संभल में हाल ही में पांच मुसलमानों की हत्या के कारण व्यापक आक्रोश है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, इस बात को लेकर कई तरफ उंगलियां उठ रही हैं। एक वर्ग ऐसा भी है जो इसके लिए कुछ ही दिन पहले रिटायर हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ को जिम्मेदार ठहराता है। माननीय चंद्रचूड़ की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन सबसे पहले उनकी बात करते हैं जो सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं- आज की सत्ता में बैठे लोग और वे संस्थाएं जिनका काम कानून का राज बनाए रखने, सार्वजनिक सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा सभी नागरिकों के जीवन की रक्षा करने का है।
संभल प्रशासन का दावा है कि पीड़ितों की मौत पुलिस की गोलियों से नहीं हुई। लेकिन यह दावा सवालों के घेरे में है क्योंकि सर्किल अधिकारी ने उत्तेजित मुसलमानों पर गोली चलाने की बात स्वीकार की है। सबसे पहले तो आरोप नागरिक और पुलिस प्रशासन पर आता है जिन्होंने भड़काऊ नारे लगाती भीड़ को शाही मस्जिद तक जाने दिया। उनके रुख ने पहले से ही तनावपूर्ण हालात को और गंभीर बना दिया; लोगों के गुस्से को शांत करने के बजाय उन्होंने आग में घी डाल दिया।
मस्जिद ‘सर्वेक्षण’ के फैसले की भी समीक्षा होनी चाहिए। स्थानीय सिविल न्यायाधीश ने मस्जिद समिति का पक्ष जाने बिना सर्वेक्षण का आदेश दे दिया जो निर्धारित प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लंघन है। जिस जल्दबाजी में अदालती कार्यवाही हुई, उससे वकील और न्यायविद भी हैरान रह गए। सर्वेक्षण सिर्फ सात दिनों में पूरा होना था और आदेश जारी होने के चंद घंटों के भीतर ही वरिष्ठ अधिकारियों ने दल-बल के साथ काम शुरू भी कर दिया! ऐसे मामलों में इस तरह की तत्परता नहीं देखी जाती और इससे ऐसा लगता है कि यह लोगों को भड़काने का एक समन्वित प्रयास था।
इसके बाद 24 नवंबर को सर्वेक्षण का काम जिस तरह आगे बढ़ाया गया, वह तो और भी ज्यादा परेशान करने वाला है। सर्वेक्षक के साथ लोगों की भीड़ भी थी। (यह कोई हैरानी की बात नहीं है क्योंकि एक दिन पहले ही राज्य में हुए उपचुनाव के नतीजे आए थे।) वीडियो सबूतों से पता चलता है कि पुलिस अधिकारी भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश करने के बजाय उनकी मदद ही कर रहे थे। जाहिर है, यह प्रशासनिक कार्रवाई निष्पक्ष नहीं बल्कि मस्जिद पर राज्य समर्थित आक्रमण जैसी थी।
बड़ा सवाल यह भी है कि सर्वेक्षण की मांग करने वाले याचिकाकर्ता को सर्वेक्षण दल के साथ जाने की अनुमति क्यों दी गई? साफ है कि अदालत की रुचि निर्धारित प्रक्रिया के पालन में नहीं थी और उसने बेहद पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया। यह भी उतना ही स्पष्ट है कि प्रशासन ने तनाव को बढ़ाने में भूमिका निभाई। उसने स्थानीय लोगों को भरोसे में लेने का कोई प्रयास नहीं किया और फिर जब उन्होंने विरोध शुरु किया तो उन्हें चुप कराने के लिए पूरी ताकत का इस्तेमाल किया।
जिला मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक और सर्किल अधिकारी के बयान कोई दिलासा नहीं दिलाते। उनमें से किसी ने भी जानमाल के नुकसान पर खेद नहीं जताया। पीड़ितों के लिए उनकी भाषा ऐसी थी जैसे वे इंसान ही न हों और अधिकारियों ने उन्हें सुरक्षा के हकदार नागरिक के बजाय दुश्मन माना।
निःसंदेह पहली जिम्मेदारी जमीनी स्तर के प्रशासनिक अमले की बनती है लेकिन संभल के पीड़ितों के खून ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की विरासत को भी दागदार कर दिया है। उनके कार्यों ने ऐसा कानूनी माहौल बनाया जिसने संभल को संभव बनाया
