नई दिल्ली। खुफिया एजेंसियों और उनके काम करने के तौर-तरीकों पर हाल में आई अपनी किताब के आखिर अध्याय में पूर्व रॉ प्रमुख ए एस दुलत ने लिखा है कि रॉ बहुत बेहतर है, आईएसआई से भी ज्यादा बेहतर। लेकिन उन्होंने इस बात को यहीं छोड़ दिया, और यह नहीं बताया कि आखिर वे इस नतीजे पर कैसे पहुंचे।
दरअसल किसी भी काम के अच्छा, बुरा या अलग होने के नतीजे पर पहुंचने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि आखिर उस काम को किस मंशा से किया जा रहा है। और जो कुछ हासिल करने के लिए कोई काम किया जा रहा है, वह हासिल हुआ या नहीं?
आईएसआई के लिए तो दो बातें साफ हैं। पहली तो यह कि वह अपने पड़ोसी को तंग करती रहे ताकि आर्थिक और सैन्य विषमताओं को बेअसर किया जा सके। और दूसरा है वह अपने पश्चिमी पड़ोसियों को कुछ प्रॉक्सी यानी बेनाम लोगों के जरिए नियंत्रण में रख सके। कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की बुनियादी जिम्मेदारी खुफिया एजेंसियों के हवाले की गई है।
अगर किसी को इस मामले में निष्पक्ष पर्यवेक्षक के तौर पर नतीजा निकालना संभव है तो ऐसा लगता है कि दोनों ही मकसद हासिल हो चुके हैं। और, इसे इतने व्यापक रूप से हासिल किया कि वे विरोधी के दिमाग तक पहुंचने और उसकी सोच को कुंद करने में कामयाब रहे। ए एस, दुलत की किताब से तो ऐसा ही पता लगता है और इसका जिक्र मैंने पिछले सप्ताह किया था।
रॉ और आईएसआई की तुलना करने के लिए हमें यहा मामूल होना जरूरी है कि आखिर रॉ जिस मकसद को हासिल करना चाहता है तो वह उसका क्या नतीजा निकला है? यह स्पष्ट नहीं है क्योंकि हमारे पास कोई राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत या राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति नहीं है। मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल की अगुवाई में पांच साल पहले एक रक्षा योजना समिति बनाई गई थी जिसके जिम्मे राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत और राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनाना था।, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है।
चूंकि हमने अभी तय नहीं किया है कि हमारे सुरक्षा सिद्धांत के संदर्भ में खतरा या चुनौती क्या है, हमने सिर्फ कयास और अनुमान के आधार पर मान लिया है कि शत्रु कौन है। अक्टूबर 2014 में संयुक्त कमांडर सम्मेलन को अपने पहले संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘खतरे ज्ञात हो सकते हैं, लेकिन दुश्मन (आतंकवाद) अदृश्य हो सकता है।’
प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बारे में बात होती है और इसे कुछ हद तक डोवाल डॉक्टरीन या डोवाल सिद्धांत कहा जाता है। हालांकि इसके बारे में लिखा नहीं गया है। इसके तहत पाकिस्तान को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और आंतकवाद को मुख्य समस्या माना गया है। इसका समाधान उनके मुताबिक यह है कि दुश्मन जो कुछ हमारे साथ कर रहा है, हम भी उसे उसी के तरीके से उसके साथ भी वही करके जवाब दें। लेकिन दीर्घावधि में इसका क्या अर्थ होगा या है, इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं है।
साफ तौर पर मानें तो आंतकवाद पर फोकस सिर्फ मौजूदा सरकार का ही मुद्दा नहीं है। 1990 के दशक में जाएं तो पता चलता है कि सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के केंद्र में कश्मीर था। सेना ने राष्ट्रीय राइफल्स नाम की यूनिट तैयार की थीं जिनका काम युद्ध के बजाए प्रतिघुसपैठ या चरमवाद पर ध्यान केंद्रित करना है। इसी तरह रक्षात्मक कार्रवाई के तौर पर नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा के कुछ हिस्सों पर बाड़ भी लगाई गई थी।
