नई दिल्ली। इसमें संदेह नहीं कि ‘फाइव आईज’ दुनिया की सबसे कारगर और परस्पर तालमेल के मामले में बेहतरीन खुफिया नेटवर्क है। यह खुफिया जानकारी एकत्र करने और साझा करने वाला गठबंधन है जिसमें अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड हैं। यह अंग्रेजी बोलने वाले पांच देशों की ऐसी व्यवस्था है जिनके बीच शीर्ष स्तर का सहयोग है, उनमें मजबूत आपसी विश्वास है और वे एक साथ मिलकर कार्रवाई करते हैं। इसके सदस्यों में से एक की चिंता आम तौर पर सभी पांचों की चिंता बन जाती है और वे एकजुट होकर प्रतिक्रिया करते हैं।
18 सितंबर को संसद में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के इस असाधारण दावे को इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है कि ‘पिछले कई हफ्तों से कनाडा की सुरक्षा एजेंसियां भारत सरकार के कथित एजेंटों और कनाडा नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में संभावित गहरे रिश्तों के विश्वसनीय आरोपों की पड़ताल कर रही हैं।’ इस संदर्भ में फाइव आईज का संयुक्त रुख क्या रहेगा, यह अहम हो जाता है।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के व्हाइट हाउस ने कहा कि अमेरिका इस मामले में ‘अत्यधिक चिंतित’ है। ब्रिटेन के विदेश सचिव जेम्स क्लेवरली ने कनाडा की विदेश सचिव मेलॉनी जॉली से बात की और कहा कि उनका देश ‘कनाडा द्वारा उठाई गई गंभीर चिंताओं पर बेहद सावधानी से गौर कर रहा है।’
ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि उनकी सरकार ट्रूडो के आरोपों से ‘बेहद चिंतित’ है और इस मामले में उसने ‘भारत में शीर्ष स्तर पर ऑस्ट्रेलिया की चिंताओं के बारे में बता दिया है।’ ब्रिटिश सम्राट किंग चार्ल्स-तृतीय कनाडा के राष्ट्र प्रमुख भी हैं, वैसे ही जैसे वह ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के राष्ट्र प्रमुख हैं। दूसरे शब्दों में, वे इन चारों देशों को जोड़ने वाले एक तरह से गर्भनाल हैं।
अगर कनाडा ने निज्जर के मामले में जो भी सबूत हैं, उन्हें फाइव आईज के बाकी सदस्य देशों के साथ अब तक साझा नहीं किया है, तो वह नि:संदेह ऐसा करेगा और अगर ये सबूत पुख्ता पाए जाते हैं तो वाशिंगटन, लंदन, कैनबरा और वेलिंगटन को कानून के शासन का समर्थन करने या भारतीय बाजार के लार टपकाने वाले आकार के सामने झुकने के बीच निर्णय लेना होगा। अतीत में रूस, ईरान और सऊदी अरब की ऐसी ही हत्याओं के लिए निंदा की जा चुकी है।
दूसरी ओर, कनाडा ऐसा देश है जिसे काम करने वालों की जरूरत रही है और इसीलिए वह दशकों से भारत से आने वाले लोगों के प्रति उदार रहा है। 1968 के बाद से दोनों देशों के संबंधों में उतार-चढ़ाव आए हैं। 2022 में सार्वजनिक किए गए अमेरिकी विदेश विभाग के टेलीग्राम से संकेत मिलता है कि जून, 1968 में ट्रॉम्बे में कनाडा-भारत रिएक्टर का दौरा करने वाले कनाडाई निरीक्षक डेटा को देखकर बेचैन हो उठे थो क्योंकि वे संकेत कर रहे थे कि भारत परमाणु हथियार विकसित करने की ओर बढ़ रहा है। जब भारत ने 1974 में सफलतापूर्वक परमाणु परीक्षण किया तो कनाडा ने इसे विश्वास के गंभीर उल्लंघन के रूप में देखा।
दोनों देशों के रिश्तों में खटास लाने वाला अगला घटनाक्रम था 23 जून, 1985 को टोरंटो से लंदन जा रहे एयर इंडिया के बोइंग 747 विमान ‘कनिष्क’ में आयरिश तट के पास हवा में विस्फोट होना, जिससे 329 यात्रियों और चालक दल के सदस्यों की मौत हो गई थी। बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि तब से भारत और कनाडा के संबंधों को तय करने में इस घटना की केंद्रीय भूमिका रही है। कनिष्क में विस्फोट के पीछ खालिस्तानी आतंकवादियों का हाथ था और अपराधियों के बारे में ठोस जानकारी देने के बावजूद कनाडा कनिष्क के दोषियों को सजा देने में असफल रहा। कनाडा ने बड़े ही निराशाजनक अंदाज में इससे जुड़े पुख्ता सबूत जुटाने में असमर्थता जता दी।
