19 दिसंबर 1978, इमरजेंसी के बाद केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री। देर शाम लोकसभा अध्यक्ष केएस हेगड़े ने स्पेशल पावर का इस्तेमाल करते हुए इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी का आदेश जारी किया। CBI अधिकारी एनके सिंह संसद भवन पहुंचे और तत्काल इंदिरा को गिरफ्तार कर लिया गया।
इंदिरा की गिरफ्तारी विशेषाधिकार हनन के आरोप में हुई थी।
अगले दिन यानी, 20 दिसंबर को इंडियन एयरलाइंस के एक विमान ने लखनऊ से दिल्ली के लिए उड़ान भरी। थोड़ी देर बाद दो युवक अपनी सीट से उठे और अटेंडेंट से बोले- ‘हमें पायलट से कुछ जरूरी बात करनी है।’
अटेंडेंट ने कॉकपिट खोलकर पायलट से जैसे ही कुछ पूछना चाहा, दोनों युवक जबरन अंदर घुस गए। एक युवक की हाथ में पिस्टल थी और दूसरे के हाथ में गोला।
दोनों युवकों ने पायलट से प्लेन को काठमांडू ले जाने के लिए कहा, पर पायलट इसके लिए तैयार नहीं हुआ। कुछ देर की बहस के बाद पायलट, प्लेन को वाराणसी लैंड करने के लिए तैयार हो गया।
पायलट ने ऐलान किया- ‘प्लेन को हाईजैक कर लिया गया है।’
दोनों युवक नारा लगाने लगे- ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद, संजय गांधी जिंदाबाद…इंदिरा गांधी को जेल से रिहा करो…’
प्लेन में उस वक्त 132 यात्री थे। ज्यादातर सहम गए। जैसे ही प्लेन ने वाराणसी में लैंड किया, मीडिया में आग की तरह खबर फैल गई। तब UP के मुख्यमंत्री रहे राम नरेश यादव, चीफ सेक्रेटरी और आईजी फौरन एयरपोर्ट पहुंचे।
दोनों युवकों को गिरफ्तार कर लिया गया। इनके हाथ में नकली बंदूक थी और यात्री जिसे गोला समझ रहे थे, वो क्रिकेट की बॉल थी।
एक युवक का नाम भोलानाथ पांडे और दूसरे का नाम देवेंद्र नाथ पांडे था। बाद में दोनों को कांग्रेस पार्टी की तरफ से टिकट मिला और वे विधायक भी बने।
26 साल बाद ….18 मई 2004 की बात है। लोकसभा चुनाव में UPA गठबंधन की जीत के बाद सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री बनना तय माना जा रहा था, लेकिन ऐन वक्त पर सोनिया गांधी ने PM बनने से इनकार कर दिया।
इधर दिल्ली में कांग्रेस दफ्तर के बाहर समर्थकों की भीड़ उमड़ी थी। सोनिया गांधी जिंदाबाद के नारे लग रहे थे। जब समर्थकों को पता चला कि सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया है, तो वे प्रदर्शन करने लगे।
इसी बीच एक कांग्रेसी नेता कार के ऊपर चढ़ गया। अपनी कनपटी पर पिस्टल सटाकर कहने लगा कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनती हैं, तो वह गोली मारकर खुदकुशी कर लेगा। इस नेता का नाम गंगाचरण राजपूत था, जो बाद में BJP में शामिल हो गए।
ये दोनों किस्से बताते हैं कि कांग्रेस में गांधी परिवार का किस हद तक वर्चस्व रहा है।
आज का ‘यक्ष प्रश्न’ है : क्या गांधी परिवार के बिना कांग्रेस जिंदा नहीं रह सकती?
1960 के दशक की बात है। कांग्रेस के भीतर ताकतवर नेताओं का एक ग्रुप हुआ करता था, जिसे मीडिया ने सिंडिकेट नाम दिया था। पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते ही सिंडिकेट के नेता दबी जुबान से चर्चा करने लगे थे कि नेहरू के बाद कौन?
