दूर तलक जाएगा घोसी उपचुनाव के परिणाम का संदेश

यशोदा श्रीवास्तव

यूपी के घोसी उप चुनाव का संदेश बड़ा होगा। यह बीजेपी के लिए भी और इंडिया एलायंस के लिए भी। इस उपचुनाव परिणाम को आने वाले किसी चुनाव के लिटमस टेस्ट के रूप में भले न देखें लेकिन इसके व्यापक महत्व को नकारा नहीं जाना चाहिए। यही वजह है कि इसे जीतने के लिए भाजपा और सपा (इंडिया के संयुक्त उम्मीदवार)पूरी कोशिश में है।

मऊ जिले का घोसी विधानसभा क्षेत्र चुनाव के हर मौके पर सदैव ही चर्चा में रहा है। घोसी लोकसभा सीट भी है जिसकी नुमाइंदगी लंबे समय तक विकास पुरुष के नाम से मशहूर स्व.कल्पनाथ राय ने की है।

कांग्रेस से भी और निर्दल भी। इस विधानसभा क्षेत्र की खास बात यह है कि यह अल्पसंख्यक और बैंक वर्ड बाहुल्य विधानसभा क्षेत्र है। जहां सपा भाजपा और बसपा के विधायक चुने जाते रहे। 2012 में सुधाकर सिंह सपा से विधायक चुने गए थे जबकि 2017 में फागू चौहान भाजपा से जीते थे।

फागू चौहान कुछ ही समय बाद बिहार के राज्यपाल बना दिए गए तो यहां फिर उपचुनाव की नौबत आई थी। इस उपचुनाव में भाजपा के विजय राजभर चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे।

देखा जाए तो इस विधानसभा क्षेत्र पर लंबे समय तक फागू चौहान का ही कब्जा रहा। यह अलग बात है कि हर बार वे नई पार्टी से जीतते रहे हैं। 2017 का विधानसभा चुनाव भाजपा से जीतने के पहले वे बसपा में भी थे। उपचुनाव में सपा से भाजपा में आए दारा सिंह चौहान भाजपा के उम्मीदवार हैं।

फागू चौहान के प्रभाव वाले इस क्षेत्र में भाजपा को चौहान उम्मीदवार के लिए चौहान बिरादरी के वोटों पर भरोसा है। लेकिन चौहान बिरादरी में इस बात की चर्चा है कि आखिर फागू चौहान के विधायक बेटे राम बिलास चौहान भाजपा उम्मीदवार के लिए वोट मांगने क्यों नहीं आए?

फागू चौहान घोसी से भाजपा से विधायक चुने गए थे। कुछ ही माह बाद जब उन्हें राज्यपाल बनाया गया तो चर्चा तेज थी कि उनके बेटे राम बिलास को उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार बनाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

यहां से विजय राजभर को टिकट दिया गया और वे जीत भी गए। 2022 के चुनाव में भी फागू के बेटे को यहां से टिकट नहीं मिला। उन्हें मधुबन विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया गया जहां से वे बमुश्किल चुनाव जीत पाए। भाजपा उम्मीदवार दारा सिंह चौहान के पक्ष में राम बिलास का न आना उनकी नाराज़गी की दृष्टि से देखा जा रहा है।

दारा सिंह चौहान का भी पाला बदलने का रिकॉर्ड रहा है। लोकसभा और राज्यसभा में वे बसपा और कांग्रेस के जरिए गए। बसपा से 2014 का लोकसभा चुनाव हार जाने के कुछ ही दिन बाद वे भाजपा का दामन थाम लिए थे। 2017 में उन्हें मधुबन विधानसभा क्षेत्र से भाजपा का टिकट मिल गया, वे जीतकर योगी सरकार में मंत्री बन गए। 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा के जीतने की संभावना देख उन्होंने भाजपा छोड़ सपा का दामन थाम लिया। सपा ने भी इन्हें उपकृत किया। अपने परंपरागत उम्मीदवार सुधाकर सिंह को इग्नोर कर इन्हें टिकट थमा दिया। ये जनाब चुनाव जीत तो गए लेकिन सपा की सरकार न बन पाने से ये मंत्री बनने से वंचित रह गए।

सपा में वतौर विधायक वे किसी तरह साल भर तक तो काटे लेकिन अंततः सपा छोड़ भाजपा में चले ही गए। विधानसभा से इस्तीफा भी दे दिया। अब उपचुनाव में भाजपा से मैदान में हैं। चुनाव जीतने के बाद उनकी मंशा जाहिर है मंत्री पद की लालशा ही है।

निश्चित तौर पर यह कहना मुश्किल है कि घोसी उपचुनाव का परिणाम किसके पक्ष में जाएगा लेकिन इस बार कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिससे किसी के पक्ष में आम राय बनाना मुश्किल है।

मजे की बात है कि इस बार बसपा का उम्मीदवार मैदान में नहीं है। हो सकता है यह उसके उपचुनाव में उम्मीदवार न उतारने की रणनीति के तहत हो लेकिन वह अक्सर यहां से मुस्लिम उम्मीदवार ही उतारती है। संयोग हो सकता है कि इस बार बसपा अपना उम्मीदवार नहीं लड़ा रही है।

घोसी विधानसभा क्षेत्र में 80 हजार के आसपास मुस्लिम वोटर हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि बूथ पर गया इस वर्ग का एक एक वोट कहां पड़ेगा? राजभर वोटर भी यहां अच्छी खासी तादाद में है। 2022 में भाजपा से पराजित विजय राजभर को टिकट न देने का असर राजभर मतदाताओं में साफ दिख रहा है।

दारा सिंह चौहान स्थानीय भी नहीं है कि चौहान बिरादरी में उनका अपना कुछ असर हो लेकिन सवर्ण वोटर भाजपा के साथ तो है लेकिन ठाकुर मतदाताओं का मत भाजपा के इतर होने की पूरी संभावना है।

फिलहाल घोसी उपचुनाव का परिणाम चाहे जो हो इसके संदेश का असर दूर तलक जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इस उपचुनाव की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मतदान के अंतिम दिनों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी घोसी आना पड़ा जबकि इसके पहले सपा मुखिया अखिलेश यादव भी यहां आकर अपने उम्मीदवार सुधाकर सिंह के लिए वोट की अपील कर गए।

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