अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बां थी प्यारे
उफ़ सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से।
उस दिन यूपी वाले ‘योगी’ की ताजा बातें सुनने के बाद सदा अम्बालवी का यह शेर याद आ गया। यह सब सोच ही रहा था कि किसी ने हमारे अपने शहर लखनऊ और हिन्दी-उर्दू अदब की शान रहे पंडित आनंद नारायण मुल्ला की याद दिला दी, जिन्होंने कभी कहा था-
‘मुल्ला’ बना दिया है इसे भी महाज़-ए-जंग
इक सुल्ह का पयाम थी उर्दू ज़बां कभी।
और फिर मंसूर उस्मानी भी याद आए कि-
जहां-जहां कोई उर्दू ज़बान बोलता है
वहीं-वहीं मिरा हिन्दोस्तान बोलता है।
अब असल मुद्दे की बात जिसने यह सब बरबस याद दिलाया। उस दिन इस मुल्क के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जब विधानसभा में कहा कि उर्दू ‘कठमुल्लों’ की भाषा है, तब से ध्यान बार-बार उन नामों पर जाकर अटक जा रहा है, जिन्होंने उर्दू में ऐसे-ऐसे काम किए जो आज भी हमारे साथ ठीक उसी तरह पैबस्त हैं, जैसे आत्मा और शरीर।
दरअसल, योगी का यह बयान उनकी अल्प जानकारी या मासूमियत भरी नासमझी से निकला बयान नहीं, बल्कि उनकी पार्टी की राजनीति से भी कई पुश्त गहरे धंसी उनकी अपनी जड़ों से निकली दिल की आवाज है जिसमें हिन्दुत्व का ज्वार है और मुसलमानों के प्रति नफ़रत से लबरेज़ इस्लाम का अंध विरोध। यह अलग बात है कि उर्दू की ओर उठी इस ‘योगी’ की यह बंदूक नाथ संप्रदाय से निकली अपनी वह विरासत भूल जाती है जिसका गोरखनाथ संदेश देते हैं और जिसके मूल में सूफ़ियत है। खैर, इसकी व्याख्या फिर कभी।
योगी ने उस दिन उत्तर प्रदेश विधानसभा में बजट सत्र के दौरान समाजवादी पार्टी को निशाना बनाते हुए कहा- “… इनका चरित्र दोहरा हो चुका है। ये अपने बच्चों को पढ़ाएंगे इंगलिश स्कूल में और दूसरों के बच्चों के लिए कहेंगे उर्दू पढ़ाओ… उसको मौलवी बनाना चाहते हैं, ‘कठमुल्लापन’ की ओर देश को ले जाना चाहते हैं।”
यह सब सदन में नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडेय के उस बयान पर उनके भड़कने का प्रतिफल था जिसमें उन्होंने सदन की भाषा अंग्रेजी के बदले उर्दू करने की बात कही थी क्योंकि ‘उर्दू हमारी दूसरी भाषा’ है। योगी उर्दू को ‘कठमुल्लों’ से जोड़ गए जो हंगामे का कारण बना।
माता प्रसाद पांडेय की आपत्ति थी कि- “मुख्यमंत्री ने कहा कि उर्दू कठमुल्ले पैदा करती है। मैं इसका विरोध करता हूं और पूछना चाहता हूं कि क्या उर्दू के प्रख्यात शायर फ़िराक़ गोरखपुरी भी कठमुल्ला थे या उर्दू का ज्ञान रखने वाले प्रख्यात उपन्यासकार प्रेमचंद भी कठमुल्ला थे? या विश्वविद्यालय में जो उर्दू विभाग खोला गया है, वहां पढ़ने वाले भी कठमुल्ले हैं क्या?” वैसे उन्हें लगे हाथों नजीर अकबराबादी और नजीर बनारसी पर भी पूछ ही लेना चाहिए था कि योगी जी उन्हें क्या मानते हैं, और इकबाल के बारे में भी।
