क्या राणा प्रताप और अकबर दोनों एक साथ महान नहीं हो सकते?

भारतीय इतिहास में जो व्यक्ति अपनी बहादुरी और दृढ़ निश्चय के लिए मशहूर हुए हैं, उनमें राणा प्रताप का नाम विशेष आदर से लिया जाता है। मेवाड़ के गौरव राणा प्रताप का राजतिलक वर्ष 1572 में हुआ। उस समय भारत का सबसे शक्तिशाली राजा विख्यात मुगल सम्राट अकबर था। वर्ष 1576 में हल्दीघाटी की लड़ाई में राणा प्रताप की टक्कर मुगल सेना से हुई। उसके बाद राणा प्रताप को जगह-जगह पर जंगलों और पहाड़ों में घूमते हुए अपना संघर्ष जारी रखना पड़ा। कभी वे कुछ किले और क्षेत्र प्राप्त कर लेते थे तो कभी ये हाथ से निकल जाते थे। पर 1597 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने यह संघर्ष निरंतर जारी रखा। अपनी मृत्यु से पहले वे अपने अनेक किले और क्षेत्र वापिस ले चुके थे।

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अपने राजतिलक के बाद के 25 वर्षों में से वे हल्दीघाटी की लड़ाई तक के मात्र चार वर्ष ही अमन-चैन से गुजार सके थे। शेष 21 वर्ष तक उन्हें इस समय की एक अति शक्तिशाली विश्व स्तर की सेना के विरुद्ध बहुत कम साधनों से निरंतर जूझना पड़ा। इन 21 वर्षों के दौरान उन्होंने जिस कभी न विचलित होने वाले, कभी न झुकने वाले साहस का परिचय दिया, उससे वे सदा के लिए अमर हो गए।

यह उपलब्धि केवल व्यक्तिगत बहादुरी की ही नहीं थी। राणा प्रताप के ऐसे अनेक साथी थे जिन्होंने कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उनका साथ नहीं छोड़ा। इन सब के सहयोग से ही इतना लंबा संघर्ष चल सका। इस बात के भी प्रमाण हैं कि उस समय मेवाड़ में महत्वपूर्ण निर्णय, आपसी विचार-विमर्श के बाद, एक‘दूसरे की राय जानकर लिए जाते थे। इस कारण भी एकता बनाए रखने और आपसी साझेदारी से संघर्ष करने में सहायता मिली। इसका सबसे शानदार उदाहरण है, राणा प्रताप द्वारा भील सरदारों और भीलों का सहयोग प्राप्त करना। पहाडों और जंगलों को जितनी अच्छी तरह से यहां के भील जानते थे, उतनी अच्छी तरह और कोई नहीं जानता था। उनसे राणा प्रताप को संघर्ष में जो सहायता मिली वह और किसी से प्राप्त नहीं हो सकती थी। राणा प्रताप ने उनसे बहुत अच्छे संबंध स्थापित किए। इस सहयोग के प्रतीक के रूप में आगे चलकर मेवाड़ के राजचिह्न पर एक ओर एक राजपूत और दूसरी ओर एक भील की आकृति अंकित की जाने लगी।

इन तमाम पहलुओं को देखते हुए राणा प्रताप की बहादुरी और समझदारी की प्रशंसा तो जरूर होनी चाहिए, किन्तु कुछ लोग एक गलती यह करते हैं कि राणा प्रताप की प्रशंसा के साथ मुगल शासक अकबर की बहुत सी बुराई भी जोड़ देते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि प्रताप जीवन-भर अकबर की सेना से लड़े थे, अतः यदि प्रताप को नायक मानना है तो अकबर को खलनायक मानना पड़ेगा। यदि प्रताप को अच्छा मानना है तो अकबर को बुरा मानना पड़ेगा। इतना ही नहीं, कुछ लोग तो इससे भी बड़ी गलती करते हैं और प्रताप तथा अकबर की लड़ाई को हिन्दू-मुस्लिम लड़ाई के रूप में पेश कर देते हैं। ये सब बहुत ही संकीर्ण सोच की बातें हैं – इस तरह तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का काम शरारती तत्व ही करते हैं। इतिहास की सच्चाई इससे बहुत अलग है। बादशाह अकबर भी अपनी जगह पर एक महान शासक थे जिनकी अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। राणा प्रताप की अच्छाईयां देखते हुए हमें अकबर की उपलब्धियों से भी मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।

