कृष्णमोहन झा
देश के दो भाजपा शासित राज्यों और दो कांग्रेस शासित राज्यों में विगत कुछ माहों से मुख्यमंत्री के विरुद्ध असंतोष की खबरें सामने आ आ रही थीं।
इनमें कांग्रेस शासित राज्यों राजस्थान और पंजाब के मुख्यमंत्रियों को तो केन केन प्रकारेण अपनी कुर्सी बचाने में सफलता मिल गई परंतु भाजपा शासित राज्यों कर्नाटक और उत्तराखंड के मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देने के लिए विवश होना पड़ा।
उत्तराखंड में तो यह नौबत आ गई कि भाजपा को थोड़े से अंतराल में दो मुख्यमंत्री बदलने पडे । उत्तराखंड और कर्नाटक में पार्टी के अंदर मची उथल-पुथल से परेशान भाजपा अब राजस्थान और पंजाब की कांग्रेस सरकारों के अंदर मची उठा-पटक पर कोई प्रतिक्रिया देने से बच रही है।
यही स्थिति काफी हद तक कांग्रेस की है हालांकि उसे इस बात का सुकून हो सकता है कि राजस्थान और पंजाब में अपनी सरकारों पर आया संकट टालने में वह फिलहाल सफल हो गई है।
भाजपा ने उत्तराखंड में जल्दी जल्दी दो मुख्यमंत्री जरूर बदले परंतु पार्टी हाईकमान ने जिस तरह कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को कुर्सी छोड़ने के लिए विवश किया उसकी इस समय ज्यादा चर्चा हो रही है।
येदियुरप्पा ने साफ कह दिया था कि जब तक पार्टी हाईकमान उन्हें पदत्याग के लिए निर्देशित नहीं करेगा वे इस्तीफा नहीं देंगे लेकिन पिछले दिनों न ई दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से भेंट करके वे बेंगलुरु लौटे थे तभी से यह संकेत मिलने शुरू हो गए थे कि उनके सामने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है फिर भी वे लिंगायत समुदाय के मठाधीशों के प्रभाव का इस्तेमाल करके अपनी कुर्सी बचाने की कोशिशों में लगे हुए थे।शायद उनकी यह कोशिश पार्टी हाईकमान को पसन्द नहीं आई और मुख्यमंत्री पद छोड़ना उनकी मज़बूरी बन गया।
पत्रकारों को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के अपने फैसले की जानकारी देते येदियुरप्पा ने भले ही यह कहा कि वे खुशी से मुख्यमंत्री पद छोड़ रहे हैं परंतु उनका भावुक चेहरा उनके अंदर की पीडा की गवाही दे रहा था।
येदियुरप्पा ने यह भी कहा कि वे कई बार अग्नि परीक्षा से गुजर चुके हैं। येदियुरप्पा के आंसुओं ने बरबस ही उस प्रसंग की याद दिला दी है जब उनके पूर्व मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन कुमारस्वामी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा था कि वे जहर का घूंट पीकर सरकार चला रहे हैं।
गौरतलब है कि आपरेशन कमल के जरिए कुमारस्वामी की एक साल पुरानी सरकार गिराकर येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी। यह भी एक विडम्बना ही है कि येदियुरप्पा को अपनी सरकार की दूसरी वर्षगांठ का जश्न मनाना था उसी दिन उन्हें अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा।
लिंगायत समुदाय के अग्रणी नेता को यह मलाल भी जरूर होगा कि होगा कि चार बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का सौभाग्य मिलने के बावजूद वे कभी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए।
2018 में संपन्न राज्य विधानसभा चुनावों में जब भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तब नवनिर्वाचित सदन जनता दल एस और कांग्रेस गठबंधन से भाजपा की कम सीटें होने के बावजूद राज्य पाल ने उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें 48 घंटों के बाद ही अपमानजनक परिस्थितियों में इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा।