कनाडा में रह रहे भारतीयों में सिखों का वर्चस्व रहा है। कनाडाई अधिकारियों ने राजनीतिक शरण चाहने वाले लोगों को भी शरण दी हुई है। उनमें से कुछ तत्वों ने गुरुद्वारा-वित्तपोषित अलगाववादी पंथ या भारतीय पंजाब से अलग ‘खालिस्तान’ बनाने के आंदोलन को फैलाया है।
इस आंदोलन ने कनाडा की मुख्यधारा की राजनीति में प्रवेश कर लिया है और भारत विरोधी राय रखने वाले सिख मंत्रियों और सांसदों को संघीय और प्रांतीय स्तरों पर प्रमुखता मिली हुई है। इसने तेजी से एक दबाव समूह के रूप में काम किया है क्योंकि इसे लगभग 7.7 लाख आबादी वाले सिख समुदाय का समर्थन प्राप्त है और इसलिए यह 3.8 करोड़ आबादी वाले देश में एक अहम वोट बैंक हैं।
खालिस्तान का मुद्दा हमेशा से भारतीय सरकारों के लिए एक परेशानी वाला विषय रहा है। इसी वजह से आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या तक हुई। खालिस्तानियों को पाकिस्तान सक्रिय रूप से मदद देता रहा है और इस समस्या को इतना बड़ा बनाने में उसकी बड़ी भूमिका रही है। कनाडा, अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और ऑस्ट्रेलिया में भारत विरोधी सिख और पाकिस्तानी कश्मीरी भारतीय राजनयिक मिशनों के बाहर प्रदर्शन करते रहे हैं और ये प्रदर्शन पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के इशारे पर होते रहे हैं।
इस तरह की रैलियों या प्रदर्शनों को लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनुमति मिल जाती है; लेकिन कभी-कभी, और जैसा कि हाल के समय में देखने को मिला है, ये प्रदर्शनकारी भारतीय मिशन के काफी करीब आ गए और ऐसी स्थितियों में मेजबान सरकारों के प्रति भारत का विरोध पूरी तरह से वाजिब है; यह भी काबिले गौर है कि ये देश अक्सर राजनयिकों के दफ्तर और आवासीय परिसरों की सुरक्षा के मामले में अंतरराष्ट्रीय समझौतों का पालन करने में लापरवाही बरतते हैं।
संसद में ट्रूडो के बयान के बाद कनाडा की विदेश मंत्री जॉली ने जानकारी दी कि एक भारतीय राजनयिक को कनाडा से निष्कासित कर दिया गया है। उनकी पहचान पवन कुमार राय के रूप में की गई है जिनके बारे में कहा जाता है कि वह भारत की विदेशी जासूसी एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के ओटावा में स्टेशन प्रमुख थे।
पूर्व रॉ प्रमुख अमरजीत सिंह दुलत ने ‘दि वायर’ के करण थापर के साथ बातचीत में कहा: ‘यह मुझे बड़ा अजीब लग रहा है… मैं केवल इतना कह सकता हूं कि कनाडाई लोगों ने इसे गलत समझ लिया… जैसा कि आप जानते हैं हमारा देश एक उदार लोकतांत्रिक देश है और यही लोकाचार (खुफिया) एजेंसियों में भी है… हम (भारतीय खुफिया एजेंसियां) ये काम (हत्या) नहीं करते।’
नरेंद्र मोदी ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में भारत के खुफिया ब्यूरो (आईबी) के पूर्व प्रमुख अजीत डोभाल को चुना जो दुलत के आईबी प्रमुख रहते उनके जूनियर थे। दुलत ने अपने संस्मरण ‘अ लाइफ इन द शैडोज’ में एक पूरा अध्याय डोभाल पर लिखा है। उन्होंने 2022 में करण थापर से बातचीत में कहा, ‘जब हम मिले ( 1987 के आसपास), वह पूरी तरह (एम के) नारायणन (तत्कालीन आईबी के बॉस) की भाषा बोल रहे थे… मैंने मन में सोचा कि अगर यह लड़का अपने गुरु की बातों में इस तरह आकंठ डूबा हुआ है तो इसका बहुत आगे जाना पक्का है…।’ व्यंग्य में कही गई वे बातें गलत नहीं हुईं!
