लखनऊ। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे देश के उन नागरिकों के लिए निराशा लेकर आए हैं जो बहुलतावाद में विश्वास रखते हैं, भले ही वे किसी भी राज्य के रहने वाले हैं, या वे किसी भी धर्म-जाति के हों या कोई भी भाषा बोलते हों।
अगर आप बहुलतावादी भारत के नागरिक हैं तो आपको देश भर में विभिन्न पार्टियों की जीत से कोई दिक्कत नहीं होगी। आपको न कांग्रेस से, एनसीपी,, डीएमके, एडीएमके, वाम दल या फिर कांग्रेस से छिटके तृणमूल कांग्रेस, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी या वाईएसआर कांग्रेस या जेडीएस जैसे किसी भी दल की जीत से कोई आपत्ति नहीं होगी।
लेकिन अगर आप देश के बहुलतावाद में विश्वास नहीं रखते हैं और ऐसे दल पर विश्वास रखते हैं जो देश के नागरिकों के साथ सौतेला व्यवहार करता है, विभिन्न कानून और नीतियों के जरिए उन्हें प्रताड़ित करता है, तो फिर आपके लिए एक ही पार्टी है। वही पार्टी इन चुनावों में जीती है।
एक तरह से ऐसा ही अपेक्षित भी था। ओपीनियन पोल के जरिए सामने आया था कि उत्तर प्रदेश में हवा एक ही तरफ बह रही है, लेकिन ध्यान दें तो उन ओपीनियन पोल की जरूरत भी नहीं थी। बीजेपी ने इस चुनाव से पहले हुए 2014, 2017 और 2019 के चुनाव में 40 फीसदी वोट हासिल किए थे। पिछले चुनाव में इसके हिस्से में 50 फीसदी वोट आए थे। यह कोई ऐसी स्थिति नहीं थी जहां पहुंचकर कोई दल हार जाए, और ऐसा ही हुआ भी।
वैसे तो कहना कुछ जल्दबाजी होगी, लेकिन यूपी भी गुजरात के रास्ते पर चल पड़ा है। राष्ट्रीय स्तर पर वैसे गुजरात दो पार्टियों वाला राज्य है, लेकिन राज्य में एक ही पार्टी का कब्जा है। बीते 25 साल में गुजरात में बीजेपी ने कोई भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव नहीं हारा है। और ऐसा इसीलिए हुआ है क्योंकि बीजेपी में 40 फीसदी वोट हासिल करने की क्षमता है।
तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि हालात अब ऐसे ही रहेंगे? निस्संदेह ऐसा नहीं है।
बीते कुछ सालों में मध्य प्रदेश में, भले ही अस्थाई तौर पर सही, कुछ बदलाव हुआ जब राज्य की कमान बीजेपी के हाथों से फिसली, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तो इसके पास अब भी नहीं हैं। इसलिए उम्मीद और संभावना दोनों ही रहती हैं कि हम स्थाई तौर पर ऐसी स्थिति में नहीं पहुंचे हैं जब पूरे उत्तर और पश्चिम भारत पर बीजेपी का कब्जा हो और पूर्व और दक्षिण के कई राज्यों में भी इसे चुनौती मिल ही रही है।
लेकिन कल आए नतीजें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। देश की सिविल सोसायटी और राजनीतिक दलों को बीजेपी की इस बाजीगरी से निपटने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी।
इस बार के नतीजों को लेकर जारी बहसों में मुख्यरूप से यह मुद्दा रहा कि क्या यह हिंदुत्व की जीत है या फिर मुफ्त राशन जैसे लालच की। इसके लिए दो बातों पर गौर करना होगा। पहला यह कि सत्तारूढ़ दल ने किस बात पर ध्यान केंद्रित किया? आखिर चुनाव प्रचार के दौरान और उससे भी पहले से बीजेपी नेताओं ने जो धुन छोड़ी थी, या फिर 2014 से ही इसने जिस चीज पर अपना प्रचार केंद्रित किया हुआ है, उसकी क्या मजबूरी थी? क्या लोगों को मुफ्त राशन जैसे खैरात देना था। इसका जवाब एकदम स्पष्ट है।
लेकिन बीजेपी की भाषा और बयानबाजी अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों पर केंद्रित रही है। जिन राज्यों में वह सत्ता में है वहां पार्टी के कानून बनाने का फोकस भी यही रहा है। 2018 के बाद से, सात बीजेपी शासित राज्यों, जिनमें हरियाणा भी जुड़ गया है, ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अंतर्धार्मिक विवाह को अपराध घोषित कर दिया है।
दुनिया के सबसे अंतर्विवाही हिस्सों में से एक में, जहां सबसे धनी लोग भी अपनी ही उपजातियों में शादी करते हैं, क्या वहां कोई एक महामारी है शुरु हुई है जिसे बीजेपी लव जिहाद कहती है?
