तालिबानी राज के बाद भारत में फिर सिर उठा सकते हैं जैश-लश्कर जैसे आतंकी संगठन

नई दिल्ली। अफगानिस्तान में एक बार फिर तालिबान का शासन आ गया है। राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर जा चुके हैं। सत्ता हस्तांतरण लगभग पूरा हो चुका है। इसके साथ ही उन लोगों के प्रयासों को गहरा धक्का लगा है, जो पिछले 20 साल से देश में लोकतंत्र की स्थापना की कोशिश में लगे हुए थे। इनमें अमेरिका, नाटो देशों के साथ ही भारत भी शामिल है। एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भारत के लिए आने वाला समय काफी मुश्किलभरा हो सकता है।

अफगानिस्तान में भारत के पास जो कूटनीतिक बढ़त थी वो खत्म हो सकती है। इस हलचल का असर दुनिया के जिन मुल्कों पर सबसे ज्यादा पड़ेगा उनमें भारत शामिल है।

भारत-अफगानिस्तान के रिश्ते किस तरह बदलने वाले हैं? भारत ने अफगानिस्तान के विकास पर जो खर्च किया है उसका क्या होगा? चाबहार प्रोजेक्ट का क्या होगा? क्या जैश और लश्कर जैसे संगठन भारत में फिर सिर उठा सकते हैं? आइए जानते हैं…

तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने से भारत पर असर क्या पड़ेगा?
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के कबीर तनेजा कहते हैं कि तात्कालिक तौर पर देखें तो भारत पर इस बदलाव का कोई खास असर नहीं पड़ने वाला। भारत अभी वेट एंड वॉच की स्थिति में है। पिछले चार-पांच दिन में भारत ने ऐसा कोई बयान जारी नहीं किया है कि जो किसी एक के पक्ष में या खिलाफ हो।

यहां तक कि भारत ने अब तक इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ बोला ही नहीं है। आने वाले समय में भारत तालिबान से किस तरह का संबंध रखना चाहेगा ये भी देखने वाला होगा। उससे ही काफी कुछ तय होगा।

पूर्व विदेश सचिव विवेक काटजू ने एक मीडिया हाउस से कहा कि अफगानिस्तान के मुद्दे पर भारत इस वक्त मुश्किल स्थिति में है। वो जमीनी हकीकत पर कोई असर नहीं डाल सकता है। 12 अगस्त को दोहा में हुई बैठक में सीधे तौर पर किसी एक पक्ष के साथ नहीं खड़े होकर भारत कूटनीतिक तौर पर हाशिए पर चला गया है।

कुछ और एक्सपर्ट्स कहते हैं कि आने वाले समय में भारत खुद को अफगानिस्तान में मुश्किल हालात में पा सकता है। भारत की अमेरिका से बहुत ज्यादा करीबी और पॉलिसी जजमेंट में हुई कुछ त्रुटियां इसके कारण हैं।

भारत ने अफगानिस्तान में पिछले 20 साल में जो निवेश किया उसका क्या होगा?
कबीर तनेजा कहते हैं कि भारत ने अफगानिस्तान में जो किया वो निवेश नहीं बल्कि मदद थी। हमने जो 3 बिलियन डॉलर खर्च किए, वो किसी रिटर्न के लिए नहीं थे। ये अफगानिस्तान के लोगों के लिए थे। उस मदद का क्या होगा, ये कहना मुश्किल है। पिछले 20 साल में भारत ने अफगानिस्तान में करीब 500 छोटी-बड़ी परियोजनाओं में पैसे खर्च किए हैं। इनमें स्कूल, अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र, बच्चों के हॉस्टल और पुल शामिल हैं।

भारत ने अफगानिस्तान के संसद भवन, सलमा बांध और जरांज-देलाराम हाईवे जैसी परियोजनाओं में काफी खर्च किया है। इस तरह की बड़ी मदद को तालिबान पूरी तरह से बर्बाद कर देगा ऐसा नहीं लगता। इससे अलग छोटे स्केल पर जो मदद है उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन उम्मीद कर सकते हैं कि ये सभी तालिबान के आने के बाद भी अफगानिस्तान के लोगों के काम आएंगे। वहीं, कुछ एक्सपर्ट कहते हैं कि तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान में चीन और पाकिस्तान का दखल बढ़ेगा। ये दोनों देश अफगानिस्तान में भारत का दखल जितना हो सके उतना कम करना चाहेंगे।

तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत का चाबहार प्रोजेक्ट कितना प्रासंगिक रह जाएगा?
ईरान का चाबहार बंदरगाह भारत को अफगानिस्तान और ईरान के साथ मध्य एशियाई देशों से जोड़ता है। भारत इस प्रोजेक्ट के जरिए अफगानिस्तान के साथ ट्रेड का सीधा रास्ता बनाना चाहता था। तनेजा कहते हैं कि अब इन परियोजनाओं का भविष्य क्या होगा ये कहना बहुत मुश्किल है, लेकिन आने वाले कई साल भारत के लिए आसान नहीं होने वाले हैं।

एक्सपर्ट कहते हैं कि आने वाले समय में अफगानिस्तान से कारोबार कराची और ग्वादर बंदरगाह के जरिए हो सकता है। ऐसे में चाबहार बंदरगाह पर भारत का निवेश अव्यावहारिक हो सकता है।

क्या तालिबान के आने से जैश और लश्कर जैसे संगठन भारत, खासतौर पर कश्मीर में फिर एक्टिव हो सकते हैं?
ये देखना होगा कि मुल्ला बरादर अफगानिस्तान की सत्ता में अहम पद पाता है या नहीं। बरादर कई साल तक पाकिस्तान की जेल में रहा है। उसे पाकिस्तान का मजबूत सपोर्ट है। ऐसे में जैश और लश्कर जैसे संगठन अगर अफगानिस्तान में आकर ट्रेनिग करना चाहेंगे तो उनके लिए बहुत मुश्किल नहीं होगी।

तालिबान के लड़ाकों के पास अमेरिका और नाटो देशों के साथ युद्ध का लंबा अनुभव है ऐसे में उन्हें इसका फायदा भी होगा। ये सभी स्थितियां भारत के लिए गंभीर खतरा खड़ा कर सकती हैं। आने वाले समय में इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

इस चुनौती से निपटने के लिए भारत के पास विकल्प क्या हैं?
भारत के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं। भारत को अगले कुछ हफ्तों या महीनों में ये तय करना होगा कि तालिबान के साथ कैसे रिश्ते चाहता है। क्या भारत सीधे संबंध बनाएगा या सेमी ऑफिशियल रहेगा या बैकडोर डिप्लोमेसी चलेगी। हालांकि, ये तय होने में अभी समय लगेगा।

कब और कैसे बना तालिबान?

  • अफगान गुरिल्ला लड़ाकों ने 1980 के दशक के अंत और 1990 के शुरुआत में इस संगठन का गठन किया था। ये वो दौर था जब अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्जा (1979-89) था। इन लड़ाकों को अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA और पाकिस्तान की ISI का समर्थन प्राप्त था।
  • अफगान लड़ाकों के साथ पश्तो आदिवासी स्टूडेंट भी इसमें शामिल थे। ये लोग पाकिस्तान के मदरसों में पढ़ते थे। पश्तों में स्टूडेंट को तालिबान कहते हैं। यहीं से इन्हें तालिबान नाम मिला।
  • अफगानिस्तान में पश्तून बहुसंख्यक हैं। देश के दक्षिणी और पूर्व इलाके में इनकी अच्छी पकड़ है। वहीं, पाकिस्तान के उत्तरी और पश्चिमी इलाके में भी पश्तूनों की बहुलता है।
  • सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद इस आंदोलन को अफगानिस्तान के आम लोगों का समर्थन मिला। आंदोलन की शुरुआत में इसे चलाने वाले लड़ाकों ने वादा किया कि उनके सत्ता में आने के बाद देश में शांति और सुरक्षा स्थापित होगी। इसके साथ ही शरिया के कानून को सख्ती से लागू किया जाएगा।
  • अपने विरोधी मुजाहिदीन ग्रुप से चले चार साल के संघर्ष के बाद अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हुआ। इसके साथ ही देश में सख्त शरिया कानून लागू हुआ। 1994 में तालिबान ने कंधार पर कब्जा किया। सितंबर 1996 में काबुल पर कब्जे के साथ ही अफगानिस्तान में तालिबान का पूरी तरह से नियंत्रण हो गया। इसी साल तालिबान ने अफगानिस्तान को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया। मुल्ला मोहम्मद उमर देश के आमिर-अल-मोमिनीन, यानी कमांडर बनाए गए।
  • 2001 से पहले अफगानिस्तान के 90% इलाके तालिबान के कब्जे में थे। इस दौरान शरिया कानून को सख्ती से लागू किया गया। महिलाओं को बुर्का पहनने को कहा गया। म्यूजिक और TV पर बैन लगा दिया गया। जिन पुरुषों की दाढ़ी छोटी होती थी उन्हें जेल में डाल दिया जाता था। लोगों के सामाजिक जरूरतों और मानवाधिकारों तक की अनदेखी की गई।

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