खुफिया एजेंसियों का पोकस आंतकवाद से निपटने पर होगा। रॉ प्रमुख के तौर पर ए एस दुलत ने उस जिम्मेदारी को छोड़ने से इनकार कर दिया था जो खुफिया ब्यूरो में रहते हुए कश्मीर में उनके पास थी। तो सवाल है कि वह एजेंसी जो बाहरी जासूसी (यानी दूसरे देशों में जासूसी) के लिए थी, वह आखिर उस एजेंसी के काम में क्यों दखल दे रही थी जिसका काम अंदरूनी जासूसी का है, ए एस दुलत ने इस बारे में नहीं लिखा है। लेकिन फिर ऐसा कुछ है भी नहीं। पूरे भारतीय सरकारी तंत्र के लिए कश्मीर और पाकिस्तान एक तरह का जुनूनी मुद्दा है।
इससे हुआ यह है कि पूर्वी मोर्चे पर होन वाली घटनाओं को अलग कर दिया गया। गलवान में झड़प होने तक, भारत की कुल 38 डिवीजन में से सिर्फ 12 ही चीन के मोर्चे पर थीं, जबकि बाकी सब पाकिस्ता के खिलाफ तैनात थीं। आज 16 डिवीजन चीन की तरफ हैं, और इनमें और भी इजाफा होने वाला है।
हमें एक सैन्य स्थिति की तरफ खींच लिया गया है जोकि पारंपरिक ही है। भारत को ऐसा अपनी इच्छा के विरुद्ध करना पड़ा है। वैसे इस पर मीडिया में कोई ऐसा हल्ला नहीं मचा कि आखिर हम गलत दिशा में क्यों अपना वक्त बरबाद कर रहे थे।
सहज और एक प्रकार के आदिम तरीके से भारत दशकों तक पाकिस्तान को लाल आंख दिखाता रहा है। विद्रोहियों या अलगाववादियों के साथ जुड़ने से इनकार करने के दौर का अर्थ है कि अब कश्मीर में हमारे पास एक सार्थक खुफिया तंत्र नहीं है। और निश्चित ही हमारे पास सिर्फ शक्ति का इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
यह निराश करने वाली बात है कि एक लोकतंत्र और एक आधुनिक सरकार को इस तरह की प्रतिक्रिया देना पड़ी, लेकिन इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। किसी चीज पर जुनूनी होना लेकिन उससे निपटने से इनकार करना भी एक अजीब किस्म का विरोधाभास है लेकिन अगर कोई भारतीय मानस से परिचित है क्योंकि यह सांप्रदायिक आधार पर विकसित हुआ है तो यह समझ में आता है।
खुफिया विभाग में अल्पसंख्यकों, खासतौर से मुसलमानों को भर्ती न करने से आंतकवाद से निपटने और जासूसी की हमारी क्षमताओं पर असर पड़ता है। यह जानना दिलचस्प होगा कि रॉ, खुफिया ब्यूरो में कितने लोग या व्यक्ति हैं जो उर्दू, पश्तो या फिर मैंडेरिन जानते हैं?
दुलत की किताब से सामने आता है कि खुफिया एजेंसिया और रॉ भी सेना के नक्शे कदम पर चलती हैं। किसी तय खतरे या सिद्धांत के न होने का अर्थ है कि पूरा तंत्र जैसे नींद में चल रहा हो। ऐसे ही राजनीतिक व्यवस्था और मीडिया भी जोरशोर से अलग मुद्दे पर दहाड़ती रहती है।
हमारे प्राथमिक खतरे – चीन – का मुकाबला करने के लिए अब खुफिया क्षमता का निर्माण करना आसान नहीं होगा। हमें सिद्धांत और रणनीति तय करने की आवश्यकता होगी और यह उस सरकार के लिए आसान नहीं होगा जो संदेह पर निश्चितता को तरजीह देती है।
देश को सबसे पहले इस विचार को दूर करने की आवश्यकता होगी कि समस्या आतंकवाद है और विरोधी पाकिस्तान है और यह विश्वास कि कश्मीर में वर्तमान नीति सार्थक या टिकाऊ है। इसमें से कुछ भी निश्चित रूप से होने वाला नहीं है।
इस कारण से हम कुछ करने के लिए मजबूर होने या मजबूर होने तक ऐसा ही करते रहेंगे। दुलत सरकारी तौर-तरीकों पर जो प्रकाश डालते हैं, वह और तरफ उजला है तो दूसरी तरफ निराशाजनक और डरावना भी है।