भारत जोड़ो यात्रा: बिना बहुत कुछ कहे सद्भावना का संदेश देकर अपनी छाप छोड़ता कारवां

नई दिल्ली। इस तरफ भारत उस भारत से बिल्कुल अलग है जो कथित मुख्य धारा की मीडिया ने बनाया हुआ है। इसके छोटे शहरों और गांवों का अपना जीवन है और यहां के बारे में खबरें कभी-कभार ही आती हैं, लेकिन ये आत्मनिर्भर और समावेशी हैं। उदाहरण के लिए,  कलमनूरी शहर को ही लें। जनगणना के अनुसार, यहां की आबादी 24,700 और परिवारों की संख्या लगभग 4,500 है। यह महाराष्ट्र के हिंगोली जिले में है, लेकिन जिले से बाहर के लोग इससे बहुत परिचित नहीं हैं।

ऐसा नहीं है कि इस जगह का समाजवैज्ञानिक या ऐतिहासिक महत्व नहीं है। इसे यह नाम इसलिए दिया गया है कि यहां नूरी बाबा के नाम से लोकप्रिय ऐतिहासिक तौर पर महत्वपूर्ण सूफी संत की दरगाह है। सूफी इतिहास में उनका नाम हजरत सरकार सैय्यद नूरुद्दीन नूरी शाहिद चिश्ती-कलमनूरी है। नूर-दरगाह पिछली छह शताब्दियों से कलमनूरी में है। इसकी यहां बहुत मान्यता है और पिछली छह शताब्दियों के इतिहास के दौरान तरह-तरह के शासन होने के बाद भी कलमनूरी के लोगों ने इसकी पवित्रता बनाए रखी है।

फोटो सौजन्य :@BaratJodo

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कलमनूरी में मिश्रित धार्मिक आबादी है। यह नांदेड़ से बहुत दूर नहीं है जो सिखों का पवित्र स्थान है और वहां से भी बहुत दूर नहीं है जहां बसवेश्वर ने करीब एक शताब्दी पहले उपदेश दिया था। इस तरह, मुसलमान, सिख, लिंगायत, बौद्ध, जैन, ईसाई और हिन्दू कलमनूरी में समरसता और आपसी आदर-सम्मान के साथ रहते हैं।

विभिन्न समुदायों के बनाए शैक्षिक और हेल्थ-केयर संस्थान, पार्क और सार्वजनिक स्थान बिना किसी स्पष्ट भेदभाव सभी अन्य समुदायों के लिए खुले हुए हैं। परिणामस्वरूप, सूफियों और सभी पंथों के संतों के विचार लोगों के दैनिक आचार-व्यवहार में प्रचलित हैं। आसपास के जिलों के कई प्रगतिशील लेखकों ने फुले, शाहू, गांधी और आम्बेडकर के विचारों को अपनाया है और इलाके के लोगों में विभिन्न दर्शनग्राही और प्रगतिशील चेतना का विस्तार किया है।

कलमनूरी हाल में खबरों में रहा क्योंकि राहुल गांधी और भारत जोड़ो यात्रा का शहर में आगमन हुआ और उन लोगों ने यहां एक रात बिताई। इसके लिए कवि-उपन्यासकार श्रीकांत देशमुख और चिंतक दत्ता भगत ने ‘साहित्य दिंडी’ नाम से लेखकों के समूह का गठन किया था। दिंडी ‘वारी’ के नाम से जानी जाने वाली वार्षिक पंढरपुर तीर्थयात्रा में शामिल ‘कवियों के दल’ की युगों पुरानी परंपरा के तौर पर जाना जाता है।

उन लोगों ने मुझसे जानना चाहा था कि क्या मैं राहुल गांधी से मिलवाने में उनकी मदद कर पाऊंगा क्योंकि मैं भारत जोड़ो यात्रा के साथ सिविल सोसाइटी की बातचीत की व्यवस्था करने में शामिल हूं। यात्रा के कलमनूरी पहुंचने से पहले मैं जब यहां पहुंचा, तो मैंने पाया कि लेखक कैम्ब्रिज इंग्लिश स्कूल परिसर में इकट्ठा हैं। उनमें से कुछ ने वहां जमा लोगों को संबोधित किया और मराठी में महत्वपूर्ण किताबों के बारे में युवा छात्र ऐक्टिविस्टों को बताया।

इस स्कूल की स्थापना डॉ. संतोष कल्याणकर और उनकी डॉक्टर पत्नी ने की है जो अपनी पूरी आय स्कूल चलाने में लगा देते हैं। इस दंपति ने अपने काम के लिए मीडिया प्रचार कभी नहीं चाहा। मैंने डॉ. संतोष से जानना चाहा कि क्या वह राहुल गांधी से मिलना चाहेंगे। उन्होंने यह सुझाव मान लिया लेकिन कहा कि वह चुप रहना पसंद करेंगे। उन्होंने कहा, ‘मैं यह काम करता हूं लेकिन इस बारे में बोलना मेरी प्रकृति में नहीं है।’ मैंने जानना चाहा कि क्या मैं नूर दरगाह के मौलाना साहब को आमंत्रित कर सकता हूं। उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर देने में समय जाया नहीं किया बल्कि उन्हें ले आने के लिए एक गाड़ी भेज दी।

