जलते हुए इन असहाय पेड़-पौधों व मूक जीव-जन्तुओं की कौन सुने?

हर के बाहरी इलाके में कालोनी होने के कारण सडक के आसपास काफी जगह थी, जिस पर मैने आड़ू, कचनार, शरींह, डेक (बकायन), सहजन, आम बेलपत्री, अमलतास सहित कई तरह के पेड़ लगा दिए। कमर में दर्द होने के कारण जग और कमंडल से पानी दे इन्हें पाला। नन्हें-नन्हें पेड़ों को जल ग्रहण करने में इतना आनन्द न आता होगा जितना कि मुझे इनकी कोमल जड़ों को सींचने में आता।

कभी लगता कि इस पानी से पितृ तृप्त हुए, तो दूसरे पल एहसास होता कि जैसे बालक मेरी अंजुली से अपनी प्यास बुझा रहे हों। समय बीता वृक्ष तरुण हुए तो इस पर तरह-तरह के पंछी बैठ कर गुनगुनाने लगे, लेकिन एक दिन मेरी सपनों की सारी दुनिया लुट गई। पास ही के खेत के किसान ने गेहूं काट कर बचे हुए अवशेषों को आग लगा दी, जिससे कई नवतरुण पेड़ झुलस गए। जख्मी पेड़ों को देखा तो ऐसा लगा कि वे मुझे गाली दे रहे हों और पूछ रहे हों कि मुझे ऐसी जगह क्यों लगाया जहां किसी को मेरे गुणों व जान की कदर ही न हो। मैं बेबस था, जैसे अपनी आंखों के सामने कसाई के हाथों मेमना कटता हुआ देख कोई भेड़ असमर्थ हो व सिवाए गर्म-गर्म आंसू बहाने के अतिरिक्त कुछ और करने में असहाय हो।

पंजाब-हरियाणा में आजकल यही कुछ हो रहा है, गेहूं के अवशेषों (स्थानीय भाषा में नाड़) को दिल खोल कर जलाया जा रहा है और यही अग्नि झुलसा रही है आसपास के हरे-भरे वृक्षों को। इस आग में केवल पेड़ ही नहीं जल रहे बल्कि साथ में जिन्दा ही स्वाह हो रहे हैं लाखों-करोड़ों पंछी, कीट-पतंगे और सरीसृप जो इस धरती माँ को उतने ही लाडले हैं जितना कि इंसान।

उत्तर भारत में बैसाख के महीने में गेहूं की कटाई हो जाती है और आषाढ़ में धान की बिजाई की जाती है। ज्येष्ठ के महीने में किसान गेहूं की फसल से फारिग हो नई बिजाई की तैयारी में लग जाते हैं। जब हाथ से कटाई होती थी तो गेहू्ं की नाड़ को चारे के रूप में पशुओं के लिए संरक्षित कर लिया जाता परन्तु खेती के मशीनीकरण के चलते फसल के बचे हुए हिस्से को जलाया जाने लगा है।

हालांकि समझदार किसान व कृषि विशेषज्ञ परामर्श देते हैं कि अगर बचे हुए डण्ठलों को खेत में ही जोत दिया जाए तो जमीन की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है और अगली फसल (धान, आलू, चारा, कपास) का झाड़ अच्छा होता है परन्तु कुछ लोगों की ये दबंगई ही है कि आज नाड़ जलाने का प्रचलन खतरनाक स्तर पर बढ़ रहा है।
इसी वर्ष पंजाब में 11 हजार से अधिक खेतों को आग लगाने की घटनाएं सामने आई हैं, हालांकि अभी पूरे राज्य में

इसका पूरा निष्पादन भी नहीं हो पाया है। खेतों की यही आग अनियंत्रित हो पर्यावरण को जबरदस्त नुक्सान पहुंचा रही है और साथ में मौसम की तपिश में भी वृद्धि कर रही है। पंजाब के गांवों में सुबह-सुबह गुरुद्वारा साहिबों के लाऊड स्पीकर से पवित्र गुरबाणी के श्लोक सुनने को मिल जाते हैं कि ‘पवनु गुरु पाणी पिता माता धरतु महतु’ अर्थात हवा गुरु, जल पिता और धरती माँ के समान है, परन्तु धरातल पर देखा जाए तो अब यह पवित्र सिद्धांत केवल तोतारटंत ही बनते जा रहे हैं, जिनको मीयां मिट्ठू की तरह रटते तो सभी हैं परन्तु अमल कोई-कोई करता है।

हैरानी की बात है कि न तो सामाजिक संगठन और न ही धार्मिक संस्थाएं इस मुद्दे पर अपनी जुबान खोलने को तैयार हैं। गुरु साहिबानों के इन सिद्धांतों की बेअदबी करने वालों के सामने बोलने का कोई साहस नहीं जुटा पाता। भारत के इस उत्तरी हिस्से में आषाढ़ व सावन महीने को पावस का मौसम माना जाता है, इस समय दौरान जीव जगत प्रसव काल से गुजरता है। बारिश की प्राणदायक बून्दें तपती धरती पर राहत बरसाती हैं जो प्राणी जगत में प्रेम व प्रजनन की कामना पैदा करता है।

वर्तमान में चल रहा ज्येष्ठ माह पावस की तैयारी का माना जाता है, तभी तो देखा होगा कि इन दिनों चिडिया-बया जैसे पंछी वृक्षों व घरों की छतों पर घोंसले बनाना शुरू कर देते हैं। खेतों को लगाई जाने वाली आग इन आशियानों को आबाद होने से पहले ही बर्बाद कर रही है। पाताल के निवासी कहे जाने वाले सर्प, शशांक, केंचुए, साही जैसे जीव इस आग में भूने जाते हैं तो जमीन पर घोंसले बनाने वाली टटीहरी, तीतर, बटेर के अण्डे आग से आमलेट बन रहे हैं।

नाड़ जलाने से केवल जीव-जन्तु ही नहीं बल्कि इसी मौसम में आधा दर्जन लोगों की जानें भी जा चुकी हैं। खेत की आग के धुएं से सडक़ पर जा रहे राहगीरों को कुछ दिखाई नहीं पड़ता और वे दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं। राजमार्गों पर चलने वाले कई वाहन खेतों की आग की भेंट चढ़ चुके हैं पठानकोट में तो पिछले दिनों एक रेल गाड़ी झुलसते-झुलसते बची। धान की पराली का निष्पादन सरल न होने की बात कह कर किसान धान की पराली खूब जलाते हैं परन्तु गेहूं की नाड़ का निपटारे तो कोई मुश्किल नहीं, इसके बावजूद इसे भी जलाने का प्रचलन खतरनाक स्तर पर बढ़ रहा है।

दिल्ली में चले किसान आन्दोलन के बाद जिस तरह से केन्द्र सरकार ने तीन कृषि कानून वापस लिए उसके बाद से पंजाब में किसान यूनियनों की मनमानी दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही है। आए दिन धरने-प्रदर्शन, सडक-रेल मार्ग रोकना, बाजार बन्द करवाना साधारण सी बात बन गई है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि पंजाब-हरियाणा के लोग इन्हीं किसान यूनियनों के रहमो-करम पर जीने को विवश हैं। जब सरकारें, प्रशासन व आम नागरिक इतना बेबस हैं तो जलते हुए इन असहाय पेड़-पौधों व मूक जीव-जन्तुओं की कौन सुने?

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