेरी और बंगाल में सफाया) के बाद एक जीत की तलाश में है। पंजाब में उसे जीत पक्की दिख रही है। ऐसे में अमरिंदर को श्रेय क्यों दिया जाए? अपने प्रतिद्वंद्वियों को टिकट क्यों न दें, उन्हें चुनाव लड़ने दें और फिर जब परिणाम घोषित हो जाएं, तो सीएम की जगह लें और इसे राहुल गांधी के लिए जीत के रूप में दावा करें?
यह व्याख्या बहुत अनुचित हो सकती है, लेकिन अधिक से अधिक कांग्रेसियों को संदेह है कि यह अंत का खेल है। सिद्धू राहुल की प्रतिष्ठा को बहाल करने के लिए एक बड़े खेल में मोहरा हैं।