भ्रान्तियां और उनका निराकरण

चूंकि राणा प्रताप और अकबर दोनों ही भारतीय इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण शासक रहे हैं, अतः इन दोनों के टकराव के बारे में जो अनेक भ्रान्तियां पैदा की गई हैं, यानि अनेक तरह की गलत समझ फैलाई गई हैं, उसे दूर करना जरूरी है। इस तरह की मुख्य तीन भ्रान्तियों को हम यहां दूर करने का प्रयास करेंगे।

पहली भ्रान्ति तो यह फैलाई जाती है कि यह हिन्दू और मुस्लिम के बीच हुआ युद्ध था। लेकिन सच्चाई तो बहुत अलग है। हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप की सेना के एक महत्वपूर्ण हिस्से का नेतृत्व हकीम खां सूरी ने किया था। दूसरी ओर अकबर की ओर से हल्दीघाटी की लड़ाई में अपनी पूरी सेना का नेतृत्व आमेर के राजपूत कुंवर मानसिंह के हाथ में दिया गया था। अतः हल्दीघाटी का जो सबसे महत्वपूर्ण यूद्ध था उसमें दोनों ओर से मिली-जुली सेना थी। दोनों ओर हिन्दू भी थे और मुस्लिम भी थे। फिर इसे कैसे हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई कहा जा सकता है?

सेनापति मुसलमान, मेवाड़ में मुस्लिम जागीरें

महाराणा प्रताप पर एक निबंध में इतिहासकार के.वी. मुखिया लिखते हैं, “हल्दीघाटी के युद्ध में हकीम खां सूरी अपने साथियों के साथ प्रताप के पक्ष में लड़ा जिसका समाधि-स्थल आज भी हल्दीघाटी के पास बना हुआ है। जालौर के सूबेदार ताज खां से प्रताप के अच्छे संबंध थे। ललित कला के क्षेत्र में भी प्रताप के समय कई मुसलमान कलाकार हुए हैं जो इन कलाओं में अपनी अमर छाप छोड़ गए हैं।” आगे वे लिखते हैं, “मेवाड़ में सिन्धी मुसलमानों को भी जागीर बख्शी गई थीं जो देश की स्वतंत्रता से पूर्व तक कायम थीं।”

अतः यह स्पष्ट है कि चाहे शान्ति का समय हो या युद्ध का, राणा प्रताप कभी मुस्लिम विरोधी नहीं थे और उन्होंने अपने मुस्लिम मित्रोें के साथ मिल-जुलकर काम किया। दूसरी ओर यह बताना भी उतना ही आवश्यक है कि बादशाह अकबर हिन्दू विरोधी नहीं थे और उन्होंने युद्ध और शान्ति दोनों समय हिन्दू मित्रों के साथ गहरा सहयोग बना कर काम किया। हल्दीघाटी के महत्वपूर्ण युद्ध में अकबर ने कुंवर मानसिंह को अपना मुख्य सेनापति बनाया, इससे पता चलता है कि उन्हें अपने हिन्दू मित्रों पर कितना गहरा विश्वास था।

