नई दिल्ली। भारत में एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग यानी न्यायेतर हत्याएं सामान्य बात हैं और इन्हें मुठभेड़ कहा जाता है। ये वे हत्याएं हैं जिसमें किसी अभियुक्त को सरकार द्वारा मार दिया जाता है, और अकसर ऐसा (लेकिन हमेशा नहीं) तब होता है जब अभियुक्त हिरासत में होता है। ऐसी हत्याएं तब तब भी होती है जब अभियुक्तों ने विशेष दलील के साथ सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया होता है कि उनकी जान खतरे में हैं।
ऐसी हत्याएं उस समय भी होती हैं जब किसी आरोपी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय उसका वीडियो बनाया जा रहा होता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि ऐसी आशंका होती है कि उनकी हत्या हो सकती है। एक तरह से यह सिद्धांत लागू कर दिया गया है कि न्याय प्रणाली टूट चुकी है और आरोपी को सजा देने के लिए इंतजार नहीं किया जा सकता। यह तर्क भी दिए जा रहे हैं कि दुनिया में अच्छे और बुरे दोनों किस्म के लोग हैं और बुरे लोगों को दंडित करने से पहले दोषी ठहराए जाने की आवश्यकता नहीं है और यह सजा उन्हें गोली मारने के माध्यम से कानूनी व्यवस्था के बाहर से दी जा सकती है।
27 अगस्त, 2013 को लोकसभा सांसद गुरदास दासगुप्त ने केंद्रीय गृह मंत्रालय से सवाल पूछा था। इसमें पूछा गया था कि क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त जस्टिस एन संतोष हेगड़े की अध्यक्षता वाले आयोग के इन निष्कर्षों से अवगत है कि मणिपुर में छह अलग-अलग मामलों में सात हत्याएं फर्जी मुठभेड़ों का नतीजा थीं? और क्या राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मणिपुर में सभी मुठभेड़ों की जांच की मांग की है?
सरकार का जवाब था कि उसे जस्टिस हेगड़े आयोग के निष्कर्षों की जानकारी है, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस बाबत किसी जांच की मांग नहीं की है और इसीलिए सरकार ने इस विषय में कुछ नहीं किया है।
इस आलोक में यह जानना रोचक होगा कि आखिर यह आयोग क्या है और इसने क्या-क्या किया है। 24 नवंबर 2012 को सुप्रीम कोर्ट ने तीन लोगों का एक आयोग गठित किया, जिसमें पूर्व जस्टिस हेगड़े, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह और कर्नाटक के पूर्व डीजीपी अजय कुमार सिंह शामिल को शामिल किया गया। इनके जिम्मे मणिपुर में 1979 से 2012 के बीच हुए एनकाउंटर के दौरान 1528 लोगों की हत्या के मामले की जांच करना था।
ये सभी हत्याएं मणिपुर पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा की गई थीं। यह मामला एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल एक्ज़ीक्यूशन विक्टिम फ़ैमिलीज़ एसोसिएशन (ईईवीएफएएम) द्वारा याचिका दायर करने के बाद सामने आया।
आयोग ने 1528 हत्याओं में से पहली छह हत्याओं की जांच की और 2013 तक पाया कि सभी मुठभेड़ फर्जी थीं। हत्याएं इस तथ्य की आड़ में की गई थीं कि जिन लोगों ने हत्या की थी, उन्हें सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA) का संरक्षण मिला हुआ था। वैसे पूर्वोत्तर और कश्मीर अकेले ऐसे इलाके नहीं हैं जहां मुठभेड़ें होती हैं, और ऐसे एनकाउंटर करने के लिए सरकार को हमेशा AFSPA के संरक्षण की जरूरत नहीं है।