इसी बीच 27 मई 1964 को नेहरू का निधन हो गया। अगले ही दिन सिंडिकेट के मेंबर और कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज नए PM की तलाश में जुट गए।
सीनियर जर्नलिस्ट सागरिका घोष अपनी किताब में ‘इंदिरा इंडियाज मोस्ट पावरफुल प्राइम मिनिस्टर’ में लिखती हैं- ‘तब बंबई प्रांत के पूर्व मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर थी। नेहरू के बाद सीनियॉरिटी में उनका नंबर भी था, लेकिन सिंडिकेट के नेताओं को लगता था कि मोरारजी, प्रधानमंत्री बने, तो उनका वर्चस्व खत्म हो जाएगा।’
इंदिरा गांधी भी पीएम पद की दावेदार थीं, लेकिन उन्होंने कहा कि अभी मैं तैयार नहीं हूं। चूंकि इंदिरा भी मोरारजी को पसंद नहीं करती थीं, इसलिए उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का नाम आगे बढ़ाया।
2 जून 1964 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में प्रधानमंत्री पद के लिए शास्त्री का नाम प्रस्तावित किया गया। ना चाहते हुए भी मोरारजी को सहमति जतानी पड़ी।
शास्त्री के PM बनने के कुछ महीने बाद ही इंदिरा गांधी के साथ उनके अनबन की खबरें आने लगीं। इंदिरा, शास्त्री को बिना बताए बड़े फैसले लेने लगी थीं।
11 जनवरी 1966 को अचानक ताशकंद में शास्त्री का निधन हो गया। एक बार फिर से कांग्रेस में प्रधानमंत्री तलाशने की कवायद शुरू हो गई। मोरराजी ने फिर से दावेदारी पेश की।
तब सिंडिकेट की पसंद के. कामराज थे, लेकिन उन्होंने ऐन वक्त पर यह कहते हुए मना कर दिया कि मुझे ना तो हिंदी आती है, ना इंग्लिश…मैं देश को एकजुट कैसे करूंगा।’
तब इंदिरा गांधी सूचना प्रसारण मंत्री थीं। सिंडिकेट की नजर में इंदिरा कमजोर नेता थीं। सदन में बहुत ज्यादा बोल नहीं पाती थीं। सिंडिकेट को फिर से लगा कि मोरारजी प्रधानमंत्री बनते हैं, तो पूरी पार्टी पर उनका दबदबा हो जाएगा, जबकि इंदिरा उनकी मदद के बिना सरकार नहीं चला पाएंगीं।
19 जनवरी 1966 को कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी यानी CPP की बैठक में इंदिरा और मोरारजी के बीच चुनाव हुआ। इंदिरा को 355 और मोरारजी को 169 सांसदों के वोट मिले। इस तरह इंदिरा देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं।
इंदिरा गांधी के निजी डॉक्टर रहे डॉ. केपी माथुर अपनी किताब ‘द अनसीन इंदिरा गांधी’ में लिखते हैं- ‘PM बनने के एक-दो साल बाद तक इंदिरा बहुत तनाव में रहीं। वो उन कार्यक्रमों में असहज महसूस करती थीं, जहां उन्हें बोलना होता था।
इस नर्वसनेस की वजह से उनका पेट गड़बड़ हो जाता था। सिर में दर्द होने लगता था। इंदिरा की इस असहजता का विपक्ष मजाक उड़ाता था। राम मनोहर लोहिया ने तो इंदिरा को ‘गूंगी गुड़िया’ तक कह दिया था।’
इसके बाद इंदिरा ने अपनी रणनीति बदली और सीधे ग्राउंड पर जाकर लोगों से मिलना शुरू कर दिया। देश में अलग-अलग जगहों पर गईं। इंदिरा गांधी की इस रणनीति से सिंडिकेट खुश नहीं था।
1967 में लोकसभा चुनाव हुए। कांग्रेस बहुमत हासिल करने में कामयाब रही, लेकिन के. कामराज, केबी सहाय जैसे कई कद्दावर नेता हार गए। तब कांग्रेस को 283 सीटें मिलीं, जो 1952 के लोकसभा चुनाव के बाद सबसे कम थीं।
पंजाब, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, केरल, मद्रास, ओडिशा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पार्टी के हाथ से सत्ता फिसल गई।
मार्च 1967 में इंदिरा गांधी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं। मोरारजी को उन्होंने डिप्टी प्राइम मिनिस्टर बनाया। हालांकि मोरारजी को इंदिरा की लीडरशिप में काम करना अखरता था। वक्त के साथ दोनों के बीच मतभेद भी शुरू हो गए।
