ऋतुपर्ण दवे
इसमें शक नहीं कि कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। उसके बाद भी चिंतन करना बताता है कि उम्मीदें बाकी हैं। चिंतन से ही सार निकलता है। लेकिन क्या कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर में सिवाय शीर्ष नेताओं की मौजूदगी और उनके बनाए स्क्रिप्ट के अलावा धरातल की विषय वस्तु पर भी विचार हुआ होगा? मुझे एकाएक शरद जोशी का चर्चित और पुराना व्यंग्य याद आ गया, जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर तगड़ा कटाक्ष किया था। 1977 में तब कांग्रेस की तीस साल की हुकूमत के मौके पर लिखा व्यंग्य- ‘तीस साल का इतिहास’ जो उनकी पुस्तक ‘जादू की सरकार’ में संकलित है, बड़ा लोकप्रिय हुआ।
उदयपुर में संगठन को लेकर किस तरह की चिंता की गई यह तो अंदरखाने की बात है लेकिन देश के लिए जो संदेश निकला उसमें युवाओं का नष्ट होता भविष्य, बेरोजगारी, जबरदस्त मंहगाई, मुद्रा स्फ़ीति और रूस-यूक्रेन युध्द के असर पर पूरा ध्यान केन्द्रित दिखाया गया। कांग्रेस कुछ राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों के साथ 2024 की रणनीति में अभी से जुटी लग रही है, जो ठीक भी है।
लेकिन क्या 2 अक्टूबर गांधी जयन्ती से भारत जोड़ो पदयात्रा कर पार्टी का जनता के बीच जाने का ऐलान लोगों से पुराना रिश्ता दोबारा जोड़ पाएगा? कांग्रेस कितनी सफल होगी वक्त बताएगा। लेकिन जिस तरह से भाजपा अपनी सर्वोच्च लोकप्रियता के शिखर पर नित नए कीर्तिमान बनाती जा रही है वैसा कुछ कांग्रेस में कभी दिखा नहीं।
हो सकता है तब लोगों की सोच और समझ अलग रही हो, न सोशल मीडिया का जमाना था और न न्यूज चैनलों की भरमार थी। चुनिंदा विकल्पों पर निर्भरता से लोगों की बातें भी एक-दूसरे तक खुलकर नहीं पहुंच पाती थीं। आज परिस्थितियां एकदम अलग हैं।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने देश के लिए किया कुछ नहीं। कांग्रेसी हुकूमत में देश ने कई कीर्तिमान और आर्थिक मोर्चों पर जबरदस्त सफलता पाई। उतार-चढ़ाव के बावजूद दुश्मनों ने भारत की ताकत का लोहा माना। कुछ लादे तो कुछ जबरन थोपे युध्दों ने भी बेहद मजबूत किया। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नीतियों ने बुरे दौर में भी देश को संभाले रखा। लेकिन कांग्रेस ने हमेशा एक ही गलती की थी कि संगठन और लोगों के बीच जुड़े रहने की जहमत नहीं उठाई।
इसे चाहे लगातार सत्ता में बने रहने की खुमारी कहें या सत्ता सुख भोग चुके नेताओं की अनदेखी तब इस बारे में चिंतन नहीं किया गया कि क्यों कांग्रेस से लोग छिटकते जा रहे हैं? आम व नए मतदाताओं की रुचि क्यों घट रही है? स्पष्ट बहुमत तक न पहुंच पाने पर ईमानदार आत्ममंथन या चिंतन का साहस क्यों नहीं हुआ?
