नई दिल्ली। बीजापुर नक्सली हमले में 23 जवानों की शहादत को एक हफ्ता बीत चुका है, लेकिन सुरक्षा बलों के अफसर और सरकार के बयान बताते हैं कि इतने बड़े हमले के बाद भी हमने सीखा कम और बयानबाज़ी ज़्यादा की। सवाल ये है कि हर बार होने वाले हमलों की तरह इस हमले को भी कहीं हम बहुत जल्दी भूलने की भूल तो नहीं कर रहे?
अगर रवैया यही रहा तो ये तय है कि ऐसे हमले रुकेंगे नहीं। तो क्या हमारे जांबाज़ जवान यूं ही शहीद होते रहेंगे। जरूरत है तुरंत ये 5 कदम उठाने की…
1. न शहादत के पीछे छुपें, न जनता को भ्रम जाल में उलझाएं
वरिष्ठ सुरक्षा सलाहकार के विजय कुमार नक्सली हमले के बाद मीडिया में कह रहे हैं कि ऑपरेशन में लापरवाही या चूक जैसी कोई चीज नहीं थी। गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि जवान बहादुरी से लड़े और इस स्थिति में नुकसान को नहीं टाला जा सकता। यही रवैया बदलने की जरूरत है।
जरूरत है कि ऐसे हमलों के बाद सरकार और अधिकारी शहादत की ओट न लें और न ही जनता को ‘आखिरी लड़ाई’ और ‘सफाया’ जैसे शब्दों के भ्रम जाल में उलझाएं। ये ऐसा करने से अपनी खामियां नजर नहीं आएंगी और खामियां नहीं दिखेंगी तो सुधार की गुंजाइश ही नहीं रह जाती है।
ऐसे में हमें फिर से बड़े हमलों की मानसिक रूप से तैयारी करने की बजाय ऑपरेशन की ख़ामियों की समीक्षा करके तत्काल उन्हें फ़ुल सुरक्षा प्रूफ बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
2. नक्सली हमले और ऑपरेशनल तैयारियों की जांच जरूरी
सरकार और सुरक्षा बलों में आला अधिकारी इस हमले को भुलाने की कोशिश में लगे हैं। वजह भी है, ऑपरेशनल खामी अब जनता को भी साफ दिख रही है। जिस तरह आपत्तिजनक ढंग से जवान राकेश्वर सिंह को नक्सलियों ने कैमरे पर देश के सामने रिहा किया और कथित डील की बात भी सामने आई, उसने भी सरकारी तंत्र की खामी और नक्सलियों के बढ़ते दबदबे का संकेत पुख़्ता किया है।
जरूरत है इस पूरे मामले के सभी पहलुओं की ईमानदारी से जांच की। इस ऑपरेशन की जांच की ताकि हम सीख लेकर अपनी तैयारियों में सुधार करें। इससे आने वाले वक्त में बेहतर प्लानिंग और रिजल्ट मिल सकते हैं।
3. हमले के बाद जो सवाल उठे, उनके जवाब खोजने होंगे
विजय कुमार ने द हिंदू अख़बार से 4 अप्रैल को कहा था कि नक्सली सिल्गर-जगरगुडां के पास चल रहे सड़क निर्माण को बाधित करने की कोशिश कई दिनों से कर रहे थे। नक्सली इलाके में होने वाली मुठभेड़ में कभी नक्सली अपने ऑपरेशन टालते हैं तो कभी सुरक्षा बल।
जब इलाके में बड़ी तादाद में नक्सलियों की मौजूदगी का पता था तो आधी-अधूरी तैयारी की बजाय मौजूदा ऑपरेशन को टाला जा सकता था। सुरक्षा बल पहले भी ऐसा कर चुके हैं।
कैजुअल प्लानिंग की बजाय पुख्ता योजना बनाकर पूरी ताकत से ऑपरेशन को अंजाम क्यों नहीं दिया गया। हमारा नुकसान कम हो सकता था, पर बैकअप प्लान की कमी की वजह से शहीदों के शव 24 घंटे से ज्यादा वक्त तक गांव की जमीन पर बिखरे रहे।
घायलों को भी समय पर उपचार नहीं मिला, क्योंकि युद्ध की धुंध कम होने का इंतजार किया जा रहा था। ऐसा क्यों? ऐसे सवालों के जवाब जानने अब जरूरी हैं।
4. सुरक्षा बलों के जवानों का मनोबल बढ़ाने की जरूरत
हमारे जवान वेल ट्रेंड हैं, हथियार भी कम नहीं और उनकी बहादुरी पर कोई भी शक नहीं कर सकता। जरूरत है उनका मनोबल बढ़ाने की। आज भी जवान अपने अधिकारों के लिए कोर्ट में मुकदमे लड़ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट से आदेश के बावजूद उन्हें जायज हक नहीं मिल रहे।
ये बल दुर्भाग्य से कोर्ट एडमिनिस्टर्ड फोर्स बनकर रह गए हैं। क्या देश और सरकार इतने कमजोर हो चुके हैं कि बहादुर सैनिकों को उनके जायज अधिकार देने में कंजूसी और देरी करें? केवल शब्दों से नहीं, आज जरूरत इन जवानों के साथ सही मायनों में खड़े होने की है।
इसका सबसे बेहतर तरीका है कि केंद्रीय अर्ध सैनिक बलों को सुप्रीम कोर्ट और कैबिनेट द्वारा आदेशित सभी जायज अधिकार तुरंत दिए जाएं। इससे उनका मनोबल बढ़ेगा और मनोबल से कोई भी लड़ाई जीती जा सकती है।
5. नक्सलवाद को केवल लॉ एंड ऑर्डर की समस्या न समझे सरकार
अगर सरकार नक्सलवाद के खात्मे के लिए वाकई गंभीर है तो इसे सिर्फ लॉ एंड ऑर्डर की समस्या समझना बंद करें। इसे सिर्फ गरीबी, पिछड़ेपन और विकास की कमी समझने की भूल भी न करें। अगर ऐसा होता तो सब गरीब व पिछड़े इलाकों में ऐसी समस्या होती। तह तक जाना होगा कि नक्सलवाद पनपा क्यों?
सच ये है कि जहां नक्सलवाद है, वहां लोगों में काफी हद तक अलगाववाद है। इसकी वजह शोषण और ज्यादतियां हैं। इन इलाकों के लोगों को यकीन दिलाना होगा कि देश उनकी फिक्र करता है। बस्तर के जंगल संपन्न है। इनमें तरह-तरह के कॉमर्शियल प्रोडक्ट पैदा होते हैं।
आदिवासियों को इनकी सही कीमत दिलाई जाए, उन्हें न सिर्फ विकास से जोड़ा जाए, बल्कि हिस्सेदार बनाया जाए।
गांव-गांव के प्राकृतिक तालाबों को खत्म होने से बचाया जाए और फिशरीज के जरिए ग्रामीणों को आजीविका दिलवाई जाए। अच्छी शिक्षा का सपना वहां के आदिवासी भी देखते हैं, उन्हें यह हक दिया जाए। उन्हें पोषण और अच्छा स्वास्थ्य भी मिले।
राजनेता और सामाजिक संगठन ऐसे इलाकों में बार-बार जाएं और समस्याओं पर चर्चा करें। इससे उन्हें अहसास होगा कि देश ने उन्हें अकेला नहीं छोड़ दिया है।