अकबर की सेना में जो बड़ा दर्जा सात हजारी मनसबदार का था वह मानसिंह को दिया गया था। मानसिंह को कभी काबुल तो कभी बंगाल और बिहार का सूबेदार भी नियुक्त किया गया। अन्य राजपूत राजाओं को भी लाहौर, आगरा, अजमेर, गुजरात जैसे अति महत्वपूर्ण प्रदेशों का सूबेदार बनाया गया। राजपूत राजाओं को अपने आंतरिक मामलों में काफी स्वतंत्रता देने के साथ-साथ अकबर ने उन्हें अन्य बड़ी-बड़ी जागीरें भी दीं। अनेक हिन्दू राजाओं के साथ अकबर ने नजदीकी पारिवारिक संबंध व रिश्तेदारी स्थापित की। अकबर ने शिशु शाहजादे दानियाल को आमेर भेज दिया जहां राजा भरमल के परिवार की महिलाओं ने इसका लालन-पालन किया। वर्ष 1593 में जब बीकानेर के शासक राय सिंह के दामाद की मृत्यु हुई तो शोक प्रकट करने अकबर वहां स्वयं गया। उसने अनुरोध कर राजा की बेटी को सती होने से बचाया।

अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाले जजिया कर को हटा दिया और तीर्थ कर भी समाप्त कर दिया। उसने संस्कृत की अनेक पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करवाया। उसने अथर्ववेद, महाभारत, रामायण, गीता व पंचतंत्र का अनुवाद पूरा करवाया या उसकी शुरूआत की। अकबर के सबसे प्रिय लोगों में राजा टोडरमल और बीरबल (महेशदास नामक एक ब्राह्मण को यह उपाधि दी गई थी) जैसे हिन्दू थे।

वर्ष 1580-81 में अकबर के विरुद्ध एक विद्रोह मुस्लिम कट्टरपंथियों ने करवाया। इसको अकबर के पोषक भाई और काबुल के शासक मिर्जा हाकिम ने समर्थन दिया। बंगाल, बिहार तक यह विद्रोह फैल गया। इस स्थिति में अकबर ने बंगाल-बिहार में जो सेना भेजी उसका मुख्य सेनापति टोडरमल को बनाया। उसने मिर्जा हाकिम के विरुद्ध जो सेना भेजी उसका सेनापति मानसिंह को बनाया। मुस्लिम कट्टरपंथी विद्रोह को दबाने के लिए हिन्दू सेनापतियों को भेजने से पता चलता है कि अकबर का अपने हिन्दू मित्रों के साथ कितने गहरे विश्वास का रिश्ता था।

इस तरह यह स्पष्ट है कि न तो राणा प्रताप मुस्लिम विरोधी थे और न बादशाह अकबर हिन्दू विरोधी थे। इन दोनों के बीच हुए युद्धों को भी हिन्दू-मुस्लिम युद्ध किसी तरह नहीं कहा जा सकता है।

दूसरी भ्रान्ति यह फैलाई जाती है कि अकबर साम्राज्यवादी था और राणा प्रताप का संघर्ष साम्राज्यवाद के विरुद्ध था। वास्तविक स्थिति यह है कि उस समय के राजनीतिक माहौल में विभिन्न राज्यों में आपस में निरंतर युद्ध होते रहते थे। अनुकूल मौका देखकर कोई भी अपेक्षाकृत मजबूत राज्य अपना विस्तार करने का प्रयास करता था। इसलिए केवल मुगल शासकोें को साम्राज्यवादी बताना उनके साथ अन्याय होगा और इतिहास के साथ खिलवाड़ होगा।

इस स्थिति को मेवाड़ राज्य के अपने इतिहास से और स्पष्ट किया जा सकता है। मेवाड़ राज्य का इतिहास वैसे तो आठवीं शताब्दी से ही शुरू हो जाता है। लेकिन उसे भारत की एक प्रमुख शक्ति बनाने का कार्य तो पंद्रहवी शताब्दी में ही हो सका। इस कार्य का मुख्य श्रेय राणा कुंभा को है जिन्होंने वर्ष 1433 से वर्ष 1468 तक मेवाड़ में शासन किया।

