बड़ा होगा यूपी लोकसभा उपचुनाव परिणामों का संदेश

यशोदा श्रीवास्तव

यूपी में लोकसभा सीटों के दो उपचुनावों के परिणाम का संदेश बड़ा होगा। सपा आजमगढ़ की सीट बचाने की पूरी कोशिश करेगी जबकि भाजपा इस बार हर हाल इसे जीतना चाहेगी। रामपुर लोकसभा की सीट जीतने की जिम्मेदारी आजम खां की है जहां सपा के लिए कोई संशय नहीं है। वहां उम्मीदवार कोई भी हो,वोट आजम खां के नाम पर ही पड़ता है।

यहां अखिलेश आजम खां की पत्नी तंजीन फातमा को चुनाव लड़ाना चाहती थी लेकिन आज़म खां ने किसी आसिम राजा के उम्मीदवारी की घोषणा कर दी है। रामपुर और आजमगढ़ का अपना अपना ऐतिहासिक महत्व भी है।

आजमगढ़ की पहचान सिर्फ विख्यात शायर कैफ़ी आज़मी के नाते ही नहीं है,कुछ वर्ष पहले पूर्वांचल का यह जिला अबू सलेम के नाते भी देश भर में चर्चित हुआ। अजीब संयोग है कि एक ने इस जिले की पहचान वौद्धिक संपदा से भरकर दी तो दूसरे ने आतंकी कारनामों को अंजाम करके दिया। नजर न लगे इस जिले को कि बावजूद इसके देश दुनिया के नक्शे पर इसकी शिनाख्त वौद्धिक संपदा से लबरेज जिले की ही है। इस जिले की खासियत पर चर्चा लंबी होगी लिहाजा अभी बात लोकसभा के उपचुनाव को लेकर ही।

विधानसभा चुनाव हारने के बाद अखिलेश ने विपक्षी दल के नेता के रूप में विधानसभा में रहने का फैसला किया लिहाजा उन्होंने आजमगढ़ लोकसभा की सीट छोड़ दी। अब यहां उप चुनाव होने जा रहा है। भाजपा अपने पुराने उम्मीदवार निरहुआ को फिर मैदान में उतार दी है जबकि सपा ने तमाम कयासों को दरकिनार कर पूर्व सांसद धर्मेन्द्र यादव को मैदान में उतारा है। धर्मेंद्र यादव की राजनीतिक पूंजी बस इतनी है कि वे मुलायम परिवार के सदस्य हैं। वे जब सांसद होते हैं तो अपने आवास पर अधिकतम एक दो लोगों से ही मिलना पसंद करते हैं। यह उनकी राजा महाराजा वाली दूसरी खासियत है।

बसपा जिसकी नीति उपचुनाव न लड़ने की रही है,वह आजमगढ़ उपचुनाव लड़ रही है। उसके उम्मीदवार पूर्व विधायक गुड्डू जमाली हैं जिन्होंने विधानसभा चुनाव के बाद बसपा छोड़ दी थी। शीघ्र ही उनकी घर वापसी हुई और लोकसभा उपचुनाव में उम्मीदवार हो गए। 2019 में इस सीट से लोकसभा का चुनाव करीब तीन लाख से अधिक मतों से अखिलेश यादव तब जीते थे जब बसपा उनके साथ थी। इस बार चुनाव परिणाम को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।

मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की बात और थी, दोनों पूर्व मुख्यमंत्री थे लेकिन धर्मेंद्र यादव? सिर्फ यही न कि वे मुलायम के भतीजे और अखिलेश के कजिन हैं। इस उपचुनाव को जीतने की गणित यदि यह है कि यहां के सभी विधानसभा क्षेत्रों में उसके विधायक हैं तो यह मुगालता होगा। अखिलेश यादव की छोड़ी सीट पर स्थानीय सपा नेताओं ने भी चुनाव लड़ने का मंसूबा पाल रखा था। कद्दावर सपा नेता रमाकांत यादव ने तो पर्चा तक खरीद लिया था।

