दिल्ली कब पाएगी अपने गुस्से पर काबू

आर.के. सिन्हा
दिल्ली का गुस्सा और बात-बात पर एक-दूसरे से लड़ने की मानसिकता उसके लिए बहुत भारी पड़ने लगी है। देश की राजधानी का अब तो लगता है कि हर शख्स टाइम बम बनकर चल रहा है। उसमें सहनशक्ति और धैर्य नाम की चीज खत्म होती जा रही है। आज जब दिल्ली की सड़कों पर कोरोना काल से पहले की तुलना में ट्रैफिक आधा भी नहीं रहा तब भी रोड रेज के मामले लगातार जारी हैं। दिल्ली की सड़कें देश के किसी भी महानगर की सड़कों की तुलना में ज्यादा चौड़ी हैं, पर पहले और जल्दी आगे निकल जाने की फिराक में लोग यातायात नियमों का पालन नहीं करते। फिर छोटी-छोटी बातों पर आपस में मारपीट करते रहते हैं।
अभी चंदेक रोज पहले आउटर दिल्ली में हुए एक रोडरेज में दो युवकों की चाकू गोदकर निर्मम हत्या कर दी गई। क्या आप यकीन करेंगे कि बाइक और स्कूटी के टच होने के महज 3 मिनट के अन्दर पूरी वारदात को अंजाम दिया गया? बाइक सवार दो लोगों ने स्कूटर सवार दो युवकों को तब तक चाकू से गोदा, जब तक दोनों ने दम नहीं तोड़ दिया। दोनों मृतकों के शरीर पर 50 से ज्यादा चाकू के घाव थे। वैसे, दोनों आरोपियों को पुलिस ने पकड़ भी लिया है। पर दो मासूम लोगों ने जान से तो हाथ धो ही दिया। मृतकों में एक बिहार के बेगूसराय का निवासी 20 वर्षीय घनश्याम था।
यह दिल्ली का पहला या अंतिम रोड रोज का केस नहीं है। रोज ही सड़कों पर लोग बार-बार लड़ते हुए दिखाई देते हैं। एक ने गलती की और दूसरे ने माफ किया, अब इस तरह की कोई बात नहीं रही। जिस दिन उपर्युक्त घटना हुई उसी दिन राजधानी में इंसानियत को शर्मसार करने वाली एक अन्य घटना भी सामने आई।
हुआ यह कि एक नीच पुत्र ने अपनी अबला वृद्धा मां को इतनी तेज से थप्पड़ मारा कि उसकी मौत हो गई। इस दिल दहलाने वाली घटना को सीसीटीवी कैमरे ने कैद भी कर लिया। इसे देखकर साफ समझ आ जाता है कि कैसे राक्षसी पुत्र ने अपनी 76 साल की बूढ़ी मां को थप्पड़ मारा और वह वहीं गिर गईं। मामला परिवार में चल रहे किसी मामूली विवाद का ही था।
आप कभी डीटीसी की बस में यात्रा कर के देख लें। आप देखेंगे कि अधिकतर रूटों पर चलने वाली बसों में सवारियों में आपस में या सवारियों का कंडक्टर से किसी मसले पर विवाद हो रहा होता है। आपको राजधानी दिल्ली में तिपहिया चालकों का अपनी सवारियों से भी मीटर से चलने, न चलने या किसी अन्य मसले पर भी अक्सर पंगा हो रहा होता है। बात गाली-गलौच तक पहुंच जाना सामान्य बात है।
नियमों का उल्लंघन करने और पकड़े जाने पर अपने को किसी बड़े नेता या पुलिस अफसर का करीबी होने का दावा करने में भी दिल्ली वाले नंबर वन हैं। यहां हरेक शख्स अपने को दूसरे से पैसे के स्तर पर इक्कीस साबित करने में लगा रहता है। जिसकी कोई जरूरत नहीं है।
एक तरफ तो दिल्ली में मुंबई की तरह कोई बड़े उद्योग-धंधे नहीं हैं, फिर भी इसी दिल्ली में लोग बाकी किसी भी शहर से अधिक मंहगी कारें खरीदते हैं, विदेशों में सैर-सपाटे और मस्ती के लिए यात्राएं करते हैं। फिर भी दिल्ली वालों को संतोष नहीं है। दिल्ली वाले कसकर पेट पूजा भी करते हैं।
