नई दिल्ली । “गुड तालिबान बैड तालिबान, गुड टेररिज्म बैड टेररिज्म, यह अब चलने वाला नहीं है। हर किसी को तय करना पड़ेगा कि फैसला करो कि आप आतंकवाद के साथ हो या मानवता के साथ हो। निर्णय करो।”
18 अगस्त, 2015 को दुबई के क्रिकेट स्टेडियम में 50 हजार से ज्यादा भारतीयों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह बयान तालिबान को लेकर भारत की नीति रही है, लेकिन ठीक 6 साल बाद 20 अगस्त 2021 में यह नीति जमीनी सच से काफी अलग है।
2001 में तालिबान को खदेड़ने वाला अमेरिका आज खुद भाग चुका है। चीन तालिबान को कूटनीतिक मान्यता देने वाला पहला देश बन गया है। रूस, पाकिस्तान समेत कई देश तालिबान को नई अफगान सरकार मानने को तैयार बैठे हैं।
ऐसे हालात में भारत ने अब तक तालिबानी निजाम को लेकर कुछ नहीं कहा है। सरकार ने न काबुल में तालिबान के विरोध में कोई बयान दिया और न ही ऐसी कोई बात कही है जिससे जाहिर हो कि भारत भी रूस या चीन की तरह काबुल में तालिबान को कबूल कर लेगा।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने बुधवार को कहा, “तालिबान से बातचीत के बारे में बस इतना ही कहना चाहेंगे कि हम सभी स्टेकहोल्डर्स के संपर्क में हैं। इससे ज्यादा कुछ नहीं कहेंगे।”
वहीं विदेश मंत्री एस. जयशंकर तालिबान से बात पर एक सवाल के जवाब में बोले, “अभी हम काबुल में बदल रही परिस्थिति पर नजर रखे हुए हैं। तालिबान और उसके नुमाइंदे काबुल पहुंच गए हैं, हमें अब यहां से शुरू करना चाहिए।”
भारत के लिए तालिबान सरकार को कबूल करना आसान नहीं
1. घरेलू राजनीति में नुकसान का डर, तालिबान विरोधी रही है भाजपा
- उत्तर प्रदेश के संभल जिले से सपा सांसद डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क पर तालिबान की तारीफ करने के आरोप में देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया है। इस मामले में भाजपा के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय उपाध्यक्ष राजेस सिंघल की शिकायत पर यह केस दर्ज किया गया।
- UP विधानसभा में गुरुवार को CM योगी आदित्यनाथ ने कहा कि तालिबान राज में महिलाओं और बच्चों के साथ क्रूरता की जा रही है, जबकि कुछ लोग बेशर्मी से तालिबान का समर्थन कर रहे हैं। ये लोग तालिबानीकरण करना चाहते हैं। ऐसे चेहरे समाज के सामने एक्सपोज किए जाने चाहिए।
- सोशल मीडिया पर आम लोग तालिबान और उसके समर्थकों के खिलाफ पोस्ट, मीम और वीडियो शेयर कर रहे हैं। साफ है कि आम लोगों का मानस तालिबान विरोधी है। ऐसे में मोदी सरकार जन विरोधी नहीं दिखना चाहती है।
- काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद से भाजपा ने इस पर अब तक कोई औपचारिक बयान नहीं दिया है, लेकिन भाजपा के पूर्व महासचिव और RSS के मौजूदा कार्यकारिणी सदस्य राम माधव ने ट्वीट किया, “पाकिस्तान का बनाया तालिबान भारत की सुरक्षा के लिए चुनौती बन सकता है। ISI के ट्रेंड किए गए 30 हजार से ज्यादा लड़ाकों को तालिबान कहीं और भी भेज सकता है।” उनका इशारा कश्मीर की ओर था।
- इसी तरह मध्य प्रदेश भाजपा के प्रभारी मुरलीधर राव ने ट्वीट किया, “सच तो यह है कि युद्ध तो अभी शुरू हुआ है। यह भारत के लिए खतरे की घंटी है। अगर कोई मानता है कि युद्ध खत्म हो गया तो वह मूर्खता होगी। भारत को तैयार रहना होगा।”