धर्मेंद्र यादव के पहले बसपा के कद्दावर नेता रहे स्वर्गीय बलिहारी बाबू के पुत्र अनिल आनंद के नाम पर खूब मंथन हुआ लेकिन उन्होंने चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया। सपा की अनिल आनंद को चुनाव लड़ाने की मंशा चाहे जो रही हो लेकिन मुस्लिम वोटरों में मैसेज यह गया कि बसपा उम्मीदवार से दलित वोटरों को दूर करने के लिए यह सपा की चाल है ताकि इसका फायदा भाजपा को मिल जाए।

पता नहीं क्यों मुस्लिम समाज में यह बात घर करने लगी है कि अखिलेश और मुलायम सिंह की भाजपा से नजदीकियां बढ़ रही है। इस उपचुनाव में चर्चा तेज है कि यहां का यादव वोटर मुलायम, अखिलेश, डिंपल या फिर शिवपाल के अलावा किसी अन्य बाहरी यादव की ओर शायद ही मुखातिब हो।

राजनीतिक रूप से धनी आजमगढ़ पर पिछले दो चुनावों से सैफई के राजनीतिक घराने का कब्जा रहा। उप चुनाव में तीसरी दफे वही घराना एक बार फिर मैदान में उतरा है। इसके पहले बाहरी उम्मीदवार के रूप में अकबर अहमद डंपी ने भी एक बार जीत दर्ज की थी।2014 में इस लोकसभा सीट से खुद मुलायम सिंह चुनाव लड़े थे जब उनकी उम्र 75 साल की थी।

याद आ रहा है अपने प्रचार में आए मुलायम सिंह ने अपने 75 वें सालगिरह पर यूपी से 75 लोकसभा सीटों का गिफ्ट मांगा था। शायद राजनीति का यह चाणक्य 2014 के परिवर्तन की आंधी भांपने में चूक गया था। 2019 में उन्होंने इस सीट को अपने पुत्र अखिलेश यादव को सौंप दी जिनके मुख्यमंत्री रहते 2017 में पूर्ण बहुमत की उनकी सरकार जमिंदोज हो चुकी थी। खैर मुलायम सिंह यादव की जीती हुई आजमगढ़ की सीट से अखिलेश यादव भी लोकसभा में पंहुच गए।

सांसद रहते हुए अखिलेश यादव 2022 के विधानसभा चुनाव में पूरे दमखम के साथ अपनी पार्टी को मैदान में उतारा। इस बार उनके साथ रालोद और सुभासपा का गठबंधन भी था। चाचा शिवपाल को महज एक सीट देकर उन्हें किनारे कर दिया गया, पिता मुलायम सिंह को भी खामोश कर दिया गया था।

2022 के विधान सभा चुनाव में जनता परिवर्तन के मूड में थी, अल्पसंख्यक वोटरों ने सपा या उसके गठबंधन के उम्मीदवार को इस तरह आंख मूंदकर वोट किया जैसा पहले शायद ही कभी किया हो। कहना न होगा कि कांग्रेस जिसे माइनारिटी वोटर अपने दिलों में उतारना शुरू कर दिए थे, विधानसभा चुनाव में उसे क्रूरता पूर्वक न कर दिए क्योंकि उन्हें यकीन था कि कांग्रेस सरकार नहीं बनाने जा रही है इसलिए उनकी ज़रा सी चूक भाजपा सरकार बदलने की उनकी मंशा और पुर जोर कोशिश पर पानी फेर सकती थी।

अखिलेश यादव को माइनारिटी वोटरों ने यह जानते हुए कि उन्होंने उनके लिए कोई आवाज नहीं उठाई और न ही एनआरसी जैसे मसले पर कहीं खड़े दिखाई पड़े,भरपूर वोट दिया ताकि सरकार बदल जाय। उनकी मेहनत रंग नहीं ला सकी। अखिलेश की सीटें जरूर बढ़ गई लेकिन इससे उनका क्या फायदा?