16 जुलाई 1969 को इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई को अपनी कैबिनेट से निकाल दिया। तीन दिन बाद यानी, 19 जुलाई को 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। इस पर सिंडिकेट खासा नाराज हुआ। पार्टी के भीतर इंदिरा के खिलाफ बगावत के सुर उठने लगे।
इसी साल जाकिर हुसैन के निधन के बाद सिंडिकेट ग्रुप तत्कालीन लोकसभा स्पीकर नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति बनाना चाहता था, लेकिन इंदिरा की पसंद वीवी गिरी थे।
इंदिरा के विरोध के बावजूद कांग्रेस ने संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया। इधर इंदिरा के कहने पर तत्कालीन उप राष्ट्रपति वीवी गिरी इस्तीफा देकर निर्दलीय मैदान में उतर गए।
संजीव रेड्डी के लिए कामराज और कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा जैसे बड़े नेता प्रचार में जुटे थे। इंदिरा गांधी आधे-अधूरे मन से मीटिंग में जा तो रही थीं, लेकिन उनके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था।
वोटिंग से एक दिन पहले कांग्रेस अध्यक्ष ने रेड्डी के पक्ष में मतदान के लिए व्हिप जारी की। इधर इंदिरा गांधी ने सांसदों और विधायकों से अंतरात्मा की आवाज पर वोट डालने की अपील कर दी। सिंडिकेट के उम्मीदवार रेड्डी चुनाव हार गए और वीवी गिरी राष्ट्रपति बने। बस यहीं से सिंडिकेट ने इंदिरा को हटाने का मन बना लिया।
12 नवंबर 1969, पंडित जवाहर लाल नेहरू की बर्थ एनिवर्सरी से दो दिन पहले की बात है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने एक बैठक बुलाई। तीन घंटे की मीटिंग के बाद 21 में से 11 सदस्यों की सहमति से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से निकाल दिया गया।
इंदिरा गांधी ने कमेटी का फैसला नहीं माना और अगले दिन एक बैठक बुलाई, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा, कामराज और मोरारजी देसाई ने बैठक का बहिष्कार कर दिया।
इसके बाद कांग्रेस टूट गई। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस रिक्विजिशनिस्ट (याचक) यानी कांग्रेस (R) बनाया और दूसरा धड़ा कांग्रेस ऑर्गेनाइजेशन यानी कांग्रेस (O) हो गया।
इंदिरा की सरकार अल्पमत में आ गई, लेकिन लेफ्ट और डीएमके की मदद से उनकी सत्ता बरकरार रही।
दिसंबर 1970 में इंदिरा ने लोकसभा भंग कर दी। फरवरी 1971 में लोकसभा चुनाव हुए। कांग्रेस (O) ने जनसंघ, एसएसपी, पीएसपी, स्वतंत्र पार्टी और भारतीय क्रांति दल के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया। दूसरी तरफ इंदिरा CPI के साथ मिलकर चुनाव में उतरीं।
उस चुनाव में इंदिरा ने नारा दिया- ‘वे कहते हैं इंदिरा हटाओ और मेरा मकसद है ‘गरीबी हटाओ’।
लग रहा था कि पार्टी में टूट के बाद इंदिरा कमजोर हो गई हैं, लेकिन नतीजों ने सबको चौंका दिया। इंदिरा की कांग्रेस को 352 सीटें मिलीं और कांग्रेस (O) 16 सीटों पर सिमट गई।
पांच साल के भीतर इंदिरा तीसरी बार प्रधानमंत्री बनीं। 1971 में ही इंदिरा ने बांग्लादेश को पाकिस्तान से मुक्ति दिलाई और अगले साल यानी, 1972 में लगभग सभी विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की।
संजय गांधी की कांग्रेस एंट्री, सरकार के बड़े फैसले लेने लगे
12 जून, 1975, करप्शन के आरोप में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी। 6 साल तक उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। इसके बाद 25 जून को इंदिरा गांधी ने देशभर में इमरजेंसी लगा दी।
कहा जाता है कि इमरजेंसी लगाने की सलाह इंदिरा को उनके बेटे संजय गांधी ने दी थी। तब संजय का कांग्रेस में अच्छा-खासा दबदबा हो गया था।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा एक आर्टिकल में लिखते हैं- ‘1975 में इंदिरा ने संजय गांधी को राजनीतिक वारिस बनाया। उसके बाद से कांग्रेस पार्टी एक फैमिली फर्म बन गई। पार्टी पर गांधी परिवार हावी हो गया।’