निस्संदेह नहीं, और फिर सरकार ने तो खुद संसद में बताया है कि इस किस्म की किसी परंपरा या ट्रेंड से वह वाकिफ नहीं है। फिर भी एक के बाद एक बीजेपी शासित राज्य लव जिहाद पर कानून बनाते चले जा रहे हैं। इसी तरह उनका फोकस बीफ, पशुओं की आवाजाही, नागरिकता पर सवाल उठाने और मुसलमानों में तलाक का अपराधीकरण करने पर रहा है।
अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए एक के बाद एक कानून बनाए जा रहे हैं। दूसरी तरफ ऐसी नीतियां बनाई जा रही है जिनसे मुसलमानों को इबादत करने में, अपनी मर्जी की पोशाक पहनने में और अपनी मर्जी का कारोबार करने से रोका जा रहा है। ये सबकुछ बीते कई सालों से चल रहा है और हाल के दिनों में इनमें तेजी आई है।
तीसरी बात यह कि सरकार मुसलमानों के खिलाफ बेहद अतयाचारी कानूनों का इस्तेमाल करती है और उन्हें निरंतर निशाना बनाती है। यह सारे मुद्दे हैं जिन पर बीजेपी सरकारों और उसके नेताओं का फोकस रहा है और इसी सब में वे अपनी ऊर्जा और खर्च करते हैं।
दूसरा मुद्दा यह है कि क्या वोट देने वाली आबादी के बड़े हिस्से ने बीजेपी के इन इरादों को अनदेखा कर रखा है, सिर्फ इसलिए कि उन्हें सरकार की तरफ मुफ्त में राशन और अन्य चीजें मिलती हैं। शायद ऐसा ही है और यह एक तरह से अच्छी बात है। इसका अर्थ यह भी है कि सत्तारूढ़ दल के पास अगर संसाधन नहीं होंगे तो वे ऐसा नहीं कर पाएंगे।
इसी से विपक्ष को वह मौका मिलता है जहां उनकी सरकारें हैं। मुफ्त राशन (6 किलो चावल, गेंहू, दावल करीब 80 करोड़ लोगों को लॉकडाउन के समय से दिया जा रहा है) को इसी प्रकाश में देखा जाना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से जमीनी स्तर पर मुफ्त राशन किसी राजनीतिक दल द्वारा नहीं बल्कि सरकार की तरफ से दिया जा रहा है और यही कारण है कि संसाधनों की कमी के कारण इस सबको लोगों तक पहुंचाना सीमित है।
बुनियादी सवाल यह है कि हिंदुत्व का राग अलापने वाली क्या सिर्फ एक ही पार्टी के पास कोई ऐसा हथियार है जो दूसरों के पास नहीं है या फिर वे उसे आजमाना नहीं चाहते। जवाब बिल्कुल साफ है।
वोटों वाले लोकतंत्र में फिर क्या हल हो इस सबका, मेरे पास तो इसका जवाब नहीं है, और अगर किसी के पास है तो वह गलत होने की संभावना है। यह एक गहरी और जटिल समस्या है जो समाज के मूल और उसके मूल्यों से संबंधित है, और इसका सरल उत्तर होने की संभावना नहीं है।
फिर भी, दीवार पर लिखी इबारत स्पष्ट है कि भारत उस रास्ते पर चलता रहेगा जिस पर हम एक समाज के रूप में, एक अर्थव्यवस्था के रूप में और एक राष्ट्र के रूप में चल रहे हैं, और ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक कि बीजेपी हमारे साथ जो कर रही है, उसके खिलाफ उसे पीछे धकेलने की कोई सार्थक पहल नहीं होती।