सब कुछ जानते हुए भी इससे एकदम बेखबर कांग्रेस की, बजाए खुद को जनता के बीच मजबूत बनाए रखने के गठबंधन जरिए सरकार में बने रहने की दिलचस्पी ज्यादा थी। नतीजा सामने है ऐसे ही पेंचों में फंसकर कांग्रेस दिनों दिन कमजोर होती चली गई। देश की बड़ी पार्टियों में शुमार होने के बावजूद लोग अब दूसरों को कांग्रेस के विकल्प के रूप में देखने और सोचने लगे हैं।
यूँ तो 1967 में कांग्रेस के वर्चस्व को पहली चुनौती मिली और यह सिलसिला किसी न किसी रूप में लगातार चलता रहा। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर में कांग्रेस ने एकबार फिर सारे कीर्तिमान ध्वस्त करते हुए 415 लोकसभा सीटें जीतकर जो रिकॉर्ड बनाया वह इस तरह ध्वस्त होगा किसी ने नहीं सोचा होगा। 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव से लेकर इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के दौर तक कांग्रेस को कोई दूसरी पार्टी टक्कर नहीं दे सकी।
बीच में 1977 में इंदिरा गांधी की सरकार गिरी भी तो बहुत जल्द वापसी कर ली। लेकिन न तब और न अब जनता के बीच घुसपैठ बनाने को लेकर पार्टी कभी गंभीर दिखी। हां, पिछले दो आम चुनावों में कांग्रेस का ऐसा बुरा हाल हुआ कि उसे मुख्य विपक्षी दल का दर्जा मिलना भी मुश्किल हो गया।
देश के मजबूत लोकतंत्र की हिमायती जनता भी चाहती है कि निरंकुश कोई भी दल न हो पाए। इसलिए समय-समय पर जबरदस्त प्रयोग करती है। केन्द्र में भले भाजपा को खासा बहुमत देकर बिठाया हो लेकिन राज्यों में अलग-अलग जनादेश देकर मजबूत लोकतंत्र बनाया है।
गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा, मणिपुर में भाजपा की सरकारें हैं तो बिहार, नागालैण्ड, मेघालय, पुड्डूचेरी में भाजपा के सहयोग से क्रमशः जनता दल यूनाइटेड, नेशनल डेमोक्रेटिव प्रोग्रेसिव पार्टी, नेशनल पीपुल्स पार्टी, ऑल इण्डिया नमथु राजियाम काँग्रेस की सरकार काबिज हैं।
इसके बरअक्स केवल दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं तो महाराष्ट्र और झारखण्ड में क्रमशः शिवसेना और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा कांग्रेस के सहयोग से काबिज है। वहीं, दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी, ओडीशा में बीजू जनता दल, केरल में सीपीएम, प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, आंध्र पदेश में वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति, सिक्किम में सिक्किम क्रान्तिकारी मोर्चा, मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रन्ट तो तमिलनाडु में डीएमके सत्तारूढ़ है।
इसके राजनीतिक मायने चाहे जो भी निकाले जाए लेकिन यह हमारे परिपक्व और मजबूत लोकतंत्र की जबरदस्त खूबसूरती और मजबूती है जिससे दुनिया भर में सबसे बड़े लोकतंत्र की चर्चा होती है, उदाहरण दिए जाते हैं।
हो सकता है कांग्रेस भी देर आयद, दुरुस्त आयद की तर्ज पर उदयपुर नव चिंतन शिविर में मंथन से वो अमृत निकालना चाह रही हो जिससे एकबार फिर सब ठीक होने लगे। लेकिन सवाल वही कि मंथन से निकले जहर को पिएगा कौन? जो दिख रहा है उससे तो यही लगता है आरामतलब और फाइव स्टार कल्चर में ढल चुके अधिकतर कांग्रेसी सेवादल, युवक कांग्रेस, महिला कांग्रेस के उस दौर को फिर जिन्दा कर पाएंगे जहां बड़े-बड़े शिविर और बैठकें जमीन पर होती थीं। पद प्रभाव या जुगाड़ से नहीं बल्कि क्षमतावानों, ऊर्जावानों को ढ़ूंढ़कर दिया जाता था।
आज परिस्थियां ठीक उलट हैं। देश, राज्य, जिलों में कांग्रेस के शीर्ष लंबरदारों को भले ही न दिखे, लेकिन पब्लिक सब जानती है कि उनके नगर, शहर या वार्ड का कौन-सा काँंग्रेसी, पार्टी के प्रति कितना आस्थावान है? कौन विज्ञप्तिवीर है जो ऊंचे पदों पर बैठे आकाओं के चरण वंदन के सहारे और प्रायोजित या पेड न्यूज से खुद को महिमामंडित करा पार्टी में सुशोभित है।
चिंतन शिविर में इस पर भी कुछ मनन हुआ हो तो अच्छा है वरना ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुनील जाखड़ की उपेक्षाओं के उदाहरण सामने हैं। भले ही राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस परिवारवाद के आरोपों से घिरी हो लेकिन सच को स्वीकारना होगा कि भाजपा में तय समय में देश से लेकर नगर तक पार्टी की कमान नए चेहरे को देकर जिस तरह लोगों को जोड़ा जा रहा है और कार्यकर्ताओं की फौज तैयार हो रही है वो गजब की सोशल इंजीनियरिंग है। जबकि कांग्रेस उन्हीं चेहरों से बाहर नहीं निकल पा रही है।
स्व. शरद जोशी भी अपना लिखा पढ़ ठहाके लगा रहे होंगे- “कभी देश आगे बढ़ा, कभी कांग्रेस आगे बढ़ी, कभी दोनों आगे बढ़ गए, कभी दोनों नहीं बढ़ पाए, फिर यूं हुआ कि देश आगे बढ़ गया और कांग्रेस पीछे रह गई। यह कांग्रेस की महायात्रा है, खादी भण्डार से आरंभ हुई और सचिवालय में समाप्त हो गई।” लोकतंत्र के लिए मतदाता की नकेल अहम है। काश, कांग्रेस समझती और इस भ्रम से बाहर आ पाती कि लोकतंत्र को कम से कम दो मजबूत पार्टियों की जरूरत है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)