पत्रकार वीर सांघवी को दिए एक इंटरव्यू में पूर्व PM इंद्र कुमार गुजराल ने बताया था, ‘मुझे प्राइम मिनिस्टर हाउस से फोन आया कि प्रधानमंत्री आपसे मिलना चाहती हैं। सुबह 10-11 बजे मैं वहां पहुंचा। तब तक प्रधानमंत्री दफ्तर के लिए निकल चुकी थीं।
मैं जब बाहर आने लगा, तो सामने संजय गांधी दिखे। उस दिन उनका मूड खराब था, क्योंकि आकाशवाणी के एक चैनल ने इंदिरा गांधी की स्पीच टेलीकास्ट नहीं की थी।’
संजय ने झल्लाते हुए कहा, ‘देखिए, ऐसा नहीं चलेगा।’
गुजराल ने जवाब दिया, ‘देखिए, जब तक मैं हूं, ऐसा ही चलेगा। आपको बात करनी है, तो थोड़ा सलीका सीखिए। मैं आपकी मां का मंत्री हूं, आपका नहीं।’
इस घटना के बाद गुजराल को सूचना और प्रसारण मंत्रालय से हटा दिया गया।
1977 में कांग्रेस (O) जनता पार्टी के साथ मर्ज हो गई। 1978 में इंदिरा गांधी की पार्टी कांग्रेस (I) बन गई। 1984 में चुनाव आयोग ने इंदिरा की पार्टी को असली कांग्रेस के तौर पर मान्यता दी। और 1996 में इंदिरा (I) इंडियन नेशनल कांग्रेस के रूप में जानी जाने लगीं।
इंदिरा के निधन के दिन ही राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गई
23 जून 1980 को संजय गांधी की मौत एक विमान हादसे में हो गई। चार साल बाद 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई।
इंदिरा के निधन के बाद कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी, पीवी नरसिम्हाराव जैसे कई नेता प्रधानमंत्री के मजबूत दावेदार थे, लेकिन एक बार फिर से कांग्रेस गांधी परिवार के हिस्से आई।
31 अक्टूबर को ही इंदिरा के दूसरे बेटे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गई।
1984 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 414 सीटें मिलीं। राजीव गांधी फिर से प्रधानमंत्री बने, लेकिन अगले चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। केंद्र के साथ-साथ कांग्रेस के हाथ से यूपी भी फिसल गया। उसके बाद कांग्रेस को कभी लोकसभा चुनाव में बहुमत नहीं मिला। यूपी में भी कांग्रेस की कभी वापसी नहीं हो पाई।
21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या हो गई। तब केंद्र में समाजवादी जनता पार्टी की सरकार थी। सोनिया गांधी उस वक्त राजनीति से दूर थीं। राहुल गांधी 21 साल के और प्रियंका 19 साल की थीं।
पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह अपनी किताब ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ’ में लिखते हैं- ‘राजीव की हत्या के बाद कांग्रेस अध्यक्ष और पीएम बनने की दौड़ में सोनिया गांधी, अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, शरद पवार और माधवराव सिंधिया जैसे नेता थे, लेकिन सोनिया ने राजनीति में आने से ही इनकार कर दिया।
1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 140 सीटें ही जीत पाई। कई पुराने लोग पार्टी छोड़ रहे थे। इसी बीच दिग्विजय सिंह ने सोनिया से कहा कि सीताराम केसरी के अध्यक्ष रहते कांग्रेस 100 सीटें भी नहीं जीत पाएगी। इसके बाद केसरी को अध्यक्ष पद से हटाने की रणनीति बनने लगी।
सोनिया गांधी ने 130 सभाएं की, कांग्रेस अध्यक्ष को प्रचार से दूर रखा गया
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई बताते हैं- ‘1998 के आम चुनाव में ऐसा पहली बार हुआ कि कांग्रेस अध्यक्ष को चुनाव प्रचार से दूर रखा गया। सीताराम केसरी किसी भी राज्य, यहां तक कि खुद के बिहार में भी प्रचार के लिए नहीं गए। जबकि सोनिया गांधी ने 130 सभाएं कीं।
इसके बावजूद कांग्रेस ने अपनी पारंपरिक सीट अमेठी गंवा दी। अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता हार गए। तब कांग्रेस को 142 सीटें मिलीं, लेकिन हार का ठीकरा सोनिया गांधी के वफादारों ने केसरी के ऊपर फोड़ दिया।’
