नई शिक्षा नीति और ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ से आती अप्रिय गंध

शिव कुमार दास

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यह बेशर्मी तो थी ही लेकिन किंचित ‘लुभावनी’ भी, और मान लेना चाहिए कि शायद यही मुख्यमंत्री एम के स्टालिन की ओर से ‘’ब्लैकमेल” जैसे तल्ख आरोप का कारण बना… कुछ लोगों को लगा होगा कि केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान वही कहेंगे जो उन्होंने वाराणसी में काशी तमिल संगमम को संबोधित करते वक्त कहा था: उन्होंने खुले तौर पर कहा था कि तमिलनाडु को समग्र शिक्षा अभियान (एसएसए) के तहत धन तब तक नहीं मिलेगा, जब तक कि वह नई शिक्षा नीति (एनईपी) और इसके ‘त्रिभाषा’ फॉर्मूले को स्वीकार नहीं कर लेता।

फरवरी के दूसरे हफ्ते के अंत में केंद्रीय मंत्री की इस धमकी ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को छोड़ राज्य की अन्य सभी पार्टियों को एक साथ खड़ा कर दिया। ‘इंडिया’ ब्लॉक से जुड़ी पार्टियां केंद्र से अपनी धमकियां वापस लेने की मांग करते हुए विरोध प्रदर्शन पर उतर आईं और मंगलवार 18 फरवरी को हजारों लोग इसके विरोध में चेन्नई में एकत्र हुए।

तमिलनाडु ने कहा है कि इस योजना के तहत उस पर 2,152 करोड़ रुपये का बकाया है और याद दिलाया है कि लगभग 40 लाख छात्र और 32,000 शिक्षक इससे प्रभावित हैं। अपने दक्षिणी पड़ोसियों के साथ तमिलनाडु का भी लगातार आरोप रहा है कि केंद्रीय करों का हस्तांतरण अनुचित था और यह राज्य से एकत्र किए जाने वाले करों के अनुरूप नहीं है। 

दक्षिणी राज्य लंबे समय से शिकायत करते रहे हैं कि उनके हिस्से से आने वाले राजस्व का आवंटन साल-दर-साल उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पिछड़े उत्तरी राज्यों को असंगत रूप से कर दिया जाता रहा है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दावा है कि राज्य सरकार ने महाकुंभ मेले में 7,500 करोड़ रुपये खर्च किए हैं और माना जाता है कि केंद्र सरकार ने भी इसके लिए इतनी ही राशि खर्च की है, लेकिन उनकी इस बात ने उनकी पेशानी पर बल डाल दिए कि यूपी को इससे 3 लाख करोड़ रुपये वापसी (कमाई) की उम्मीद है। वे पूछ रहे हैं कि अगर यूपी के पास इतना ही पैसा है, तो दक्षिणी राज्यों को मामूली आधार पर उनके हिस्से के जरूरी फंड से क्यों वंचित रखा जाए?

विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व सत्तारूढ़ द्रमुक (डीएमके) ने किया था जिसका 2020 की एनईपी को लेकर केंद्र के साथ विवाद चल रहा है। उपमुख्यमंत्री और स्टालिन के उत्तराधिकारी उदयनिधि स्टालिन ने तो साफ शब्दों में कह दिया कि राज्य केंद्र के अधीन नहीं है और किसी भी तौर पर अपने अधिकारों से पीछे नहीं हटेगा। उन्होंने केन्द्र द्वारा रोकी गई धनराशि जारी न करने पर एक और ‘भाषा युद्ध’ की चेतावनी भी दे डाली।

प्रदर्शन में एमडीएमके (वाइको), सीपीआई, सीपीएम और गठबंधन के अन्य नेताओं के साथ शिक्षा मंत्री अंबिल महेश और सांसद टीआर बाल जैसे वरिष्ठ द्रमुक मंत्री भी मौजूद रहे। एक के बाद एक सभी नेताओं ने धनराशि न मिलने पर राज्य में आक्रोश बढ़ने की चेतावनी तो दी ही, बीजेपी से गौर करने और अपने तौर-तरीके बदलने को भी कहा।

पूर्व वित्त मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम ने कहा कि प्रधान का अहंकार सबूत है कि उन्हें तमिल इतिहास और तमिलों की भावनाओं की समझ नहीं है। उन्होंने कहा कि शिक्षा नीति तैयार करना राज्य का विशेषाधिकार है, और राज्य को मिलने वाली धनराशि रोकने का केंद्र सरकार के पास कोई अधिकार नहीं है। (शिक्षा मूल रूप से राज्य का विषय था, लेकिन इसे समवर्ती सूची में डालने के लिए संविधान में संशोधन किया गया)। उन्होंने बीजेपी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि बीजेपी शासित हिंदी भाषी राज्य ‘एक भाषा’ नीति की राह पर चल पड़े हैं। तमिलनाडु के परिवहन मंत्री एस एस शिवशंकर ने भी यही बात दोहराई, और आरोप लगाया कि हिन्दी भाषी राज्यों में छात्र सिर्फ हिन्दी सीखते हैं।

