शबाहत हुसैन विजेता
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की गर्मी निकल चुकी है. जीतने वाले नाच गा रहे हैं और हारने वाले एक दूसरे पर हार का ठीकरा फोड़ रहे हैं. सारे इल्जाम गरीब जनता पर ही हैं. जनता के हाथ कुछ भी नहीं लगा है. उसके हिस्से सिर्फ इल्जाम हैं. उसके हिस्से महंगाई का जाम है. उसके हिस्से नफरत है. उसके हिस्से दर्द है. उसके हिस्से मज़हब का बंटवारा है. उसके सामने बेचारगी का आसमान है.
डेमोक्रेसी ने जनता के हाथों में जो वोट की ताकत दी है. जनता ने भी अब उसका इस्तेमाल करना सीख लिया है. जनता ने त्रिशंकु सदन का चुनाव बंद कर दिया है. जनता अब इस तरह से वोट नहीं देती है कि मध्यावधि चुनाव की ज़रूरत पड़े. मामला आर या पार का होता है. किसी एक पार्टी को जनता कमान देना सीख गई है.
70 सालों में जनता ने वोट देने की कला तो सीख ली लेकिन नेताओं को वोट लेने की कला आज तक नहीं आ पाई है. जनता जिनके हाथों में अपनी तकदीर सौंप देती है वह नेता उस जनता के बारे में जिस सस्ती ज़बान का इस्तेमाल करते हैं वह यह नहीं समझ पाते हैं कि पांच साल में एक दिन को ही सही डेमोक्रेसी इसी जनता को माई बाप में बदल देती है. जिस वक्त जनता माई बाप होती है उस वक्त किसी भी नेता की तकदीर बना और बिगाड़ सकती है.
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का रिजल्ट आ जाने के बाद राजनीतिक दलों के मंथन का दौर शुरू हो गया है. बीजेपी बहुत खुश है. जनता ने उसे फिर अपनी तकदीर सौंप दी है. मायावती नाराज़ हैं कि मुसलमान उसे धोखा देकर समाजवादी पार्टी की तरफ चला गया. जब मौका लगेगा तब वह मुसलमानों को देखेंगी. अखिलेश यादव ने भी इस बार बड़ा दिल दिखाया है और अपनी सीटें ढाई गुना होने पर जनता का शुक्रिया अदा किया है. कांग्रेस ने ज़रूर पूरी विनम्रता से अपनी हार स्वीकार कर ली है.
बात उत्तर प्रदेश की करें. तो जनता की क़ाबलियत और नेताओं का चरित्र दोनों की तस्वीर बिल्कुल साफ़ हो जाती है. याद करिये जब निर्वाचन आयोग ने विधानसभा चुनाव घोषित किये थे तब अपने पांच साल के कामकाज का लेखाजोखा लेकर जनता के बीच जाने के बजाय यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने ट्वीट किया था कि अयोध्या में काम जारी है, मथुरा की तैयारी है.
केशव मौर्य ने ध्रुवीकरण की जो ज़मीन तैयार की थी बीजेपी उसी पर चल निकली थी. मुख्यमंत्री को मथुरा से चुनाव लड़ाने की तैयारी की जाने लगी थी. कुछ ही दिन में तय हुआ था कि मुख्यमंत्री अयोध्या से लड़ेंगे क्योंकि वहां तो राम मन्दिर बन रहा है. काफी मंथन के बाद मुख्यमंत्री को गोरखपुर भेज दिया गया.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर कराने का मन्त्र देने वाले केशव मौर्य अपनी ही ज़मीन सिराथू से हार गए. अपनी हार से ठीक पहले उन्होंने ट्वीट किया जनता जीत रही है, गुंडागर्दी हार रही है. केशव बाबू आपको पहले भी बताया था कि जनता उतनी मूर्ख नहीं होती है जितनी आप समझते हैं.
यूपी चुनाव में एक और करेक्टर जो मुंह के बल गिरा है उसका नाम है स्वामी प्रसाद मौर्य. स्वामी प्रसाद मौर्य का बहुजन समाज पार्टी में बड़ा सम्मान था. वह कैबिनेट मंत्री रहे. सदन में नेता विधानमंडल दल रहे मगर चुनाव से पहले जब बीजेपी का पलड़ा भारी देखा तो बसपा सुप्रीमो पर आरोपों की झड़ी लगाते हुए पिछड़ों को इन्साफ दिलाने के लिए बीजेपी में आ गए. पांच साल मंत्री रहे लेकिन चुनाव से पहले जब हर तरफ अखिलेश की धुन सुनाई दी तो चुनाव से ठीक पहले बीजेपी पर वही आरोप लगाए जो बसपा पर लगाये थे. समाजवादी पार्टी में आ गए. पार्टी के स्टार प्रचारक भी बन गए. मर्जी की जगह से टिकट भी हासिल कर लिया.
अपना भविष्य सुरक्षित करने की कोशिश इतनी बुरी बात नहीं है लेकिन जिस पार्टी ने पद दिया, सम्मान दिया, उसी को चौराहे पर खड़े होकर कबाड़ी के हाथ नीलाम कर दिया. बीजेपी को सांप और खुद को नेवला बता दिया. मोदी और योगी को पटक-पटक कर मारने की बात कही. समाजवादी पार्टी से मिले हेलिकॉप्टर पर सवार होकर प्रदेश भर में बीजेपी की हार की दास्तान लिखने की कोशिश में लगे रहे. रिजल्ट आया तो जनता ने नकार दिया था. स्टार प्रचारक अपनी खुद की सीट भी बचा नहीं पाया था.