14 मार्च 1998 को सुबह 11 बजे कांग्रेस वर्किंग कमेटी यानी, CWC की बैठक हुई। प्रणब मुखर्जी ने केसरी की सेवाओं के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और सोनिया गांधी को नया अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पेश किया। इतना सुनते ही केसरी गुस्से में मीटिंग छोड़कर चले गए।
जब दबाव में पहली बार गांधी परिवार को अपनी लिगेसी से समझौता करना पड़ा
सोनिया गांधी की अध्यक्षता में 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई, लेकिन 2004 में UPA गठबंधन को बहुमत मिल गया।
सोनिया का PM बनना लगभग तय था। तब विदेशी मूल का मुद्दा गरमाया हुआ था। सुषमा स्वराज ने तो यहां तक कह दिया था कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनती हैं, तो वो अपना सिर मुंडवा लेंगी। BJP के साथ-साथ दूसरे विपक्षी दल भी विदेशी बहू का मुद्दा उठा रहे थे।
आखिरकार गांधी परिवार को अपनी लिगेसी से समझौता करना पड़ा और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। हालांकि कांग्रेस की इंटरनल पावर गांधी परिवार के पास ही रही। 2009 के चुनाव में भी सरकार का चेहरा मनमोहन सिंह थे, लेकिन पार्टी की कमान सोनिया गांधी के पास रही।
आजादी के बाद सबसे खराब प्रदर्शन, कांग्रेस की कमान गांधी परिवार के पास ही रही
2014 लोकसभा चुनाव में रिकॉर्ड सीटें जीतकर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस को महज 46 सीटें मिलीं। आजादी के बाद सबसे कम। इस हार के बाद कांग्रेस के साथ-साथ गांधी परिवार पर भी सवाल उठने लगे, क्योंकि तब सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थीं और राहुल गांधी वाइस प्रेसिडेंट।
2017 के अंत में राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस बुरी तरह हार गई। उसे 56 सीटें ही मिलीं। राहुल गांधी अपनी पारंपरिक सीट अमेठी से चुनाव हार गए। 12 और 5 केंद्र शासित प्रदेशों में कांग्रेस का खाता तक नहीं खुला।
लगातार दो बड़ी हार के बाद कांग्रेस के साथ-साथ गांधी परिवार के अस्तित्व पर सवाल उठने लगे। कहा जाने लगा कि कांग्रेस को जिंदा रखना है, तो गांधी परिवार को लीडरशिप से अलग करना पड़ेगा।
जुलाई 2019 में राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। सियासी गलियारों में कयास लगने लगे कि कोई गैर गांधी परिवार का कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा, लेकिन ऐन वक्त पर सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बना दिया गया।
सितंबर 2022 में राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की शुरुआत की और अक्टूबर 2022 में मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया।
करीब 24 साल बाद कोई गैर गांधी परिवार से कांग्रेस अध्यक्ष बना। इसके बाद राहुल गांधी ने खुद को काफी रिवाइव किया। हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बनी। इन चुनावों में कांग्रेस के अध्यक्ष भले ही खड़गे रहे, लेकिन पार्टी का चेहरा राहुल गांधी ही थे।
38 साल तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहा गांधी परिवार
आजादी के बाद देश में 17 लोकसभा चुनाव हुए हैं। इनमें से 15 चुनावों में कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के अध्यक्ष या पीएम रहते लड़ी है। 10 चुनावों में पार्टी को जीत मिली है और 5 में हार।
गैर गांधी परिवार के अध्यक्ष या पीएम रहते कांग्रेस सिर्फ दो बार लोकसभा चुनाव लड़ी है और दोनों चुनावों में पार्टी को हार मिली है।
आजादी के बाद 44 सालों तक कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार से रहा। जबकि 28 साल तक गैर गांधी परिवार से कांग्रेस अध्यक्ष रहा। कांग्रेस अब तक 23 बार टूटी है, इनमें से 20 बार गांधी परिवार के अध्यक्ष या पीएम रहते।