राणा कुंभा एक महान योद्धा होने के साथ-साथ एक विद्वान भी थे। उन्होंने कई सुन्दर भवन, बहुत उपयोगी जलाश्य बनवाए। उनकी प्रमुख राजनीतिक उपलब्धि यह मानी जाती है कि आस-पास अन्य शक्तिशाली राज्यों की उपस्थिति के बावजूद उन्होंने मेवाड़ का क्षेत्र बढ़ाकर इसे एक महत्वपूर्ण राज्य बनाया। कुंभा ने निकट के राज्यों कोटा, बूंदी और डंूगरपुर के विरुद्ध विजय अभियान आरंभ किया। उन्होंने फिर नागौर के खान पर भी हमला किया। इस तरह आसपास के हिन्दू-मुस्लिम दोनों तरह के शासकों पर आक्रमण कर कुंभा ने अपने राज्य का विस्तार किया।

राणा कुंभा के विजय अभियान से पहले कोटा ने शक्तिशाली मालवा राज्य का संरक्षण प्राप्त किया हुआ था और बूंदी ने गुजरात राज्य का। अतः कुंभा की इन दो पड़ौसी शक्तिशाली राज्यों से भी शत्रुता हो गई। मालवा के शासक के विरोधी को राणा ने आश्रय दिया, तो मालवा ने राणा के विरोधी भाई मोकल को। इस तरह राणा के अपने पड़ौसी राज्यों से निरंतर युद्ध होते रहे, जिनमें उन्होंने बड़ी बहादुरी दिखाई।

किन्तु शत्रुओं के विरुद्ध इतना साहस दिखाने वाले राणा कंुभा की हत्या उनके अपने बेटे उदा ने कर दी। उसके बाद तो कई भाई और रिश्तेदार मेवाड़ की गद्दी के लिए आपसी मार-काट करने लगे। लगभग चालीस वर्ष बाद मेवाड़ को कंुभा के पौत्र राणा सांगा के रूप में फिर एक मजबूत शासक मिला जिसने मालवा के शासक को हरा कर पूर्वी मालवा को अपने राज्य में मिला लिया। उसने इब्राहिम लोधी के हमने को नाकाम कर अपनी सत्ता को पक्का कर लिया।

बाबर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब उसने इब्राहिम लोधी की सेना को पानीपत में हराया, उससे पहले उसे राणा सांगा ने इस हमले का निमंत्रण दिया था और इब्राहिम लोधी के विरुद्ध उसका साथ देने का वचन दिया था। खैर, पानीपत की लड़ाई (वर्ष 1526) में तो राणा सांगा की कोई भागीदारी नहीं हुई पर शीघ्र ही राणा सांगा और बाबर का सामना खानवा की लड़ाई में हो गया। इस लड़ाई में राणा सांगा का साथ अनेक अफगानों, मेवात के शासक हसन खां मेवाती और इब्राहिम लोधी के छोटे भाई महमूद लोधी ने दिया। वर्ष 1527 की इस लड़ाई में सेना की संख्या कम होने के बावजूद बेहतर युद्ध संचालन के कारण बाबर की विजय हुई। राणा सांगा ने यह संघर्ष जारी रखना चाहा, पर उनके अपने ही सरदारों ने उन्हें जहर देकर मार दिया।

इसके कुछ समय बाद बहादुर शाह के नेतृत्व में मेवाड़ का पड़ौसी राज्य गुजरात बहुत शक्तिशाली हो गया। उसने शीघ्र ही मालवा को जीत लिया और फिर राजस्थान की ओर मुड़ा। जब उसने चितौड़ के किले पर घेरा डाला तो पहले से कमजोर हुए मेवाड़ राज्य के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया। इस समय के बारे में एक कहानी मशहूर है कि राणा सांगा की विधवा रानी ने इस समय हुमायूं को राखी भेजकर सहायता मांगी थी। हुमायूं बाबर की मृत्यु के बाद अगला मुगल शासक बन गया था। हुमायूं रानी की सहायता के लिए पंहुचा भी था। यह कहानी ऐतिहासिक दृष्टि से सच हो या न हो, इतना तो अवश्य सच लगता है कि बहादुर शाह को मुगल सेना के पंहुचने का भय हो गया था क्योंकि वह जल्दबाजी में समझौता कर और हर्जाना वसूल का चितौड़ से चला गया। इसके बाद बहादुर शाह ने एक बार फिर चितौड़ पर आक्रमण किया। पर इस बार भी हुमायूं की सेना के आने की खबर सुन कर वह मांडू भाग गया।

