नई दिल्ली। हवा में बर्फ- सा दल- दल है। मन में इच्छाओं, आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं का दल- दल है। और आज की राजनीति में दलबदल का दलदल है। राजनीतिक दलबदल के इस वातावरण में हम आम लोगों की गिनती नेताओं के घरों में रंधाती दाल से ज्यादा कुछ नहीं है। फिर भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
हम जिस दल के लिए उन्हें वोट देते हैं, पाँच साल में वे दूसरे या तीसरे दल की तरफ़ हो जाते हैं और कभी तो चौथे में जाकर हमसे फिर वोट माँगने आ जाते हैं, लेकिन हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम फिर उन्हीं को वोट देते हैं। वे फिर दल बदल लेते हैं।
इसे ऐसे देखें- किसी नेता से हमारा लगाव उसके कार्यों या उसकी पार्टी के कारण हो सकता है। किसी पार्टी से और किसी गठबंधन से भी हमारा सार्वजनिक हित जुड़ा हो सकता है। लेकिन उसी पार्टी को, उसी गठबंधन को जब वो नेता तोड़कर किसी और दल में जाता है, यही एक मात्र वो कृत्य होता है जिससे हम आम लोगों का कोई वास्ता नहीं होता।
दलबदल केवल और केवल निजी स्वार्थ के कारण ही होता है। इसके तीन ही कारण होते हैं- पद, पैसा या महत्वाकांक्षा। इसमें हमारा यानी वोटर का हित कहाँ है? लेकिन हम इसे समझना ही नहीं चाहते। हर बार, हमारी हड्डियाँ और चूड़ियाँ ये एक साथ तोड़ते हैं।
ये बड़े- बड़े महारथी हमारी अकेली- निहत्थी आवाज़ को अपने ब्रम्हास्त्रों से कुचलते रहते हैं। लेकिन लोकतंत्र के रथ के इस टूटे हुए पहिए में अपना हाथ लगाकर कोई बचाने नहीं आता। आए भी क्यों? हमें टूट- टूटकर बार बार बिखरने और फिर किसी ककनूसी संघर्ष की तरह जुड़ जाने की बेख़ौफ़ लत जो है। उदारमना। इसी उदारता को ये नेता हमारी लाचारी समझते हैं। कमजोरी भी।
लेकिन उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वे अपने भ्रष्टाचार को वाशिंग मशीन में धोकर साफ़ सुथरा करने के लिए सत्ता पक्ष से जा मिलते हैं। और कुछ ही दिनों में देखने में आता है कि वे वाक़ई सफ़ेदी के पर्याय हो गए हैं। कोई दाग नहीं रह गया।
उनकी अक्षौहिणी सेना को चुनौती देता कोई आज का अभिमन्यु जब उनका चक्रव्यूह तोड़ने में सफल हो जाता है तो उनकी महत्वाकांक्षा कटोरी में पड़े मूँग की तरह फूटने लगती है। वे अस्सी – बयासी की उम्र में भी बाक़ायदा दम्भ भरते हैं कि पार्टी को एक बार फिर खड़ा कर देंगे। … कि सत्ता एक बार फिर उनके कदम चूमेगी?
… और वो अभिमन्यु , जिसने माँ के पेट में ही चक्रव्यूह में प्रवेश का ज्ञान तो ले लिया था, लेकिन निकलने का नहीं तो आज के इस राजनीतिक अभिमन्यु को चक्रव्यूह तोड़ने का ज्ञान किसने दिया? निश्चित ही सत्ता पक्ष ( बलशाली) और उसकी लालसा ने ही दिया होगा, पर हमें इससे कोई सरोकार नहीं होता। इससे भी क़तई नहीं कि हमारे कृष्ण और राम और मनु ने क्या किया, कैसे किया और ये आज के जनप्रतिनिधि आख़िर क्या कर रहे हैं?
सिवाय रोज़मर्रा की जहद और झमेले से हमें फुर्सत कहाँ? हमारे पास तो एक मशक़्क़त से भरी ज़िन्दगी है। थोड़े से नोटों की आमदनी। वो भी महीना पूरा होने के बाद मिलती है। बस, इसी में उलझे रहते हैं और हमारी असल ताक़त जो इन नेताओं के पास जाने कब से गिरवी पड़ी है, वे इसका इस्तेमाल कर करके तख़्तो-ताज तक गिराते- उठाते रहते हैं।
हालाँकि सरकारों को गिराने का सिलसिला हमारे यहाँ पुराना है। बहाने और कारण भी बड़े छिछले। किसी एक बलशाली के खिलाफ मिलकर खड़ा होने का 1977 का उदाहरण भारतीय राजनीति में अनोखा था। जय प्रकाश नारायण का यह प्रयोग सफल भी हुआ और जब वे वेंटिलेटर पर साँसें गिन रहे थे, तभी इस प्रयोग ने भी दम तोड़ दिया। अगर चौधरी चरण सिंह, मोरारजी की बात मान लेते, अगर मधु लिमये संघ की दोहरी सदस्यता का बखेड़ा खड़ा नहीं करते तो जेपी का यह सपना आधे रास्ते धराशायी नहीं होता।
चौधरी चरण सिंह को बिना शर्त समर्थन देने वाली कांग्रेस बहुमत साबित करने के दिन उन्हें अगर शर्तों का पुलिंदा नहीं थमाती, तो वो सरकार भी नहीं गिरती। प्रधानमंत्री पद के सिवाय कभी कोई पद न लेने की क़सम खाने वाले चंद्रशेखर के साथ भी यही हुआ। राजीव गांधी के घर के सामने हरियाणा पुलिस के दो सिपाही क्या नज़र आ गए, चंद्रशेखर की सरकार गिरा दी गई।
कुल मिलाकर आज का राजनीतिक माहौल डर और धौंस- पट्टी पर टिका हुआ है। नेताओं ने अपने लफ़्ज़ों को तलवारें थमा दी हैं और हम सोए हुए हैं वर्षों से। अब घनघोर बारिश भी हमें जगाती नहीं है, छत की चादरें बजाकर। क्योंकि छतें अब सीमेंट की हैं। न उनके कान हैं, न नाक। यह तो साफ़ है कि सत्ता के मंदिर के गर्भगृहों में अब चाँदी के छत्र हैं। सोने के दीपक हैं। हीरों से जड़ी झालरें भी हैं, लेकिन भगवान नहीं हैं। हमें इस सोने, इस चाँदी और इन हीरों के दर्शन से ज़्यादा संतुष्टि मिलने लगी है। यह तंद्रा खुलनी चाहिए। यह निद्रा ख़त्म होनी चाहिए।