लेकिन यह उतना ही है जितना सामने दिख रहा है। जानते तो योगी आदित्यनाथ भी हैं कि जो ज़ुबान वह दिन रात बोलते हैं उसमें उर्दू-हिन्दी किस तरह पैबस्त हैं कि उनका हर दूसरा, तीसरा या चौथा शब्द उर्दू का होता है, और अगर ऐसा न होता, तो सदन में इस मुद्दे दिए गए उनके चार मिनट 28 सेकंड के वक्तव्य में तबके, पायदान, अगर, बात, सरकार, और दुनिया जैसे उर्दू के शब्द न आते।
यह सब चल रहा था, तो हमें भी कुछ बीती बातें, कुछ अपनी विरासत याद आने लगीं। याद आए होली-दीवाली पर लिखे तमाम गीत और कृष्ण-कन्हैया को समर्पित आरती, कि यह सब किसने लिखे और यह भी कि इस देश में उर्दू के तमाम रिसाले (अखबार) कौन निकाल रहा था। उलझन-सी होने लगी कि हमारे बाप-दादाओं ने तो कभी न सोचा और न हमें बताया कि आख़िर ये लोग हैं कौन- मुसलमान हैं या हिन्दू, या कि किसी और दुनिया से आए किसी और अनजानी-अचीन्ही जमात के लोग हैं! थोड़ा जोर डाला तो याद आया कि होली-दीवाली और कृष्ण-कन्हैया पर गीत लिखने वाले तो मुसलमान थे और उर्दू के महान अख़बार निकालने वाले हिन्दू थे।
यह भी याद आया कि भारत का पहला उर्दू अखबार ‘जहांनुमा’ था और जिसे हरिहर दत्त ने 1822 में कलकत्ते से निकाला था। लखनऊ में भी नवल किशोर प्रेस से एक उर्दू अख़बार ‘अवध अखबार’ निकला था जिसे निकालने वाले मुंशी नवल किशोर थे और यह काम 1858 में हुआ था। वही नवल किशोर प्रेस बाद में ‘लीला सिनेमा’ बना और अब एक बाजार के रूप में मौजूद तो है लेकिन विरासत की कोई याद अपने साथ नहीं समेटे है। एक ‘मिरात-उल-अख़बार’ भी था जिसे राजा राममोहन राय ने 1822 में निकाला था- यह फारसी में था।
अभी होली क़रीब है, सो होली पर कुछ गीत याद आने लगे। दीवाली भी याद आई। लेकिन मुश्किल यह है कि होली या दीवाली की जब भी याद आती है, हमें सबसे पहले नजीर अकबराबादी याद आते हैं। फिर वह सवाल कौंधता है कि आख़िर थे कौन यह नजीर साहब जो दिवाली-होली पर भी गीत लिख डालते थे और कृष्ण-कन्हैया की बांसुरी की धुनें और लीलाएं उन्हें इतना कैसे भाती थीं कि उनपर कितने ही गीत लिख डाले। गीत भी ऐसे जिन्हें हम आज तक मौके-बेमौके लंबे समय से गुनगुनाते आ रहे हैं। जो होली पर “जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की” या दीवाली पर लिखे गए- “हमें अदाएं दिवाली की ज़ोर भाती हैं / कि लाखों झमकें हरएक घर में जगमगाती हैं”, जिन्हें हम पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाते, याद दिलाते रहे हैं। लेकिन मन ने जब जोर मारकर पूछा तो अचानक ख्याल आया कि अरे ये नजीर अकबराबादी तो मुसलमान थे!