अब इन्हें छोले-कुल्चे, राजमा-चावल, कढ़ी-चावल, बटर चिकन खाकर चैन नहीं पड़ता। इन्हें उत्तर भारतीय व्यंजनों के साथ-साथ दक्षिण भारतीय, चाइनीज, थाई, मैक्सिकन, इटालियन, मुगलई, गुजराती वगैरह व्यंजन भी चखने होते हैं। अगर ये सब उन्हें घर में उपलब्ध नहीं हैं, तब वे अपने घर के आसपास बने रेस्तरां का सहारा लेते रहते हैं। आप यह समझ लें कि इन्हें सबकुछ मिल रहा है, पर ये पता नहीं क्यों नाराज हैं, गुस्से में हैं।
दिल्ली रोज सुबह सैर से लेकर योग कर रही होती है। हरे-भरे पार्कों में लाखों दिल्ली वाले प्राणायाम कर रहे होते हैं। पर इसका असर इनके व्यवहार में दिखाई नहीं देता। ये जब अपने कामकाज से निकलते हैं तो इनके अंदर अलग तरह का मनुष्य प्रवेश कर जाता है। मुझे नहीं लगता कि दिल्ली से अधिक चेन झपटने या किसी से मारपीट करके उससे पैसे या अन्य कीमती सामान छीनने के मामले कहीं अधिक होते हों।
स्थिति यह है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी कैंपस में अध्यापक तक सुरक्षित नहीं हैं। जिस डीयू कैंपस को कभी सबसे अधिक सुरक्षित माना जाता था, वहां भी अब छीना-झपटी शुरू हो गई है। यह दिल्ली का सबसे सुरक्षित क्षेत्र माना जाता रहा है। कुछ दिन पहले डीयू के प्रतिष्ठित प्रोफेसर और विधानसभा के पूर्व सदस्य डॉ. हरीश खन्ना को शाम 5 बजे दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क के पास लफंगों ने लूट लिया।
उस समय वे वहां सैर कर रहे थे। एक लफंगे ने उन्हें कंधे से टक्कर मारी और फिर वह खन्ना साहब से उलझने लगा। इस बीच उसने एक हाथ से उनकी टांगों के बीच से और दूसरे हाथ से उनकी कमर के पीछे पकड़ कर गिराने की कोशिश की। तब तक उसका एक अन्य साथी मोटर साइकिल पर गलत दिशा से आया। फिर दोनों लफंगे मोटर साइकिल पर चले गए। खन्ना साहब ने जेब में हाथ डाला तो उनका पर्स गायब था। उसमे पांचेक हजार रुपए थे। कहां जा रही दिल्ली? किसी को कुछ नहीं पता।
दिल्ली को अगर श्रेष्ठ शहर के रूप में अपनी पहचान बनानी है तो उसे धैर्य तो रखना ही होगा। अगर किसी ने कुछ कह भी दिया तो उसे थोड़ा नजरअंदाज भी करना होगा। शांत और संतोषी बनने के गुण सीखने होंगे। यकीन मानिए कि हाल के वर्षों में दिल्ली की सारे देश में कोई बहुत आदर्श छवि विकसित नहीं हुई है। निर्भया कांड ने दिल्ली के बेहतरीन शहर की छवि को तार-तार कर दिया था। मैं दो-तीन साल पहले गोवा एयरपोर्ट पर दिल्ली की फ्लाइट का इंतजार कर रहा था।
एयरपोर्ट में मेरे साथ की कुर्सी पर एक गुजराती व्यापारी सज्जन सपत्नीक बैठे थे। वे मेरे से पूछने लगे कि क्या बढ़ते क्राइम के कारण अब दिल्ली में रहना मुश्किल हो गया है? मैं इस सवाल को सुनकर सन्न रह गया। मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि ऐसी बात नहीं है। हालांकि मुझे पता था कि मैं सच के ज्यादा करीब नहीं हूं।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here