नई दिल्ली। ‘केरल के शंकराचार्य’ माने जाने वाले संत केशवानंद भारती (79) का रविवार को निधन हो गया। वे कासरगोड़ में इडनीर मठ के प्रमुख थे। उन्हें संविधान को बचाने वाले शख्स के रूप में याद किया जाता है, क्योंकि 47 साल पहले उन्होंने केरल सरकार के खिलाफ मठ की संपत्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट में ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी थी।
उन्होंने भूमि सुधार कानून और 29वें संविधान संशोधन को चुनौती दी थी। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसएम सीकरी की अध्यक्षता वाली 13 जजों की बेंच ने 68 दिनों तक चली सुनवाई के बाद उनके पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था।
13 जजों की बेंच में से सात जजों ने बहुमत से फैसला दिया, ‘संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है, लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता और कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के खिलाफ नहीं हो सकता।’ इस मामले की सुनवाई 31 अक्टूबर 1972 से 23 मार्च 1973 तक चली थी।
संत की चुनौती से जन्मा अहम संवैधानिक सिद्धांत, जिसने संसद की संशोधन की शक्ति सीमित की
केरल का सुप्रसिद्ध इडनीर शैव मठ 1200 साल पुराना है। इसे आदि शंकराचार्य की पीठ भी माना जाता है। मात्र 20 साल की उम्र में गुरु के निधन के बाद केशवानंद इसके मुखिया बन गए थे। अध्यात्म के अलावा नृत्य, कला, संगीत और समाज सेवा में भी इसका काफी योगदान है।
भारत की नृत्य परंपरा को बढ़ावा देने के लिए कासरगोड़ और उसके आसपास के इलाकों में दशकों से इडनीर मठ के कई स्कूल और कॉलेज चल रहे हैं। मठ सालों से कई तरह के व्यवसायों का भी संचालन कर रहा है। 70 के दशक में कासरगोड़ में इस मठ के पास हजारों एकड़ जमीन भी थी। यह वही दौर था, जब ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल की तत्कालीन वामपंथी सरकार भूमि सुधार के लिए प्रयास कर रही थी।
इस चपेट में इडनीर मठ की संपत्ति भी आ गई। मठ की सैकड़ों एकड़ की जमीन अब सरकार की हो चुकी थी। ऐसे में इडनीर मठ के युवा प्रमुख स्वामी केशवानंद ने सरकार के इस फैसले को कोर्ट में चुनौती दी। इसके अलावा केरल और केंद्र सरकार के भूमि सुधार कानूनों को भी उन्होंने चुनौती दी।
फैसला आने तक केशवानंद अपने वकील से नहीं मिले
केरल हाईकोर्ट में उन्हें कामयाबी नहीं मिली तो उन्होंने संवैधानिक मामलों के नामी वकील नानी पालकीवाला से मशविरा कर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। स्वामी केशवानंद भारती इस मुकदमे के कारण देशभर में लोकप्रिय हो गए। उनके वकील रहे नानी पालकीवाला से वे फैसला आने तक नहीं मिले।
अखबारों की सुर्खियों में आने का मतलब वे समझ नहीं पा रहे थे। उन्हें लगता था कि यह तो केवल संपत्ति विवाद का मामला है। उन्हें यह पता ही नहीं था कि यह एक संवैधानिक मामला है, जिससे भारतीय लोकतंत्र दो दशकों से जूझ रहा था।