फोटो सौजन्य :@BaratJodo

राहुल गांधी के साथ हमारी बैठक दिन दो बजे तय थी। हमें एक घंटा पहले टेन्ट में पहुंचने को कहा गया था। लगभग 25 लेखकों और ऐक्टिविस्टों के ग्रुप में सबके लिए आश्चर्यचकित करने वाली बात थी कि वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने उनका व्यक्तिगत तौर पर स्वागत किया, उनके साथ बातचीत की और बैठक के लिए निर्धारित क्षेत्र में साथ ले गए। बैठक की जगह एक छोटे-से टेन्ट में थी और यह साफ-सुथरी और व्यवस्थित थी।

राहुल गांधी वहां निर्धारित समय पर पहुंचे। हालांकि उन्होंने सुबह 15 किलोमीटर की पदयात्रा की थी लेकिन उनके चेहरे पर थकान का नामोनिशान तक नहीं था। वह खुश थे। मैंने ग्रुप से उनका परिचय कराया और तीन लेखकों ने अपनी बातें संक्षेप में रखीं, उसके बाद उन्होंने पूछा कि क्या वह कुछ कह सकते हैं।

वह यह जानने को उत्सुक थे कि क्या लेखक कोई ऐसा एक शब्द सोच सकते हैं जो सभी उत्पादक और कामकाजी लोगों के बारे में बता सके, ऐसा शब्द जिसमें अवमानना या अनादर का भाव न हो। इसने ‘दलित’, ‘श्रमजीवी’, ‘बहुजन’, ‘लोक/लोग’, ‘जनता’ आदि-इत्यादि-जैसे कई टर्म के शब्दार्थ-सतहों और समाजवैज्ञानिक संकेतार्थों को लेकर अच्छी-खासी बहस छेड़ दी।

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बातचीत के दौरान एसटी, एससी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों-जैसे ऐतिहासिक तौर पर उपयोग किए जाने वाले टर्मों तक को छुआ गया। राहुल ने कहा कि ‘कृपया विचार करें कि भारत के ऐसे बड़े बहुमत के बारे में हम किस तरह सोच सकते हैं जो उत्पादन में लगे हैं, ऐसा बहुमत जो ‘देता है’, उन्हें ऐसा सम्मान देने के बारे में जिसे इतिहास और समाज ने उन्हें देने से इनकार कर दिया है।’ बातचीत इस हद तक होने लगी कि उपस्थित लेखक पूरी तरह भूल ही गए कि वे किसी नेता से बात कर रहे हैं। राहुल के साथ एक घंटे तक रहने के दौरान उन्हें लगभग लगा कि वह उनमें से एक हैं, खूब पढ़े-लिखे और जिज्ञासु बुद्धिजीवी, उन लोगों के प्रति सहानुभूतिशील जिनका जीवन संघर्षपूर्ण है।

लेखकों ने भारत की समकालीन परिस्थिति पर अपने विचार रखने की तैयारी की थी और यह कि राहुल से वे क्या करने की अपेक्षा रखते हैं। उनमें से अधिकांश भूल ही गए कि वे क्या कहने की तैयारी से आए थे और वे राहुल द्वारा शुरू किए गए विचार-विमर्श में पूरी तरह रम गए। राहुल के जाने का वक्त हो गया। उन्होंने फोटो खिंचाने के लिए उन लोगों को साथ आने का आग्रह किया; और फोटो खिंच जाने के बाद वह दूसरे समूह से मिलने के लिए शिष्टता, प्रसन्नता के साथ चले गए।

राहुल गांधी रोज-ब-रोज इस तरह के समूहों से मिलते, लोगों से बात करते, उनके जीवन, उनकी भावनाओं और उनके विचारों को समझने का प्रयास करते, अपनी चिंताओं को उनके साथ बांटते, ऐसा समाज बनाने के अपने सपने को बताते आगे बढ़ रहे हैं जो सदाशयता में रहे। यात्रा बहुत ही चुनौतीपूर्ण स्थितियों में चल रही है।

मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि भारत जोड़ो यात्रा कोई सामान्य राजनीतिक कार्य नहीं है। राहुल सिर्फ अंग्रेजी और हिन्दी बोलते हैं, कोई अन्य भारतीय भाषा नहीं। फिर भी, यात्रा की अपील वह नहीं है जो यह कहती है; बिना बहुत कुछ कहे लाखों लोगों के दिल-ओ-दिमाग को झकझोरने की इसमें क्षमता है। यह सचमुच वही कहती है जो कलमनुरी में विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच युगों पुरानी सदभावना भारत को कहती है; और यह हैः ‘कोई बात नहीं, अगर तुम हमारी मौजूदगी को स्वीकार नहीं करते लेकिन मैं समय से परे हूं और जब तक भारत भारत है, मैं यहां बनी रहूंगी।’

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