नई दिल्ली. ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ मिलकर कमलनाथ की सरकार गिराने वाले आठ समर्थकों की हालत तो ठीक वैसी ही हो गई है कि न खुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे. कमलनाथ की सरकार गिराने के लिए कांग्रेस के 22 विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया की शह पर राजधानी छोड़कर एक रिजार्ट में काफी समय तक पड़े रहे थे. उन्होंने वहीं से विधानसभा अध्यक्ष को अपना इस्तीफ़ा भी भेज दिया था.
इन इस्तीफों का फायदा शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनकर मिला तो ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा की सदस्यता मिल गई. 22 में से 14 को मंत्री पद मिल गया लेकिन 8 को कुछ भी नहीं मिला, उनकी विधायकी भी चली गई. उपचुनाव में उनकी जीत भी आसान नहीं होगी क्योंकि 2018 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे. दो साल बाद बीजेपी से उन्हीं मतदाताओं से वोट मांगने जाना है. कोई ज़रूरी तो नहीं है कि जीत हो ही जाए.
अपनी विधायकी गंवाकर भी कुछ हासिल न कर पाने वालों की बात करें तो अशोक नगर से विधायक बने जजपाल सिंह जज्जी, ग्वालियर से विधायक रहे मुन्ना लाल गोयल, भांडेर से विधायक बनने वाले रक्षा सरैनिया, हाट पिपल्या से चुनाव जीते मनोज चौधरी, अम्बाह से विधायक बने कमलेश जाटव, गोहद से जीते रणवीर जाटव, करेरा से विधायक रहे जसवंत जाटव और मुरैना से जीतने वाले रघुराज सिंह कंसाना ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के चक्कर में अपनी विधायकी भी गँवा दी और यहाँ मंत्री भी नहीं बन पाए.
अपनी विधायकी गंवाने वाले इन आठ में से सात विधायक तो ऐसे हैं जो पहली बार विधानसभा की सीढ़ियां चढ़े थे और पहली ही बार सरकार बनाने और गिराने के चक्कर में पड़ गए. इस चक्कर में विधायकी भी गँवा दी और मंत्री पद भी नहीं मिला. दोबारा जनता ने मौका नहीं दिया तो राजनीति खत्म होने की संभावना भी सर उठाये खड़ी है.
इन पूर्व विधायकों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह पिछले चुनाव में बीजेपी को हराकर विधायक बने थे और इस बार बीजेपी के टिकट पर वोट मांगने निकलेंगे. जिन बीजेपी के नेताओं को वह हराकर आये थे वह इस बार उपचुनाव में दिल से उनका साथ देंगे इस बात में संदेह भी उन्हें परेशान किये हुए है.