हुमायूं को हराकर अफगान शासक शेरशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा और उस समय भारत का सबसे शाक्तिशाली शासक बना। इस दौरान राजस्थान में मेवाड़ राज्य की शक्ति कम हो चुकी थी और मारवाड़ राजा मालदेव के नेतृत्व में सबसे शक्तिशाली राज्य बन चुका था। उसने अन्य पड़ौसी राजाओं के अतिरिक्त बीकानेर के राजा को हराया। बीकानेर के राजा बहादुरी से लड़ते हुए युद्ध में मारे गए तो उनके पुत्रों ने शेरशाह के पास शरण ली। शेरशाह की सेना ने मारवाड़ की सेना को वर्ष 1544 में पराजित किया। फिर शेरशाह मेवाड़ की ओर मुड़ा। राणा सांगा के बाद मेवाड़ में रत्नसिंह, विक्रतजीत, बनवरी आदि जो शासक हुए थे उनके समय में मेवाड़ की शक्ति कम होती गई थी। नए शासक उदयसिंह स्थिति सुधारना तो चाहते थे पर कुछ ही समय पहले सत्ता संभालने के कारण अभी उन्हें इसका पर्याप्त समय नहीं मिला था। मुकाबले की क्षमता न होने के कारण शेरशाह के चितौड़ पंहुचने से पहले ही किले की चाबियाँ उसे पंहुचा दी गई।

किन्तु इसके बाद उदयसिंह ने मेवाड़ की सुरक्षा के इंतजाम पक्के करने की ओर ध्यान लगाया। उन्होंने उदयपुर के पहाड़ी इलाके में नई राजधानी भी बनाई जिससे मेवाड़ राज्य की सुरक्षा केवल चितौड़ के किले पर ही केन्द्रित न रह जाए। वर्ष 1568 में जब अकबर ने चितौड़ पर आक्रमण किया और कड़े प्रतिरोध के बाद विजय हासिल की तो राणा उदयसिंह अपने पहाड़ी क्षेत्र में सुरक्षित बने रहे। बाद में उदयपुर, कुभलगढ़ आदि पहाड़ी केन्द्रों से मेवाड़ राज्य का अस्तित्व बना रहा।

1572 ई. में राणा उदय सिंह की मृत्यु के बाद राणा प्रताप का राजतिलक हुआ। राणा प्रताप के पास अकबर ने दोस्ती के लिए कई दूत भेजे पर अकबर की शर्तों पर वे मित्रता स्वीकार नहीं कर सके। फलस्वरूप हल्दीघाटी का युद्ध हुआ। युद्ध के बाद गोगूंदा, चावंड आदि कई जगहों पर अपने केन्द्र बदलते हुए राणा ने अपना संघर्ष वर्ष 1597 में अपनी मृत्यु तक जारी रखा।

सुलह-समझौते में संघर्ष का अंत

राणा प्रताप के बाद उनके पुत्र अमर सिंह का राजतिलक हुआ। उधर अकबर की मृत्यु के बाद जहांगीर ने मुगल राज्य संभाला। वर्ष 1613 में जहांगीर ने शाहजादे खुर्रम (जो बाद में शाहजहां नाम से विख्यात हुआ) को मेवाड़ के पहाड़ी इलाकों पर हमले के लिए बड़ी सेना के साथ भेजा। इस आक्रमण ने मेवाड़ के लोगों के जीवन और उनकी आजीविका को खतरे में डाल दिया। आखिर लोग कितने हमले सह सकते थे। इस कारण कई सरदारों और मुख्य लोगों ने यह कहना आरंभ किया कि मुगलों से समझौता कर लेना चाहिए। सुलह-समझौते के प्रयास में अमर सिंह के बेटे करण सिंह को जहांगीर के दरबार में भेजा गया। यहां जहांगीर ने करण सिंह का बहुत सम्मानपूर्वक स्वागत किया। राजकुमार करण सिंह को 5000 की मनसबदारी दी गई। राणा के जीते गए प्रदेश भी वापिस दे दिए गए। इस तरह इस लंबे संघर्ष का अंत सुलह-समझौते में सम्मानपूर्ण तरीके से हुआ।