- इन सभी बातों से साफ है कि भारत सरकार घरेलू मोर्चे पर तालिबान को लेकर नरम होती नजर नहीं आना चाहेगी। उधर, जमीनी हालात काफी अलग हैं। यही वजह है कि सरकार फिलहाल किसी तरह का स्टैंड लेती नहीं दिख रही है।
- इतिहास गवाह है कि अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा होने पर कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा मिला है। कराची में भारत के अंतिम काउंसिल जनरल रहे राजीव डोगरा ने अपनी किताब Where Borders Bleed में 2001 तक तालिबान के प्रमुख रहे मुल्ला रब्बानी और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI पर लिखा है, “ISI रब्बानी से बात कर रही थी। उसने रब्बानी से अपने लड़ाकों को कश्मीर भेजने की मांग रखी थी।” डोगरा के मुताबिक रब्बानी 2001 तक इसके लिए तैयार भी हो गया था।
- जब 1996 में पहली बार तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता कब्जाई थी तो अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का कहना था कि कश्मीरी आतंकी तालिबान की कामयाबी से उत्साहित होंगे, क्योंकि ज्यादातर इसे धार्मिक कामयाबी की नजर से देखेंगे।
- इस्लामाबाद में अमेरिकी दूतावास के एक खुफिया केबल (पत्र) के मुताबिक कश्मीरी आतंकी संगठन हरकत उल अंसार के आतंकी तालिबान के नियंत्रण वाले दो कैंप में ट्रेनिंग ले रहे थे। इन कैंपों में उनसे पहले अफगानी अरब आतंकी ट्रेनिंग ले रहे थे।
3. विमान अपहरण के कंधार कांड की अनदेखी बहुत मुश्किल
दिसंबर 1999 में इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट 814 को हाईजैक करके कंधार ले जाने और तालिबान की रखवाली में आतंकी मसूद अजहर, उमर सईद शेख और मुश्ताक अहमद जरगर को रिहा करवाने का कांड भारत भुला नहीं सकता।
मसूद अजहर ने एक साल बाद ही कश्मीर में आतंक फैलाने के लिए जैश-ए-मोहम्मद बनाया। इसी जैश के आतंकियों ने 2001 में संसद पर और 2008 में मुंबई पर खौफनाक आतंकी हमले किए थे। अफगानिस्तान में तालिबान का राज होने पर पाकिस्तानी आतंकियों को एक बार फिर ऐसी घटनाओं को अंजाम देने के लिए सुरक्षित इलाका मिल सकता है।
4. तालिबान की पाकिस्तान से गहरी दोस्ती, चीन के भी इरादे नेक नहीं
अमेरिका स्थित विल्सन सेंटर के डिप्टी डायरेक्टर और दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ माइकल कुगेलमैन का कहना है, “भारत अफगानिस्तान में न केवल एक तालिबान सरकार के सच का सामना कर रहा है, बल्कि इसके दो सबसे बड़े प्रतिद्वंदियों, पाकिस्तान और चीन भी वहां अपनी मौजूदगी को मजबूत कर रहे हैं।”
- पाकिस्तान हमेशा अफगानिस्तान को अपने रसूख में रखने की कोशिश करता है। अफगानिस्तान में 1979 से 1989 के बीच रूसी सेना के खिलाफ अमेरिका के छुपे युद्ध (proxy war) के दौरान पाकिस्तान ने इसका पूरा फायदा उठाया।
- उसने अफगानिस्तान में अपने प्रभाव के चलते अमेरिका से न केवल आधुनिक हथियार और करोड़ों डॉलर लिए बल्कि विश्व कूटनीति में भारत के खिलाफ अमेरिका का इस्तेमाल किया।
- अब अफगानिस्तान में चीन को फायदा दिलवा कर पाकिस्तान उसे भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहता है।
काबुल में तालिबान के सच से इनकार करना बेहद कठिन
1. दुनिया कई बड़े देश तालिबान को कबूल करने को राजी