मुख्यमंत्री के रूप में उनका अधिकतम कार्यकाल मात्र तीन वर्ष रहा। जब भी वे मुख्यमंत्री बने , प्रायः विवादों में घिरे रहे परंतु दक्षिण के किसी राज्य में भाजपा के लिए सत्ता के द्वार खोलने का श्रेय येदियुरप्पा को ही जाता है।
75 वर्ष की आयु के बाद सत्ता से हटने का जो फार्मूला तय किया गया है उसके अनुसार येदियुरप्पा अब मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार खो चुके थे। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा का इस बार के लिए आभार व्यक्त किया है कि 75 की आयु में भी उन्हें मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभालने का मौका दिया गया।
दरअसल मुख्यमंत्री पद छोड़ने हेतु उन पर जो दबाव बनाया जा रहा था उसकी एक वजह यह भी थी कि वे अब 78वर्ष के हो चुके हैं ।पार्टी विधायक दल में उनके विरोधी यह आरोप लगाने में भी संकोच नहीं कर रहे थे कि मुख्यमंत्री की वृद्धावस्था के कारण अब सत्ता संचालन में उनके परिवार के सदस्यों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है।
येदियुरप्पा को जिन कारणों से चौथी बार भी मुख्यमंत्री पद पर अपना कार्य काल पूरा होने के पहले इस्तीफा देने के लिए विवश होना पड़ा उसमें उनकी कार्य शैली और कोविड के प्रबंधन में खामियों का बड़ा हाथ है।
येदियुरप्पा से उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों के अलावा अनेक भाजपा विधायक भी नाराज थे और भ्रष्टाचार के आरोपों से येदियुरप्पा पहले भी मुश्किल में आ चुके हैं।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में फिलहाल केंद्रीय मंत्री प्रहलाद जोशी सबसे आगे चल रहे हैं। वे प्रधानमंत्री मोदी के भी काफी निकट माने जाते हैं इसीलिए सरकार में उन्हें संसदीय कार्यमंत्री मंत्री की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई है।
दरअसल भाजपा हाईकमान अब मुख्यमंत्री पद की बागडोर किसी ऐसे नेता को सौंपना चाहता है जिसका राजनीतिक कैरियर बेदाग और निर्विवाद रहा हो।
पार्टी नेतृत्व मानता है कि ऐसा ही मुख्यमंत्री दो साल बाद होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में पार्टी को बहुमत दिलाने में सफल हो सकता है। प्रहलाद जोशी इस कसौटी पर खरे उतरते हैं।
संघ भी उनके नाम पर राजी हो सकता है। अब यह उत्सुकता का विषय है कि पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को पार्टी में कोई बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जाती है अथवा उन्हें सन्यासी राजनेता का जीवन बिताने का विकल्प चुनने के लिए कहा जाता है।
वैसे पूर्व मुख्यमंत्री ने साफ कह दिया है कि वे सक्रिय राजनीति में बने रहेंगे। यह संभावनाएं भी व्यक्त की जा रही हैं कि पार्टी उनके लिए कोई ऐसी भूमिका तय कर सकती है जिसमें 78 वर्षीय पूर्व मुख्यमंत्री का सम्मान भी बरकरार रहे।
दरअसल येदियुरप्पा की इच्छा यह है कि उनके बेटों को नई भाजपा सरकार अथवा संगठन में किसी महत्वपूर्ण पदों से नवाजा जाए। अभी यह कहना मुश्किल है कि येदियुरप्पा की इस मंशा को पूरी करने में भाजपा नेतृत्व कितनी रुचि लेता है परन्तु इतना तो तय माना जा रहा है कि कर्नाटक में बनने वाली नई भाजपा सरकार का चेहरा पूर्ववर्ती येदियुरप्पा सरकार से काफी हद तक अलग होगा जिसमें कुछ पुराने मंत्रियों को हटाकर युवा चेहरों को मौका दिया जाएगा।
(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं डिज़ियाना मीडिया समूह के सलाहकार है)