इसके बाद लगभग 70 वर्षों तक मेवाड़ राज्य और मुगल शासकों में कोई संघर्ष नहीं हुआ। औरंगजेब ने भी मेवाड़ के राणा का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया व उनके मनसब को 5000 से बढ़ाकर 6000 कर दिया। किन्तु बाद में मारवाड़ के औरंगजेब से झगड़े में मेवाड़ ने मारवाड़ की रानी हाड़ी के समर्थन में सैनिक भेजे, तो औरंगजेब ने भी उदयपुर में राणा के शिविर पर हमला कर दिया। राणा ने पहाड़ियों में शरण ली। वहां से छापामार हमलों द्वारा उन्होंने मुगल सैनिकों को बहुत परेशान किया। किन्तु कुछ समय बाद मेवाड़ के राणा जगत सिंह और औरंगजेब के बीच काम चलाऊ समझौता हो गया।

अतः स्पष्ट है कि अपने राज्य को मजबूत बनाने के आरंभिंक दौर में मेवाड़ राज्य ने भी विशेषकर राणा कुंभा के समय में पड़ौसी राज्यों को जीता था व इस तरह अपना शक्ति व क्षेत्र बढ़ाए थे। मेवाड़, गुजरात, मालवा इन पड़ौसी राज्यों में कितने ही युद्ध होते रहते थे। तो फिर केवल मुगलों को ही साम्राज्यवादी क्यों कहा जाए? विशेषकर जब मेवाड़ व मुगल शासकों के संबंधों में कई बार लड़ाई हुई तो कई बार वे एक भी हुए। यह भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि अकबर ने स्वयं राणा प्रताप के पास दोस्ती का प्रस्ताव लेकर कुंवर मानसिंह, राजा भगवानदास और राजा टोडरमल जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को भेजा था। कुछ समय के लिए तो तब भी आपसी समझौता होने की संभावना बहुत बढ़ गई थी। खैर कुछ कारणों से यह समझौता न हो सका और अनेक वर्षों के लिए संघर्ष आरंभ हो गया। पर इसे मुगल साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कहना उचित नहीं है।

यहां यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि अकबर ने भारत के बड़े भाग में एक मजबूत राज्य की स्थापना की जिसके कारण लगभग दो शताब्दियों तक भारत में बड़ा विदेशी या बाहरी हमला नहीं हो सका। यदि बहुत से छोटे-छोटे आपस में लड़ने वाले राज्य बने रहते तो बाहरी हमलों की आशंका अधिक होती।

अकबर ने न केवल अन्य राजाओं से बिना खून-खराबे और युद्ध के दोस्ती करने की कोशिश की बल्कि उसने कई राजाओं को हराने के बाद उनके राज्य का बड़ा हिस्सा लौटा भी दिया। अकबर ने अपने राज्य में राजाओं को महत्वपूर्ण दर्जा भी दिया। उदाहरण के लिए अकबर ने गढ़ काटंगा की विजय में कुछ समय बाद मालवा की सीमा पार के दस दुर्ग रख कर गढ़ काटंगा वहां के शासक के छोटे बेटे चंद्र शाह को लौटा दिया। बाद में जहांगीर के समय मेवाड़ से जो समझौता हुआ उसमें भी मेवाड़ के अधिकांश क्षेत्र राणा अमर सिंह को लौटा दिए गए।