यह चंद्रचूड़ ही थे जिन्होंने तथाकथित ‘उत्सुकता के न्यायशास्त्र’ को वैध बनाया जिससे देश भर में मस्जिदों के सर्वेक्षणों का रास्ता खुल गया। वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद का मामला इसका एक प्रमुख उदाहरण है। हिन्दुओं ने दावा किया था कि उन्हें यह साबित करने के लिए कि वह एक मंदिर था, ‘मस्जिद की शैली की जांच’ करने की जरूरत है। बावजूद इसके कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 जो स्पष्ट रूप से धार्मिक स्थलों के 15 अगस्त 1947 की स्थिति को बदलने पर रोक लगाता है, चंद्रचूड़ ने ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वेक्षण की इजाजत दे दी।
पूजा स्थल अधिनियम खास तौर पर ऐसे ही सांप्रदायिक संघर्ष को रोकने के लिए बनाया गया था। बीजेपी के राम जन्मभूमि अभियान से अवगत कानून निर्माता यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि किसी भी धार्मिक स्थल को विवाद का विषय न बनाया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने भी अयोध्या मामले पर फैसला सुनाते समय इस अधिनियम के महत्व को लेकर महज दिखावटी बातें कीं। चंद्रचूड़ उस पांच न्यायाधीशों की पीठ में थे जिसने यह दुर्भाग्यपूर्ण फैसला सुनाया और माना जाता है कि उन्होंने ही ऐसे फैसले की पटकथा लिखी। कोई हैरानी नहीं कि उन्होंने यह तर्क देते हुए कि संरचना की ‘वास्तविक प्रकृति’ के बारे में जानना 1991 के अधिनियम का उल्लंघन नहीं करता, ज्ञानवापी सर्वेक्षण की अनुमति देकर इस अधिनियम को फिर से नजरअंदाज कर दिया। यह एक ऐसी सपाट व्याख्या थी जो बेहद खतरनाक थी।
जैसा कि अनुमान था, सर्वेक्षण ने और भी दावों को हवा दे दी। हिन्दुओं ने घोषणा की कि उन्हें ज्ञानवापी मस्जिद के वजूखाने में शिवलिंग मिला है जिसके कारण चंद्रचूड़ ने इसे सील करने का आदेश दे दिया। इसने मस्जिद की स्थिति को प्रभावी रूप से बदल दिया क्योंकि चंद्रचूड़ के फैसले से इसका एक हिस्सा मुस्लिमों के लिए बंद हो गया। इससे प्रेरित होकर निचली अदालत ने बाद में मस्जिद के दूसरे हिस्से में पूजा की भी अनुमति दे दी। इस तरह जो मामला एक सर्वेक्षण की शक्ल में शुरू हुआ, वह मस्जिद का चरित्र बिगाड़कर 1991 के अधिनियम की भावना को ताक पर रखने वाला साबित हुआ।
चंद्रचूड़ ने जो मिसाल स्थापित की, उसने हिन्दुत्ववादी ताकतों को मथुरा से लेकर संभल और यहां तक कि अजमेर शरीफ तक देश भर में ऐसे ही मामले दर्ज करने के लिए प्रोत्साहित किया है। अदालतें अब नियमित रूप से मस्जिदों के सर्वेक्षण का आदेश दे रही हैं और यह ऐसी बाढ़ में बदलती जा रही है जिसने भारत की धर्मनिरपेक्ष संरचना के बह जाने का खतरा पैदा कर दिया है।
चंद्रचूड़ के फैसलों ने पूजा स्थल अधिनियम को एक बेजान से शब्द में बदलकर रख दिया है। उन्हें इतिहास में न्याय के योद्धा के रूप में नहीं बल्कि एक ऐसे कानूनी सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले शख्स के तौर पर याद किया जाएगा जिसने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को कमजोर कर दिया। बेशक उनका बौद्धिक करतब उनके फैसलों को तकनीकी वैधता की चादर में लपेटने में कामयाब रहा हो लेकिन उनमें नैतिकता नहीं। ज्ञानवापी पर आए फैसले के बाद इस तरह के मामलों की बाढ़ ने दिखाया है कि उनका ‘जिज्ञासा का न्यायशास्त्र’ एक अकादमिक अभ्यास भर नहीं बल्कि उन लोगों के हाथों में एक औजार है जो भारत की बहुलतावादी विरासत को मिटा देना चाहते हैं।
संभल में फैला खून इस विरासत का हिस्सा है। यह चंद्रचूड़ और उनके नक्शेकदम पर चलने वालों को कुरेदता रहेगा जब तक कि वे अपने कार्यों के संभावित नतीजों को समझकर संविधान की अखंडता को बहाल करने के कदम नहीं उठाते। भारत अपने न्यायाधीशों, प्रशासकों और नेताओं से इससे कहीं बेहतर सलूक का हकदार है।