विधानसभा चुनाव को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती शुरू से ही सीरियस नहीं थीं. जब चुनाव सर पर आ गए तो टिकट बेचने की दुकान खोलकर बैठ गईं. कैडर वोट पर उन्हें बड़ा भरोसा था. दलित वोट उन्हें छोड़कर कहीं जा ही नहीं सकता, यह भरोसा तो उन्हें हमेशा ही रहा है, आखिर दलितों की रानी हैं वह. चुनाव लड़ने की उनकी दो ही वजह थीं एक तो टिकट बेचकर अपनी तिजोरी भरना दूसरे अखिलेश यादव को नुक्सान पहुंचाना. उन्होंने कहा भी कि जहाँ बसपा कमजोर हो वहां बीजेपी को वोट देना. समाजवादी पार्टी को हारना ही चाहिए.
दलित बेचारे क्या करते ? बहनजी ने कह दिया था तो जहाँ-जहाँ बसपा कमजोर मिली वह बीजेपी के पाले में चले गए. बसपा एक ही सीट पर मज़बूत मिली तो वहीं हाथी वाला बटन दबाया, बाकी जगह वोट बीजेपी को ट्रांसफर कर दिया. रिजल्ट आया तो करारी हार हो गई थी. करतीं क्या बेचारी. मुसलमानों के सर ठीकरा फोड़ दिया. कभी पॉवर में आयीं तो मुसलमानों को देखेंगी.
मुसलमानों को कुछ बीजेपी ने देखा, कुछ आप देख लीजियेगा. क्या फर्क पड़ता है. ज़रा एक बार अपनी दशा तो देखिये. कांशीराम के मूवमेंट को आपने किस तरह से बेचा है कि आज आपका दलित वोट भी आपका नहीं रह गया. कोई किसी को देखता तब है जब उसके हाथ में ताकत हो. आपके पास तो सिर्फ उम्मीदवारों से मिला धन ही है जो रात को भी डराता है और दिन को भी मुंह बंद रखने को मजबूर करता है.
वास्तव में यूपी का चुनाव बीजेपी बनाम समाजवादी पार्टी था. दूसरी कोई पार्टी थी ही नहीं. अखिलेश यादव विकास का मतलब समझते हैं. पढ़े-लिखे हैं. सबको साथ लेकर चलने का हुनर जानते हैं. सोशल इंजीनियरिंग की बारीकियां भी उन्हें अच्छे से आती हैं. नई उम्र के लोग उनमें अपना हीरो देखते हैं. नौजवान मन से चाहते हैं कि वह सरकार बनायें लेकिन सारी अच्छाइयों के बावजूद वह कई जगह पर चूक जाते हैं.
अखिलेश प्रेस कांफ्रेंस में नये पत्रकारों को ज़लील कर खुश होते हैं. जिन पत्रकारों को सरकार में रहते हुए फायदे पहुंचाते थे वह नई सरकार में फायदे लेने में लगे हैं. वह उन पत्रकारों की राय लेते हैं जो दूसरी पार्टियों को भी राय देते हैं. ज़मीनी हकीकत को समझने के लिए उनके पास अनुभवी लोगों की टीम नहीं है. उनके पास सारी सुविधाएं होते हुए भी आईटी सेल नहीं है. उनके पास अपना अखबार और अपना चैनल नहीं है. जो चैनल और अखबार उनके खिलाफ खड़े हैं उनके रिपोर्टर को ज़लील करने से जो तालियां बजती हैं उसी को वह अपनी जीत का असली गणित समझ लेते हैं.
सत्ता में दोबारा लौटने वाली बीजेपी फूल कर कुप्पा हो रही है. वह वोटों की गिनती खत्म होते ही 2024 की तैयारी में लग गई है. सच बात तो यह है कि सरकार बनाकर भी बीजेपी समाजवादी पार्टी से चुनाव हार गई है. 2017 में 312 सीटें जीतने वाली बीजेपी 2022 में 255 पर सिमट गई है. जबकि 2017 में 47 सीटों पर सिमट जाने वाली समाजवादी पार्टी 111 सीटों पर पहुँच गई है.
यहाँ पर यह कहना भी ज़रूरी है कि समाजवादी पार्टी ने वोटों की जो फसल काटी है दरअसल वह प्रियंका गांधी की जोती और बोई हुई फसल थी. जनता का सन्देश साफ़ है कि वोट उसे जायेगा जो जीत सके. जीत भी ऐसी जो सरकार बनाने की तरफ बढ़ा सके, त्रिशंकु विधानसभा की तरफ न ले जाये. जब प्रियंका सड़कों पर संघर्ष कर रही थीं, जब वह हाथरस और लखीमपुर जा रही थीं तब अखिलेश यादव भी जाग रहे होते तो आज मुख्यमंत्री होते. लोकसभा का चुनाव की तैयारी शुरू हो चुकी है. प्रियंका का यह संघर्ष लोकसभा में वोट में बदलेगा यह निश्चित है क्योंकि तब कांग्रेस विकल्प बन सकती है.
2024 में फिर चुनाव से गुजरना होगा. जनता ने इस चुनाव में बता दिया है कि वह समझदार हो गई है. जनता न गुंडागर्दी से डरेगी, न मज़हब के हिसाब से बंटेगी. न दलित बनकर बिकेगी, न मुसलमान बनकर भटकेगी. पंजाब में जनता ने बता दिया है कि आपस में जूतमपैजार करने से बेहतर है कि किसी कामेडियन को चुन लो, क्योंकि वह आम दिनों में भले ही हंसाता हो मगर मुश्किल घड़ी में भले ही सामने रूस खड़ा हो तो भी यूक्रेन कमजोर नहीं पड़ता है.