अभी किसी अखबार में खबर दिखी कि सपा किसी भी चुनाव में 6 महीने पहले उम्मीदवार का चयन कर लेगी लेकिन यूपी के दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव में नामांकन के आखिरी दिन उम्मीदवार का चयन हो पाया। यूपी के दोनों उपचुनाव कांग्रेस ने न लड़ने का फैसला कर समझदारी का परिचय दिया है। जबकि कालांतर में देखा जाय तो दोनों ही सीटों पर क्रमशः सात और दस मरतवे कांग्रेस का कब्जा रहा है लेकिन पिछले दो दशक से यूपी में कांग्रेस की हालत खराब है लिहाजा आजमगढ़ और रामपुर भी इससे अछूता नहीं रहा।

1962 से यदि आजमगढ़ लोकसभा के चुनाव परिणाम पर गौर करें तो इस आम चुनाव में कांग्रेस के रामहरख विजयी हुए थे। तब एक लाख के अंदर ही वोट पाने वाले का भाग्य चमक उठता था।1967 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के चंद्रजीत यादव 88690 वोट पाकर सांसद चुने गए थे। 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी से चंद्रजीत यादव फिर चुने गए।1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी के टिकट पर आजमगढ़ से रामनरेश यादव संसद में पंहुचने थे।

1980 के लोकसभा चुनाव में चंद्र जीत यादव कांग्रेस छोड़ जेएनपी से चुनाव लड़ें और तीसरी बार जीते।.

1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के संतोष कुमार सिंह सांसद चुने गए।1989 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने रामकृष्ण को प्रत्याशी बनाया था। वे जनता दल के प्रत्याशी त्रिपुरारी पूजन प्रताप सिंह को लगभग 9000 मतों से पराजित कर सांसद बने थे। 1991 के लोकसभा चुनाव में आजमगढ़ लोकसभा सीट पर जनता दल ने चंद्रजीत यादव पर दांव लगाया और वे चौथी बार सांसद चुने गए।

1996 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने रमाकांत यादव को साइकिल की सवारी दी थी वह 161586 वोट पाकर सांसद बने थे‌। उन्होंने बसपा को हराया था।
1998 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी से अकबर अहमद डम्पी सांसद चुने गए। वे समाजवादी पार्टी के रमाकांत यादव को बहुत मामूली अंतर से हरा पाए थे। 1999 के लोकसभा चुनाव में आजमगढ़ लोक सभा सीट पर रमाकांत यादव ने समाजवादी पार्टी की साइकिल की सवारी कर सांसद बने थे‌‌।

2004 के लोकसभा चुनाव में आजमगढ़ में रमाकांत यादव बसपा के बैनर तले चुनाव लड़कर संसद पंहुचने में एक बार फिर कामयाब हुए। 2009 में रमाकांत यादव ने साइकिल छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया और वे 35.01 प्रतिशत वोट पाकर फिर संसद में पंहुच गए। इस तरह देखें तो आजमगढ़ संसदीय सीट से पहली बार भाजपा का खाता 2009 में ही खुला। भाजपा से रमाकांत यादव की जीत को लोग भाजपा की नहीं रामाकांत की जीत मान रहे थे।

2014 में रमाकांत भाजपा के टिकट पर फिर जीतते यदि यहां मुलायम सिंह यादव ने आए होते। मुलायम को अपनी जीत के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। उन्हें 3,40,000 और बीजेपी के रमाकांत यादव को 2,77000 वोट मिले थे। बसपा से चुनाव लड़े गुड्डू जमाली को 2,66000 वोट हासिल हुए थे। मुलायम सिंह को यह वोट तब मिले थे जब यूपी में उनके बेटे की सरकार थी।

अब 2019 के चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो लगेगा कि अखिलेश यादव 6,21000वोट पाकर बड़ी अंतर से जीत दर्ज की लेकिन यह बड़ी अंतर तब थी जब सपा बसपा का गठबंधन था जो इस उप चुनाव में नहीं है। भाजपा के निरहुआ को तब 3,61000 वोट मिले थे,वे दूसरे नंबर पर थे। इस बार सपा उम्मीदवार धर्मेंद्र यादव को भी अखिलेश यादव के बराबर ही वोट मिलेंगे, इसमें संशय है, वहीं भाजपा अपने पुराने वोट संख्या को बरकरार रख पाई तो परिणाम इधर का उधर होना कोई मुश्किल नहीं है।आखिर बसपा के गुड्डू जमाली के भी तो उतना वोट पाने में संशय नहीं है जितना वे 2014 में पाए थे।कुल मिलाकर यूपी के दोनों उप चुनाव भले छोटे हों लेकिन इसके परिणामों का संदेश बड़ा होगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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