अब तक देश में कांग्रेस के 5 प्रधानमंत्री बने हैं, इसमें 3 गांधी परिवार से रहे। करीब 38 साल तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर गांधी परिवार का कब्जा रहा।
कांग्रेस के लिए गांधी परिवार मजबूरी क्यों है, 4 बड़ी वजह :
1. हर गांधी अगले गांधी के लिए रास्ता बनाता गया
आजादी से पहले मोतीलाल नेहरू ने जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए महात्मा गांधी से सिफारिश की थी। उसके बाद 1929 में जवाहर लाल कांग्रेस अध्यक्ष बने। प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू बेटी इंदिरा गांधी को राजनीति में लेकर आए और उन्हें 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बनाया।
इंदिरा गांधी ने पहले संजय गांधी को अपना राजनीतिक वारिस बनाया और फिर संजय के निधन के बाद राजीव गांधी राजनीति में आए। 1984 में इंदिरा की हत्या के बाद राजीव प्रधानमंत्री बने और अगले ही साल पार्टी की कमान भी अपने हाथों में ले ली।
राजीव की मौत के बाद कुछ सालों के लिए सत्ता और पार्टी की कमान गांधी परिवार से दूर रही, लेकिन फिर सोनिया गांधी ने अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के लिए रास्ता बनाया। अब राहुल गांधी ही पार्टी का चेहरा हैं। साथ ही प्रियंका गांधी भी हर बड़े कार्यक्रम और फैसलों में शामिल हो रही हैं।
2. गांधी परिवार की लिगेसी
कांग्रेस में आजादी के पहले से ही नेहरू-गांधी परिवार की अहम भूमिका रही है। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा तीनों आजादी के आंदोलनों में शामिल रहे हैं और जेल गए हैं।
आजादी के बाद तीन-तीन प्रधानमंत्री गांधी परिवार से हुए। देश को आगे ले जाने और कई बड़ी योजनाओं से नेहरू-गांधी परिवार का नाम जुड़ा रहा है। इसके अलावा इंदिरा और राजीव की शहादत भी हुई है। जिसका जिक्र अक्सर सोनिया और राहुल करते रहे हैं।
3. गांधी परिवार ही पार्टी को एकजुट रख सकता है
इतिहासकार रामचंद्र गुहा एक आर्टिकल में लिखते हैं- ‘कांग्रेस में गांधी परिवार ही है, जिसकी अपील देशभर में सुनी जाती है। गांधी परिवार नहीं रहेगा, तो कांग्रेस बिखर जाएगी।
नेता अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और झगड़ों के लिए पार्टी तोड़ देंगे। कांग्रेस के नेताओं को अभी भी यकीन है कि जैसे नेहरू और इंदिरा ने कमबैक किया था, वैसे ही राहुल गांधी कमबैक करेंगे और पार्टी चुनाव जीतेगी।’
4. गांधी परिवार कांग्रेस में अभेद्य है
कांग्रेस पार्टी का हर फैसला 10 जनपथ से ही होता है। शायद गांधी परिवार या उनके करीबियों का ही पार्टी के फंड पर कंट्रोल है। इसीलिए लगातार हार के बाद भी कांग्रेस में गांधी परिवार अभेद्य बना हुआ है। कांग्रेस कई बार टूटी है, लेकिन असली कांग्रेस हमेशा गांधी परिवार के पास ही रही है
2024 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें नहीं बढ़ीं, तो गांधी परिवार पर सवाल उठने लगेंगे
2024 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस इंडिया एलायंस के साथ चुनाव लड़ रही है। इस चुनाव से पहले राहुल गांधी ने देश में दो बार भारत यात्रा निकाली है। चुनाव में पार्टी का चेहरा भी राहुल गांधी ही हैं। हर बड़े फैसलों में उनकी भूमिका अहम होती है।
कांग्रेस के सोशल मीडिया का चेहरा भी राहुल गांधी ही हैं। कांग्रेस की वेबसाइट पर भी राहुल गांधी ही चेहरा हैं। इतना ही नहीं, विपक्ष के निशाने पर भी राहुल गांधी ही है।
ये चुनाव गांधी परिवार के लिए करो या मरो का चुनाव है। अगर इस बार कांग्रेस की सीटें नहीं बढ़ती हैं, तो एक बार फिर से गांधी परिवार पर सवाल उठने लगेंगे।