मुख्यमंत्री स्टालिन ने बीजेपी पर ‘जोर-जबरदस्ती’ और ‘धमकी’ देने का आरोप लगाते हुए कहा कि उसके द्वारा उकसावे की लंबी सूची है जिसमें केन्द्रीय बजट में राज्य के साथ सौतेला व्यवहार, राज्यपाल आर.एन. रवि की निरंतर शत्रुता के बाद अब त्रिभाषा नीति के माध्यम से हिन्दी थोपना नई कड़ी है। राज्य यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) नियमों के मसौदे का भी विरोध करता है जिसका मकसद विश्वविद्यालयों को विनियमित करके राज्यों की शक्ति को कमजोर करना है। मुख्यमंत्री ने यह भी पूछा कि संविधान के किस अनुच्छेद में त्रि-भाषा नीति को अनिवार्य करने की बात कही गई है।

डर इस बात का है कि त्रि-भाषा नीति, राज्य के गले में हिंदी को थोपने का एक तरीका है जो राज्य में व्यापक आक्रोश और नाराजगी का कारण बन रहा है। हालांकि एनईपी का त्रि-भाषा फॉर्मूला- जिसके तहत छात्र अंग्रेजी के अलावा राज्य भाषा सहित दो क्षेत्रीय भाषाएं सीखते हैं- उसमें स्पष्ट रूप से हिंदी का उल्लेख नहीं है, तमिल पार्टियों को डर है कि बीजेपी इसे पिछले दरवाजे से थोपना चाहती है।

राज्य में हिंदी विरोधी भावना का एक लंबा इतिहास है जो 1930 के दशक से शुरू होता है, जब जस्टिस पार्टी ने 1937-38 में तत्कालीन मद्रास प्रांत के प्रधानमंत्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) के नेतृत्व में माध्यमिक विद्यालयों में हिंदी शुरू करने की कोशिशों के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन शुरू किए थे।

राजाजी की जीवनी ‘द राजाजी स्टोरी’ में उनके पोते राजमोहन गांधी ने लिखा है कि ‘इरादा कक्षा 6-7 के छात्रों को भाषा से परिचित कराने का था, लेकिन शर्त यह भी लगाई गई थी कि उत्तीर्ण न होने पर भी प्रोन्नति में बाधा नहीं आएगी। राजाजी ने यह बताने के लिए ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द को प्राथमिकता दी कि इसमें उर्दू शब्द भी शामिल होंगे, और इसे देवनागरी या अरबी लिपि में सीखा जा सकता है। ‘द हिन्दू’ के अनुसार, राजाजी ने इस विचार को ‘पत्ते पर चटनी’ के रूप में माना था, जिसे चखा जा सकता था या फिर छोड़ भी दिया जा सकता था।

ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले ईवी रामासामी नायकर या पेरियार जैसे लोकप्रिय तर्कवादी नेता इस आंदोलन में सबसे आगे थे। दो गिरफ्तार छात्रों की पुलिस हिरासत में मौत के बाद प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया। राजाजी सार्वजनिक विरोध से प्रभावित होने वाले व्यक्ति नहीं थे और उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। लेकिन 1939 में राजाजी ने इस्तीफा दे दिया और बाद में मद्रास के गवर्नर लॉर्ड एर्स्किन ने अपना आदेश वापस ले लिया।

इस मुद्दे पर संविधान सभा में जोरदार बहस हुई जिसके बाद हिंदी को अंग्रेजी के साथ आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया गया और 1965 तक 15 वर्षों की अवधि के लिए इसका इस्तेमाल जारी रहा। हिंदी को लागू करने के विरोध में यूं तो कई गैर-हिन्दी राज्य थे, लेकिन तमिलनाडु में यह विरोध अपनी पूरी मजबूती से सामने आया।

अंग्रेजी को सहयोगी भाषा के रूप में जारी रखने की अनुमति देने के लिए जवाहरलाल नेहरू 1963 का राजभाषा अधिनियम लेकर आये। लेकिन अनेक लोग इससे आश्वस्त नहीं थे और द्रमुक ने मुद्दा गरम बनाए रखने के लिए इसपर लगातार अभियान जारी रखा। पार्टी ने जनवरी में ‘सीधी कार्रवाई’ का आंदोलन शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप सीएन अन्नादुराई या अन्ना की गिरफ्तारी ने आग भड़काने वाली चिंगारी का काम किया; इस बीच चेन्नई (तब मद्रास) में डीएमके के दो युवाओं ने आत्मदाह कर लिया और आग तेजी से फैल गई। पुलिस को दंगाई भीड़ पर गोली चलानी पड़ी, जिसमें कई लोग हताहत हुए और एक भयावह घटना में भीड़ ने एक पुलिस उप-निरीक्षक को जिंदा जला दिया।

प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री इस सब से हिल गए और उन्होंने प्रदर्शनकारियों को आश्वासन देकर शांत रहने की अपील की कि अंग्रेजी अनिश्चित काल तक सहयोगी आधिकारिक भाषा बनी रहेगी। स्थिति जल्द ही सामान्य तो हो गई, लेकिन द्रमुक 1967 के चुनावों में सत्ता में आने के लिए हिन्दी विरोधी आंदोलन का फायदा उठाने में सक्षम रहा, जिससे राज्य में द्रविड़ पार्टी के शासन के लंबा चलने वाले दौर की शुरुआत हुई। अन्नादुराई (करुणानिधि ने 1969 में उनकी मृत्यु के बाद सत्ता संभाली) के नेतृत्व वाली नई द्रमुक सरकार के शुरुआती कामों में से एक, राज्य के लिए द्वि-भाषा (तमिल और अंग्रेजी) फॉर्मूला लागू करना था, जो आज भी जारी है।

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