तीसरी भ्रान्ति यह है कि राणा प्रताप और अकबर के संघर्ष को अच्छाई और बुराई के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस विचारधारा के अनुसार मुगल अत्याचार और जुल्म का प्रतीक बन जाते हैं, जिसके विरुद्ध लड़ना जरूरी है। यह सोच भी उचित नहीं है। उस युग में युद्ध के दौरान या उसके बाद कई तरह का कठोर व्यवहार कापफी सामान्य बात थी। चितौड़ के किले की विजय के बाद मुगल सेना ने वहां जुल्म किया। फौज ने वहां एकत्र कई किसानों व राजपूत योद्धाओं को मार दिया। इन्हें मारना अनुचित था, क्योंकि किले की विजय तो हो ही चुकी थी। किन्तु इस तरह की छिटपुट घटनाओं से हम अकबर के पूरे शासन के बारे में यह आम राय नहीं बना सकते कि वह अत्याचारी शासक था क्योंकि बादशाह अकबर ने नाहक होने वाले खून-खराबे को रोकने का प्रयास बार-बार किया। साथ ही उन्होंने धार्मिक सहनशीलता की नीति अपनाई और प्रजा के लिए अनेक कल्याणकारी कार्य किए।

अतः उनके शासन को अत्याचारी नहीं कहा जा सकता है। अकबर के अनेक राजपूत और अन्य हिंदू शासकों के साथ बहुत अच्छे संबंध थे, यह नहीं भुलाया जा सकता है। अकबर ने उनके राज्यों को अक्सर अपने राज्य में नहीं मिलाया बल्कि उन्हें अपने राज्य के कार्य में आंतरिक स्वतंत्रता देते हुए सम्मानजनक स्थिति में रखा।

युद्ध के समय जो कठोरता कभी-कभी देखी गई, क्या केवल अकबर उसका दोषी था या दोनों पक्षों की ओर से कठोरता होती थी? राणा प्रताप को जब पहाड़ों में अपनी व्यूह-रचना करनी पड़ती थी तो उन्हें रास्ते के अपने राज्य के ही मैदानी क्षेत्र को भी उजाड़ देना पड़ता था जिससे मुगल सेना को रसद-पानी न मिल सके। अतः उन्हें अपनी प्रजा को ही अपने घर और खेत छोड़ कर पहाड़ों में जाने के लिए कहना पड़ता था जिससे प्रजा को अवश्य बहुत कष्ट सहना पड़ता होगा।

इतिहास में अमिट महानों की प्रतिद्वन्द्विता

संक्षेप में कहें तो राणा प्रताप और बादशाह अकबर के संघर्ष में एक को भला व दूसरे को बुरा बताना उचित नहीं है। राणा प्रताप अपनी जगह पर महान थे तो बादशाह अकबर अपनी जगह पर महान थे। परिस्थितियां कुछ ऐसी बन पड़ी कि दोनों में टकराव हुआ। अकबर ने भारत के एक बड़े हिस्से में एक मजबूत राज्य बनाया। इस प्रयास में अकबर ने विभिन्न राजाओं को पहले दोस्ती से मनाने की कोशिश की। उनकी रजामंदी न होने पर युद्ध भी किया। कई योग्य व बहादुर राजा जैसे भारमल और उनके परिवार के सदस्य जैसे मानसिंह आरंभ से ही अकबर के साथ मिल गए जबकि कुछ ने युद्ध किया। इसमें किसी को भला-बुरा नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि सबने अपनी-अपनी समझ व अपनी-अपनी प्रजा के हितों की समझ के अनुसार काम किया। अलग-अलग रास्तों पर चलते हुए भी यदि अकबर ने अपने गुणों से इतिहास के पन्नों में स्थान हासिल किया राणा प्रताप ने भी अपने महान गुणों की अमिट छाप इतिहास के पन्नों पर छोड़ी।

राणा प्रताप की महानता से कोई इंकार नहीं कर सकता है। पर इसके लिए अकबर को बुरा कहना जरूरी नहीं है और न ही मानसिंह, भारमल जैसे अकबर के मित्रों को बुरा कहना जरूरी है। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी समझ के मुताबिक सम्मानजनक जीवन जिया और इतिहास में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। अन्त में यह जरूर कहना पड़ेगा कि राणा प्रताप में जैसा दृढ़ निश्चय और साहस था, उसकी मिसाल बहुत कम मिलती है।

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