फिर अचानक ‘गुले नगमा’ जैसा अद्भुत काव्यग्रंथ याद आया, और याद आई उस नाम की जिसने इसे रचा था, और कि उस शख्स का नाम फिराक़ गोरखपुरी था। यानी वह सिर्फ ‘फ़िराक़’ ही नहीं था, उसका रिश्ता ‘गोरखपुर’ से भी था जहां से निकले एक योगी ने उस दिन अचानक ‘उर्दू को कठमुल्लों की भाषा’ बताया। उसके नाम में फ़िराक़ भी था और गोरख भी।
ख़्याल आया कि उर्दू का इतना महान काव्य ग्रंथ रचने वाला यह शख्स तो गुरु गोरखनाथ की धरती से आने वाला कोई ‘रघुपति सहाय’ था जो पता नहीं कब फिराक़ बन गया। यानी ये शख्स तो हिन्दू था, नाम और अपने काम से भले ‘मुल्ला’ लगता हो (बतर्ज गोरक्ष पीठाधीश्वर-सह-मुख्यमंत्री)। लेकिन फिर मन ने एक सवाल पूछा कि अगर यह शख्स हिन्दू था तो फिर उर्दू का इतना बड़ा विद्वान कैसे हो सकता है कि ‘गुले नगमा’ रच डाले। इतना ही नहीं, ‘हिन्दी’ में जन्म लेने वाला यह शख्स उर्दू में लिखकर ‘साहित्य अकादमी’ जैसा सम्मान भी ‘हथिया’ ले, और कोई हिन्दू या मुस्लिम ‘माई का लाल’ ‘चूं’ तक न करे। खैर, इन सवालों के जवाब नहीं मिलने थे, सो नहीं मिले!
यह सब हमें आज भी याद आ रहा है और चंद साल पहले तब भी याद आया था, जब बनारस की धरती से संस्कृत के एक आचार्य को सिर्फ इसलिए ‘निकाला’ दे दिया गया था क्योंकि वह मुसलमान था और मान लिया गया था कि उसे संस्कृत जैसी ‘पवित्र’ भाषा पढ़ाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि उसका नाम ‘फ़ीरोज़ खान’ था, भले ही सारी अर्हताएं पूरी करने, सारी जरूरी पढ़ाई पूरी करने के बाद उसके नाम से पहले ‘आचार्य’ जुड़ा था। ‘आचार्य फ़ीरोज़ खान’ आज कहां हैं, हम नहीं जानते। अब तो जमाने को शायद जानने की जरूरत भी नहीं रही।
यह सब हर उस बार याद आता है जब मुग़लसराय, इलाहाबाद या फ़ैजाबाद का नाम बदला जाता है या बदलने की बात होती है। ‘आचार्य फीरोज खान’, ‘संस्कृत’ और ‘बीएचयू’ के उस मामले की याद इसलिए भी स्वाभाविक है कि अभी जिस तरह उर्दू को कठमुल्लों की भाषा बताया गया, सोच तब भी तो वही थी। तब भी तो संस्कृत को मुसलमानों के लिए अछूत या अस्पृश्य माना गया था और उसे संस्कृत पढ़ाने के उसके अधिकार से वंचित कर दिया गया था। हम भूल गए थे कि जिस तरह हिन्दी बोल/पढ़कर कर कोई हिन्दू नहीं बन जाता, उसी तरह उर्दू बोल/सीखकर कोई मुसलमान या मौलवी भी नहीं बन सकता, या किसी मुसलमान के संस्कृत पढ़ने/बोलने से हिन्दुत्व भी ख़तरे में नहीं पड़ जाता।
लेकिन न तब और न अब, किसी को इस देश के जाने-माने हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर मंजूर हसन का ख़्याल आया और न ही अपने राष्ट्रपति रहे डॉक्टर अब्दुल कलाम का जिन्हें संस्कृत के जाने कितने श्लोक न सिर्फ अच्छी तरह याद थे, बल्कि डॉ. मंजूर हसन तो आज भी, कभी भी एक सांस में भगवान शिव की स्तुति में शिव के गुणों का बखान करने वाले श्लोक ‘नमामि शमीशान निर्वाण रूपं’ का अद्भुत पाठ करते हैं, घर पर ही नहीं किसी भी सार्वजनिक स्थल या आयोजन पर भी, और उन्हें अब तक तो मुसलमान होने के लिए नहीं टोका गया (कि उन्हें इसे पढ़ने/दोहराने का कोई हक़ नहीं है), आगे का पता नहीं।
