कानपुर एनकाउंटर करके ब्राह्मणों की नाराजगी मोल ले बैठी है भाजपा, कैसे करेगी भरपाई

उत्कर्ष सिन्हा

कानपुर के बहुचर्चित बकेरु कांड के बाद हुए घटनाक्रम ने सूबे के ब्राह्मणों की भृकुटी पर बल ला दिया है। सियासी गलियारों में ये चर्चा आम है कि फिलहाल इन ब्राह्मण वोटरों को नहीं सहेजा गया तो पार्टी को खासा नुकसान हो जाएगा। हवा का रुख देखते हुए बसपा और कांग्रेस ने भी ऐसे बयान देने शुरू कर दिए हैं जिससे वे इन नाराज वोटरों के शुभचिंतक दिखाई दें और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी खतरे की आशंका दिखाई देने लगी है।

बीते 3 दिनों के भीतर भाजपा नेतृत्व ने अपने 55 ब्राहमण विधायकों से बात की और उनसे सुझाव मांगे कि आखिर इस विरोध की आग को ठंडा कैसे किया जाए। खबर तो ये भी है कि इनमे से एक विधायक को दिल्ली भी बुलाया गया जहां ताज़ा हालात पर गहन चर्चा की गई।

यूपी में करीब 13 प्रतिशत वोटों की हिस्सेदारी रखने वाले इस समाज का असर मात्र 13 प्रतिशत तक ही नहीं सीमित है। माना जाता है कि चुनावी माहौल में ब्राहमण कम संख्या में होने के बावजूद बड़ी संख्या में अन्य वोटों को प्रभावित करने की ताकत रखता है।

यूपी की राजनीति में लंबे समय तक कांग्रेस के साथ रहने वाले इस समुदाय ने जब कांग्रेस का हाथ छोड़ा तब से कांग्रेस कमजोर होने लगी। हालांकि इसके बाद ब्राह्मण वोटर किसी एक पार्टी में नहीं टिका और चुनाव दर चुनाव उसने अपने रुख को इस तरह बनाए रखा जहां सत्ता उसके करीब रहे। मंदिर आंदोलन के समय भाजपा के साथ रहने के बाद जब उसने बसपा का रुख किया तो पहली बार मायावती को पूरा बहुमत मिला, और जब बसपा छोड़ी तो समाजवादी पार्टी सत्ता में आ गई। हालांकि इसके बाद ब्राह्मणों ने एक बार फिर भाजपा का रुख किया और 2017 के चुनावों में भाजपा को मिली सत्ता में उसकी बड़ी भूमिका रही।

योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी जब दो उप मुख्यमंत्रियों की बात आई तब भी पिछड़े वर्ग से केशव मौर्या के साथ ब्राहमण वर्ग से डॉ. दिनेश शर्मा को चुना गया। जाहिर था भाजपा ब्राह्मण और पिछड़ों की पॉलिटिकल इंजीनियरिंग को कमजोर नहीं पड़ने देना चाहती थी।

अब जबकि भाजपा के सामने नाराज ब्राह्मणों की चुनौती है तो वो अपने किस नेता को आगे करेगी ये भी देखने वाली बात होगी। भाजपा के पास इस मामले में विकल्प भी बहुत सीमित हैं क्योंकि मंत्रिमंडल में भले ही कुछ ब्राहमण चेहरे हों मगर उनमें से अधिकांश की स्वीकार्यता पूरे प्रदेश में नहीं बल्कि उनके अपने चुनाव क्षेत्र तक ही सीमित है।

ये बात सही है कि भाजपा के पास कई ब्राहमण नेता हैं जिन्होंने राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत बनाई है। डॉ. दिनेश शर्मा उप मुख्यमंत्री तो बन गए मगर उन्हें कभी भी मास लीडर नहीं माना गया, अपने दिल्ली के संपर्कों के जरिए श्रीकांत शर्मा भी मजबूत दिखाई दिए लेकिन बृजेश पाठक के रूप में भाजपा के पास एक ऐसा चेहरा जरूर था जिसने यूपी के ब्राह्मण समाज के भीतर अपनी मजबूत पहचान बनाई है।

बृजेश पाठक ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने मायावती के पक्ष में ब्राह्मणों को लामबंद करने के लिए कड़ी मेहनत की थी। जिस सफलता का सेहरा सतीश मिश्र के सर बांधा जाता है दरअसल उसके असली हकदार बृजेश पाठक ही थे क्योंकि सतीश मिश्रा की कोई राजनीतिक हैसियत या पहचान 2007 के पहले कभी नहीं रही। वे मायावती के वकील के तौर पर जरूर काम करते रहे थे।

बसपा के ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलनों के जरिए बृजेश पाठक ने मायावती के पक्ष में जो माहौल बनाया था उसका प्रतिफल मिला और बसपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई। लेकिन 2012 के चुनावों में हार के बाद बृजेश पाठक ने बसपा छोड़ दी और फिर भाजपा में शामिल हो गए।

कानपुर के बकेरु कांड के बाद उनकी विकास दूबे के साथ एक फ़ोटो भी वायरल हुई मगर वो फौरन ही निगाहों से ओझल भी हो गई।

ऐसे हालात में बृजेश पाठक और श्रीकांत शर्मा ही उसके पास एक ऐसे विकल्प दिखाई दे रहे हैं जिसके भरोसे वो आगे की रणनीति बना सकती है लेकिन इस दौड़ में बृजेश पाठक आगे इसलिए हैं क्योंकि उनका अपना नेटवर्क पूरे प्रदेश तक फैला हुआ है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here