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या उनके कार्यकाल में भारत का सुरक्षा सिद्धांत बदल गया है? क्या ‘हम ये काम नहीं करते’ वाला नुस्खा अब नहीं रहा? इजराइल की आत्मरक्षा की प्रकृति से मंत्रमुग्ध होने वाले मोदी के राज में क्या मोसाद रोल मॉडल बन गया है? अंग्रेजों के समय से ही भारत में कठोर तौर-तरीके कानून प्रवर्तन का अभिन्न अंग रहे हैं; और इस संबंध में ज्यादा बदलाव नहीं आया। सबूत स्थापित करने में लगातार विफलता के बीच कश्मीर, पंजाब और उत्तर-पूर्व में भारतीय सुरक्षा बलों की आतंकवाद विरोधी गतिविधियों में ज्यादतियां, न्यायेतर हत्याएं शामिल रही हैं।
2017 में कुलभूषण जाधव को पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया था और उस पर भारत के लिए जासूसी करने का आरोप लगा था। भारत ने उसे दिए जा रहे मृत्युदंड को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में सफलतापूर्वक अपील की लेकिन उनकी रिहाई सुनिश्चित करने में सफल नहीं हुआ। पूर्व भारतीय नौसेना अधिकारी अब भी पाकिस्तान की कैद में हैं।
2018 में दुबई के शासक की बेटी राजकुमारी लतीफा को भारतीय तटरक्षकों या नौसेना बलों द्वारा पकड़ लिया गया था और उन्हें उनकी इच्छाओं के खिलाफ उनके पिता को सौंप दिया गया था। मनमानी हिरासत के मामले में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के कार्य समूह ने कहा: ‘हिरासत में ली गई (लतीफा) को भारतीय बलों द्वारा प्रत्यर्पित कर दिया गया। सुरक्षा बलों ने मार्च, 2018 में गोवा के तट पर अंतरराष्ट्रीय समुद्री क्षेत्र में (लतीफा की) नौका को रोक लिया था। भारत के प्रधानमंत्री द्वारा संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री और दुबई के शासक शासक (शेख मोहम्मद) को व्यक्तिगत तौर पर फोन करने के बाद लतीफा को वापस भेजा गया था।’
अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में एक हालिया शिकायत से जुड़ी ‘अपराध रिपोर्ट’ में भारतीय ‘सशस्त्र बलों’ को ‘अंतरराष्ट्रीय जल में अमेरिकी ध्वज वाली नौका पर शत्रुतापूर्ण आक्रमण, सशस्त्र हमले और गंभीर शारीरिक नुकसान पहुंचाने, हत्या की साजिश रचने, जान की धमकी देने, अपहरण और गैरकानूनी हिरासत, मानवाधिकारों के उल्लंघन और यातना तथा संपत्ति को गैरकानूनी नुकसान पहुंचाने’ में शामिल बताया गया है।
इस साल मई में भारतीय मूल के एंटीगुआ के व्यवसायी मेहुल चोकसी ने यह साबित करने के लिए अदालती लड़ाई में पहला दौर जीता कि ब्रिटेन स्थित भारतीय खुफिया एजेंटों ने 2021 में उन्हें एंटीगुआ से अपहरण कर लिया और डोमिनिका में एक नाव पर जबरन ले जाते समय उन्हें प्रताड़ित किया गया। एंटीगुआ और बारबुडा के हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि चोकसी का मामला ‘बहस योग्य’ है। अपने निवेदन में चोकसी ने दावा किया कि रॉ ने यह साजिश रची थी।
मोदी राज में मोसाद की तर्ज पर अंतरराष्ट्रीय ‘गैंगस्टर-वाद’ ने अब तक शालीन रही रॉ के सिद्धांतों में जगह बनाई हो या नहीं, यह तो सच है कि अब तक किसी भी देश ने कभी भी भारत पर विदेशी धरती पर हत्या करने का आरोप नहीं लगाया। क्या यह ट्रूडो की चुनावी मजबूरियां थीं या मोदी का उन जैसे जी-7 नेता के साथ लगातार ठंडा व्यवहार- या दोनों जिसकी परिणति कनाडाई प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक रूप से कनाडा की धरती पर हत्या में भारत का नाम लेने और उसे शर्मिंदा करने के रूप में हुई?
साफ है कि फिलहाल तो कनाडा ने भारत से रिश्तों की परवाह छोड़ दी है। विदेश मंत्री जॉली इस महीने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक सत्र में इस मामले को उठाकर भारत को कठघरे में डालने की योजना बना रही हैं। निश्चित ही, इससे खालिस्तानियों को खुशी हो रही होगी कि उनका मुद्दा अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठ जाएगा, भले भारत कनाडा के दबाव का सख्ती से मुकाबला क्यों न करे।
कनाडा ऐसा देश है जिसकी नाटो के साथ-साथ विकासशील देशों में भी काफी हद तक अच्छी छवि है। मोदी जिस ‘ग्लोबल साउथ’ का प्रतिनिधित्व करना चाहते हैं, उसकी सहानुभूति ज्यादा से ज्यादा विभाजित ही होगी। यह और भी बुरा होगा अगर पश्चिम जो हाल ही में जी-20 शिखर सम्मेलन में भारत के साथ खड़ा था, नई दिल्ली को छोड़ने का विकल्प चुनता है। हालांकि ऐसा तभी होगा जब कनाडाई अधिकारी एक स्वतंत्र अदालत में अपने आरोपों को इतने अकाट्य सबूतों के साथ रखें कि अदालत में दोष सिद्ध हो सके।