मणिपुर एक बार फिर वैश्विक स्तर पर चर्चा में है, लेकिन कारण कुछ और हैं। अन्य एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल किलिंग की ही यहां हो रही घटनाओं को लेकर भी हम लोग ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी यहां के मामले पर तब ही कुछ बोले जब एक बेहद भयावह घटना सामने आई।
तो जब सरकार ने लोकसभा में स्वीकार कर लिया कि इस प्रकार की हत्याएं एक हकीकत हैं, तो फिर आखिर भारत में सरकार ने इस दिशा में किया क्या? दुर्भाग्य से, ज़्यादा कुछ नहीं, और मुठभेड़ें अभी भी जारी हैं। सुप्रीम कोर्ट में अपील के बाद भी किसी को हिरासत में मार दिए जाने के ऊपर दिए गए उदाहरण, और किसी को कहीं ले जाते समय मार दिए जाने और टीवी पर लाइव कवर किए जाने के उदाहरण हाल ही के हैं।
ऐसा लगता है कि इन सारी हत्याओं से जुड़ी कुछ खास किस्म की परिस्थितियां हैं, जिनमें ऐसा करना संभव होता है। समाज के स्तर पर ऐसी हत्याओं का ज्यादा विरोध नहीं होता। वैसे तो ये अटकलें हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ लोगों की एक किस्म की व्याख्या के कारण, ऐसे तरीकों के उपयोग को स्वीकृति मिली हुई है। और ऐसा, इस किस्म की घटनाओं के मीडिया कवरेज में साफ दिखता है, क्योंकि उनमें ऐसी हत्याओं के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराना मुख्य मुद्दा नहीं होता। सिविल सोसायटी के विरोध के अलावा इस सबको मिली सामाजिक स्वीकृति के कारण सरकार वही कर सकती है जो वह करती है।
हालाँकि सरकार ने इस मामले में कुछ दिलचस्पी दिखाई है, लेकिन न्यायपालिका ने भी सरकार को कभी भी इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया कि अतीत में उसने क्या किया है। इस सबका अर्थ यही है कि भारत में न्यायेतर हत्याओं को सामान्य ही माना जाना जारी है। और, जब तक दूसरे इससे प्रभावित नहीं होते, तब क किसी को कोई समस्या नहीं है।
हालाँकि, इस महीने यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय हो गया। भारत सरकार पर किसी और देश के इलाके में गैर-न्यायिक हत्या का आरोप लगा है। अब तक इसका कोई सबूत तो सामने नहीं आया है और हमें हमेशा की तरह सबूत सामने न होने तक निर्दोष होने का रुख ही अपनाना चाहिए। और हम उम्मीद करें कि ये आरोप झूठे ही हों।
लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि हमारे घर के अंदर की स्थिति क्या है। यह समस्या हमारे देश में बहुत विकराल है। अधिकारिक न्यायिक प्रणाली के समानांतर ही एक अनौपचारिक और क्रूर न्याय प्रणाली मौजूद है, और यह आधिकारिक प्रणाली द्वारा दोषी सिद्ध किए गए लोगों के मुकाबले कई गुना अधिक आरोपियों को सूली पर लटका देती है।
पिछले साल द हिंदू की फ्रंटलाइन पत्रिका की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2016 से 2022 के बीच 800 से अधिक लोगों की मौत या हत्या मुठभेड़ में हुई। इसी अवधि में दोषी ठहराए जाने के बाद फांसी पर लटकाए गए लोगों की संख्या सिर्फ पांच थी।
हमें अपने गिरेबान में झांकने के लिए बाहरी दबावों की मिसाल नहीं चाहिए, लेकिन ऐसा लगता है कि भारत में चीजें अक्सर इसी तरह चलती रहती हैं। मणिपुर में मारे गए लोगों की सूची तैयार की गई थी और न्यायेतर, संक्षिप्त या मनमानी फांसी पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक क्रिस्टोफ़ हेन्स को सौंपी गई थी, जो मार्च, 2012 में भारत के एक मिशन पर आए थे। क्या हमें कार्रवाई करने से पहले इसकी आवश्यकता होनी चाहिए थी?