हमें जावेद अख़्तर और गुलज़ार भी याद नहीं आते जो हिन्दू निर्देशक और संगीतकार द्वय की सोच का दायरा ठहर जाने के बाद सबको हतप्रभ करने वाली, और कृष्णा की तारीफ़ में मंदिरों में बजने वाले सबसे लोकप्रिय आरती बन जाती है और संपूर्ण सिंह कालरा से गुलज़ार बने मशहूर शायर और गीतकार हिन्दी और उर्दू को अलग मानने को तैयार ही नहीं होते। लेकिन अपने वर्तमान का हाल देखकर कई बार लगने लगता है कि शायद यह अपने अतीत में झांकने, ‘इतिहास’ को ठीक से खंगालने का वक़्त है। क्या वक्त आ गया है कि ऐसी असंख्य गलतियां सुधारी जाएं और इतिहास को फिर से लिखा जाए? लेकिन हमें तो अब बनारस के मीना साह की गली वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खान दिखाई दे रहे हैं जो कमर में लाल अंगोछा लपेटे बेनियाबाग, दालमंडी होते हुए, किसी से ‘राम-राम’, किसी से ‘जय रामजी की’ करते, बोलते-बतियाते पंचगंगा घाट पर पहुंचे हैं और गंगा की धारा में डुबकी लगाकर सूर्य को प्रणाम भी किया है। लौटते हुए वह बालाजी मंदिर गए हैं और वहां बैठकर बड़ी देर से अपनी शहनाई पर रियाज कर रहे हैं। उनके आसपास जो जमावड़ा है…
उनमें वे लोग ही ज्यादा हैं जो आस्था में डूब नित्य की तरह गंगा स्नान करने आए हैं और सूर्य को अर्घ्य देने के बाद आदतन बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की धुनों में खो गए हैं। तो क्या अब हमें बांसुरी और शहनाई की धुनें सुनने से पहले धुन छेड़ने वाले का मजहब भी देख लेना होगा? यह बड़ा सवाल भारतेन्दु, प्रसाद, प्रेमचंद, नजीर बनारसी और उस्ताद बिस्मिल्ला खान की धरती से भी निकला है और लंबी सांस्कृतिक विरासत वाले लखनऊ, इलाहाबाद, अलीगढ़ और फ़ैज़ाबाद से भी। इसने यह सवाल भी हमारे सामने छोड़ा है कि क्या हम अपने इन प्रतीकों को भूल गए हैं, और यह भी कि क्या हमने इनसे सबक लेना, सीखना छोड़ दिया है।
आचार्य फ़ीरोज़ खान की उस घटना के बहाने याद दिला दें कि यह उसी बनारस की ‘नई हवा’ थी जहां के विश्वप्रसिद्ध संकट मोचन मंदिर के सालाना संगीत उत्सव में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अगर शहनाई बजाते रहे तो उस्ताद अमजद अली खां का सरोद भी गूंजा है, जाकिर हुसैन का तबला भी और निजामी बंधुओं की कव्वाली भी। यह सब बताते हुए अपने आप से, सनातन के नाम पर गढ़े जाते उस नए समाज से भी एक सवाल कि कहीं हम अपनी उस संस्कृति को तो बिसराने नहीं बैठ गए जिसकी अब तक हम ही नहीं दुनियावाले मिसाल देते रहे हैं? जिस संस्कृति की मिसाल देते हुए हम याद करते हैं कि बाबा अलाउद्दीन खान मैहर देवी के उपासक थे और उनकी बेटी का नाम अन्नपूर्णा था।