- चीन : अफगानी जनता की पसंद का सम्मान करते हैं हम चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने एक बयान में कहा, “हम अफगानिस्तान की जनता की पसंद का सम्मान करते हैं। चीन अफगानिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ने का इच्छुक है।”
- रूस : काबुल के हालात गनी सरकार के दौर से बेहतर रूस में तालिबान आतंकी संगठनों की सूची में है, लेकिन काबुल में रूस के राजदूत तालिबान से मिलने जा रहे हैं। काबुल में रूसी राजदूत दिमित्री जिरनोव ने कहा है कि तालिबान के राज में काबुल की हालत बहुत बेहतर है, अशरफ गनी की सरकार से भी बेहतर।
- पाकिस्तान : अफगानियों ने गुलामी की बेड़ियां तोड़ दीं काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक स्कूल के कार्यक्रम में कहा, “अफगानियों ने गुलामी की बेड़ियां तोड़ दी हैं।”
2. भारत को 22.5 हजार करोड़ के निवेश का फायदा मिलना मुश्किल, तालिबान ने कारोबार रोका
- एक्सपोर्ट : 6200 करोड़ रुपए
- इम्पोर्ट : 3750 करोड़ रुपए काबुल पर काबिज होते ही तालिबान ने पाकिस्तान के रास्ते भारत और अफगानिस्तान के बीच माल की आवाजाही पर रोक लगा दी है। फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन (FIEO) के डीजी डॉ. अजय सहाय के मुताबिक इस रोक के चलते भारत-अफगानिस्तान के बीच एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट थम गया है। अब भारत अगर तालिबान के खिलाफ कड़ा रुख अपनाता है तो कारोबार का दोबारा शुरू होना मुश्किल है। इसी तरह भारत ने अफगानिस्तान में करजई और गनी जैसे दोस्त सरकारों को स्थिर रखने के लिए विकास कार्यों में 22,500 करोड़ रुपए से ज्यादा का निवेश किया। इनमें सलमा डैम बनाने की नींव 1976 में रखी गई थी। तालिबान सरकार के सच को नकारने पर हमें इस कूटनीतिक निवेश का लाभ नहीं मिल सकेगा।
अफगानिस्तान में भारत के कई बड़े प्रोजेक्ट
- अफगान संसद भवन : भारत ने काबुल में 986 करोड़ रुपए की लागत से अफगान संसद का नया भवन बनवाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में इसकी नींव रखी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में इसका उद्घाटन किया था। संसद में एक ब्लॉक का नाम पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर रखा गया था।
- जरांच-डेलाराम हाईवे : भारत ने अफगान-ईरान सीमा के पास करीब 1100 करोड़ रुपए की लागत से 218 किमी लंबा यह हाईवे बनाया है। 2009 में पूरा हुआ ये हाईवे ईरान के चाबहार बंदरगाह के जरिए भारत को पाकिस्तान से गुजरे बिना अफगानिस्तान और आगे चल कर मध्य एशिया तक पहुंचने का एक वैकल्पिक रास्ता देता है।
- स्तोर पैलेस : भारत ने 2013-16 के बीच आगा खान ट्रस्ट के साथ मिलकर काबुल में 19वीं सदी के स्मारक स्तोर पैलेस का पुनर्निर्माण किया। इस महल का निर्माण 19वीं सदी में किया गया था। साल 1919 में रावलपिंडी समझौते में इसी महल को आधार माना गया था। इसी समझौते के तहत अफगानिस्तान एक स्वतंत्र देश बन सका था। इसमें 1965 तक अफगान विदेश मंत्री और मंत्रालय का ऑफिस था।
- सलमा डैम : हेरात प्रांत में करीब 2100 करोड़ रुपए की लागत से भारत की तरफ से सलमा बांध का निर्माण कराया गया है। कुल 42 मेगावॉट की क्षमता वाला यह एक हाइड्रोपावर और सिंचाई का प्रोजेक्ट है। 1976 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट का काम कई बार रुका। आखिरकार 2016 में इसका उद्घाटन हुआ। इसे अफगान-भारत दोस्ती बांध के तौर पर जाना जाता है।