तो क्या असम में भाजपा के लिए गले की हड्डी बन गई है सीएए-एनआरसी?

नई दिल्ली। असम में इस साल मार्च-अप्रैल महीने में विधानसभा चुनाव होना है। सभी राजनीतिक दल चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं। जनसभा-रैलियों का दौर शुरु हो गया है। असम की सत्ता बचाए रखना भाजपा के लिए चुनौती है। भाजपा इसके लिए जी तोड़ मेहनत भी कर रही है। असम विधानसभा में कुल 126 सीटें हैं। 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 60 सीटें, असम गण परिषद को 14 सीटें, कांग्रेस को 26 और AIDUF को 13 सीटों पर जीत मिली थी।

भाजपा चुनाव मैदान में अपने उन्हीं पुराने मुद्दों के भरोसे है जिस पर वह अब तक चुनाव लड़ती आई है। लेकिन इस बार मोदी सरकार का एक फैसला उसके गले की हड्डी बनती दिख रही है। जनसभाओं में भाजपा नेता धारा 370, श्रीराम का मंदिर निर्माण, हिंदुत्व का जिक्र कर रहे हैं लेकिन सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर नहीं बोल रहे। इस मुददे पर भाजपा नेताओं ने चुप्पी साध रखी है।

राज्य के भाजपा नेता के साथ केंद्र के नेता भी इससे दूरी बनाए हुए हैं। बीते रविवार को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह असम दौरे पर थे। नलबाड़ी में विजय संकल्प समारोह में असम की जनता को संबोधित करते हुए शाह ने घुसपैठियों का जिक्र तो किया, लेकिन नागरिकता कानून का जिक्र नहीं किया।

शाह घुसपैठिओं पर बोले, धारा 370 पर बोले, बोडो शांति समझौते पर बोले, राम मंदिर पर बोले. केवल एनआरसी और सीएए पर नहीं बोले।

शाह ने इस मौके पर सवाल पूछते हुए कहा -आप लोग असम को घुसपैठ मुक्तबनाना चाहते हो या नहीं। ये कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल असम को घुसपैठियों से सुरक्षित रख सकते हैं क्या?

उन्होंने कहा-ये जोड़ी सारे दरवाजे खोल देगी और घुसपैठ को असम के अंदर सरल कर देगी, क्योंकि ये उनका वोट बैंक है। घुसपैठ को अगर कोई रोक सकता है, तो भारतीय जनता पार्टी की नरेंद्र मोदी सरकार रोक सकती है। हमने ये करके दिखाया।”

शाह यहीं नहीं रूके। आगे उन्होंने कहा कि “धारा 370, जिसे 70 साल से कोई छूने की हिम्मत नहीं करता था, 5 अगस्त 2019 को हमने इसे खत्म कर, कश्मीर को भारत के साथ जोडऩे का काम किया। 550 साल से प्रभु श्रीराम का मंदिर बनाने के लिए देश भर से आवाज उठती रही। किसी ने हिम्मत नहीं की। आपने दूसरी बार पूर्ण बहुमत से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने का मौका दिया, तो प्रभु श्रीराम के गंगनचुंबी मंदिर बनने की शुरुआत हो चुकी है।”

शाह के इस भाषण के बाद से सवाल उठना लाजिमी है। क्योंकि यह वही शाह हैं जो पहले ये कहते नहीं थकते थे कि “दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, जहां कोई भी जाकर बस सकता है। देश के नागरिकों का रजिस्टर होना, यह समय की जरूरत है। हमने अपने चुनावी घोषणा पत्र मे देश की जनता को वादा किया है। न केवल असम, बल्कि देश भर के अंदर हम एनआरसी लेकर आएंगे। एनआरसी के अलावा देश में जो भी लोग हैं, उन्हें कानूनी प्रक्रिया के तहत बाहर किया जाएगा।”

 

लेकिन चुनाव से पहले असम में जाकर अमित शाह को न तो उन्हें अपना घोषणा पत्र याद रहा और ना ही अपना पुराना बयान। जाहिर है यह चुनाव की वजह से ही है।

वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र दुबे कहते हैं-असम में जब अगस्त 2019 में एनआरसी लिस्ट जारी हुुई थी तो राज्य के 19 लाख लोगों को इससे बाहर रखा गया था, जिसमें 12 लाख बंगाली हिंदू वोटर हैं। इसका खूब विरोध हुआ था। इतना ही नहीं असम भाजपा सरकार ने भी इसका विरोध किया था। इसलिए चुनाव को देखते हुए भाजपा इससे दूरी बनाए हुए है। भाजपा एनआरसी की बात छेड़कर कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती।

वहीं वरिष्ठ  राजनीतिक पत्रकार सुशील वर्मा केंद्रीय गृहमंत्री शाह के भाषण से सीएए-एनआरसी के मुद्दे के गायब होने को भाजपा की रणनीति का हिस्सा बताते हैं।

उनके मुताबिक दोनों मुद्दों को अलग-अलग देखने की जरूरत है। एनआरसी का प्रभाव असम की सभी विधानसभा सीटों पर भले ना पड़े, लेकिन कुछ सीटों पर अवश्य पड़ेगा।

वह कहते हैं, “कम से कम 20 विधानसभा सीटों पर एनआरसी लिस्ट से बाहर लोगों का प्रभाव बहुत पड़ेगा और बीजेपी को नुकसान हो सकता है। इनमें से अधिकांश सीटों पर पिछले चुनाव में भाजपा का कब्जा था। इसलिए अमित शाह जानबूझ कर एनआरसी का जिक्र असम की रैलियों में नहीं कर रहे हैं।”

असम में मूल रूप से सुप्रीम कोर्ट की तरफ से एनआरसी को लागू किया गया था। इसके तहत साल 2019 के अगस्त महीने में  असम के नागरिकों का एक रजिस्टर जारी किया गया था। प्रकाशित रजिस्टर में करीब 19 लाख लोगों को बाहर रखा गया था। इसमें ऐसे कई बड़े-बड़े लोगों का नाम नहीं था जिन्होंने देश के बड़ा काम किया है।

दरअसल जिन लोगों का नाम आज एनआरसी लिस्ट में नहीं है, उनके मन में आज भी संशय है क्या पता एनआरसी का जिन्न कब निकल जाए और फिर दिक़्क़त खड़ी हो जाए। हालांकि असम में एनआरसी को लेकर सरकार ने कोई स्थिति स्पष्ट नहीं की है। हां, चुनाव आयोग ने जरूर सह कहा है कि जिन लोगों का नाम एनआरसी में नहीं है और वोटर लिस्ट में नाम है, वो विधानसभा चुनाव में वोट दे पायेंगे।

हालांकि अभी तक असम में सीएए-एनआरसी बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है लेकिन एक साल बाद अब एक बार फिर राज्य में आसू समेत असम के 18 प्रमुख संगठनों ने विवादास्पद इस कानून को निरस्त करने की मांग करते हुए राज्य भर में नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों को शुरू किया है।

अब देखना दिलचस्प होगा कि विपक्षी दल इसे हवा देकर कितना बड़ा मुद्दा बना पाते हैं और भाजपा के लिए कितनी मुश्किले खड़ी कर पाते हैं।

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