नेपाल में सुनहरे रंग वाले कछुए की खोज हुई है। कछुए के इस दुर्लभ रंग बदलने की वजह जेनेटिक म्यूटेशन है। इसके कारण स्किन को रंग देने वाला पिगमेंट बदल गया है। नतीजा, यह सुनहरा दिखाई दे रहा है। नेपाल के टॉक्सिनोलॉजी एसोसिएशन के एक अधिकारी के मुताबिक, नेपाल में इस कछुए में ‘क्रोमैटिक ल्यूसिज़्म’ का यह पहला और दुनियाभर का केवल पांचवां मामला है।
क्या होता है क्रोमैटिक ल्यूसिज्म
क्रोमैटिक ल्यूसिज़्म उस स्थिति को कहते हैं, जब शरीर को रंग देने वाला तत्व ही बिगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में स्किन सफेद, हल्की पीली या इस पर चकत्ते पड़ जाते हैं। लेकिन नेपाल में मिले कछुए में पीला रंग अत्यधिक बढ़ गया है। इसलिए यही रंग हावी है और यह सुनहरा दिख रहा है।
पहली बार इस रंग का कछुआ दिखा
इसे पहली बार देखने वाले रेप्टाइल एक्सपर्ट कमल देवकोटा कहते हैं, मैंने पहली बार इस रंग का कछुआ देखा है। नेपाल में ‘क्रोमैटिक ल्यूसिज़्म’ का यह पहला मामला है। यह काफी अलग किस्म की खोज है।
नेपाल टॉक्सिनोलॉजी एसोसिएशन के विशेषज्ञ कमल देवकोटा के मुताबिक, रेंगने वाले जीवों का आध्यात्मिक महत्व अधिक होता है। सिर्फ सुनहरे जीव ही नहीं कछुए को भी नेपाल में धार्मिंक नजरिए से देखा जाता है और इसे लेकर काफी मान्यताएं हैं।
कमल देवकोटा के मुताबिक, ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु ने ब्रह्मांड को विनाश से बचाने के लिए कछुए का रूप धरा था। हिन्दु मान्यताओं के मुताबिक, कछुए के ऊपरी हिस्से को आकाश और निचले हिस्से को धरती माना जाता है।
नेपाल में कछुए की 16 प्रजातियां, इनमें 4 विलुप्ति की कगार पर
नेपाल में 16 तरह की कछुए की प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें 4 ऐसी हैं जो विलुप्ति की कगार पर हैं। इनमें तीन स्ट्रिप वाला रूफ्ड कछुआ, रेड क्राउन रूफ्ड कछुआ, इलॉन्गेटेड कछुआ और पतले सिर वाला सॉफ्टशेल कछुआ शामिल है।
एक रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक, कछुए कीट और मरे हुए जानवरों को खाकर प्रदूषण रोकने में बड़ा रोल निभाते हैं। दवाओं में इसका इस्तेमाल होने के कारण कछुओं की तस्करी भी बढ़ रही है। नतीजा, इनकी संख्या घट रही है। कुछ लोगों में यह धारणा है कि कछुए और इसके अंडे खाने से स्वास्थ्य बेहतर होता है और उम्र बढ़ती है।