अमेरिका के मेसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के इमरजेंसी रूम में 93 वर्ष की रूथ का आना-जाना आम बात थी। उस दौरान उनके डॉक्टर आर्देशिर हाशमी इस बात से परेशान थे कि रूथ की सीने में तेज दर्द की शिकायतों के बावजूद उनकी बीमारी समझ नहीं आ रही थी। हर महीने कम से कम दो बार रूथ को इमरजेंसी रूम में लाना पड़ता, सारे टेस्ट होते और सभी नतीजे सामान्य आते। रूथ खुद कहतीं कि सीने में तेज दर्द तो उठा मगर इमरजेंसी नंबर 911 डायल करने के बाद एंबुलेंस के आने तक दर्द खत्म हो जाता।
अब क्लीवलैंड क्लिनिक में जेरियाट्रिक इनोवेशन के चेयर डॉ. हाशमी बताते हैं कि रूथ का यूं इमरजेंसी रूम की दौड़ लगाना हमेशा से नहीं था। 2015 से पहले उनकी हालत बिल्कुल सामान्य थी। कई बार रूथ से लंबी बातचीत के बाद डॉ. हाशमी को वजह समझ में आई। उन्हें पता चला कि सीने में तेज दर्द की यह समस्या 2015 में ही शुरू हुई थी, जब रूथ का पोता कॉलेज की पढ़ाई के लिए घर से बाहर चला गया।
अब वह एक बड़े घर में अकेले रहती थीं। उन्हें उनके इलाके के डांस स्टूडियो तक पहुंचाने वाला अब कोई नहीं था। रूथ को लगता कि अगर वह अकेले घर में सीढ़ियों से गिर गईं तो किसी पड़ोसी को पता भी नहीं चलेगा। यह ख्याल आते ही सीने में तेज दर्द के साथ पैनिक अटैक शुरू हो जाता।
डॉ. हाशमी जानते थे कि पेनकिलर्स व अवसादरोधी दवाओं से रूथ का इलाज संभव नहीं था। इसलिए उन्होंने रूथ को एक जेरियाट्रिक केयर मैनेजर (बुजुर्गों की देखभाल करने वाले वॉलंटियर्स) के पास रेफर कर दिया, जो उन्हें फिर से उनके इलाके के बॉलरूम डांस स्टूडियो तक ले जाता। जब वह स्टूडियाे में अपनी कुर्सी पर बैठी संगीत पर झूमती तो भी वह उनके साथ रहता। वह रूथ को फिर से अपनी कम्युनिटी और अपने पसंदीदा संगीत से जुड़ने का मौका देता। इस थैरेपी के शुरू होते ही रूथ के पैनिक अटैक खत्म हो गए। डॉ. हाशमी ने जो किया उसे अब मेडिकल प्रोफेशन में सोशल प्रिस्क्रिप्शन के नाम से जाना जाता है।
क्या है सोशल प्रिस्क्रिप्शन?
इसमें डॉक्टर अपने मरीज की स्थिति के हिसाब से उसे नृत्य, संगीत या पेंटिंग क्लास जैसी किसी सांस्कृतिक गतिविधि में शामिल होने, सामाजिक कार्यों के लिए वॉलंटियर करने या नेचर वॉक जैसी चीजें प्रिस्क्राइब कर सकते हैं। यह सिर्फ उनके शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने के लिए किया जाता है। अमेरिका में आबादी की औसत आयु बढ़ रही है और लंबी बीमारियों और मेंटल हेल्थ से जुड़े मामलों में इजाफा हो रहा है। ऐसे में दवाइयां उम्मीद के मुताबिक काम नहीं कर पातीं।
कोरोनाकाल में बढ़े अकेलेपन के समय में यह बात और भी स्पष्ट तरीके से साबित हुई है। दवाओं की लिस्ट में ऐसे बहुत कम हथियार हैं जो स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों पर काम कर सकें। ऐसे में सोशल प्रिस्क्रिप्शन समाधान बन सकता है।
अभी तक सोशल प्रिस्क्रिप्शन को आधिकारिक रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि, ब्रिटेन में यह परिभाषा तय करने का काम बेहतर हो सकता है क्योंकि यहां का नेशनल हेल्थ सर्विस (NHS) अकेला बड़ा हेल्थ केयर सिस्टम है, जो राष्ट्रीय स्तर पर सोशल प्रिस्क्राइबिंग को फंड दे रहा है।
ब्रिटेन के कॉलेज ऑफ मेडिसिन के चेयर और सोशल प्रिस्क्राइबिंग अभियान की शुरुआत करने वालों में शामिल डॉ. माइकल डिक्सन कहते हैं कि इस परिभाषा का दायरा बड़ा रखना चाहिए। वे कहते हैं, ‘मेरे मुताबिक इसमें ऐसा कोई भी काम आ सकता है जिससे मरीज और स्थानीय डॉक्टर दोनों को लगे कि स्थिति बेहतर हो सकती है।’
स्थानीय डॉक्टर की भूमिका काफी अहम
डॉ. डिक्सन कहते हैं कि इसमें स्थानीय डॉक्टर की भूमिका काफी अहम हो जाती है। वही कम्युनिटी को बेहतर जानता है। वह मरीज से बात करने में समय और ऊर्जा लगाता है। वह मरीज की रुचियों, संसाधनों और प्रेरणाओं के बारे में जानता है। वह मरीज के साथ मिलकर एक ऐसा ट्रीटमेंट प्लान तैयार कर सकता है जिसमें उनकी सहूलियत के हिसाब से सामाजिक गतिविधियां शामिल हों।
पारंपरिक डॉक्टर जल्द से जल्द मरीज को डायग्नोस कर दवाएं प्रिस्क्राइब करना चाहते हैं। जबकि स्थानीय डॉक्टर, जिन्हें डॉ. डिक्सन ‘लिंक वर्कर्स’ कहते हैं, यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि मरीज के लिए क्या मायने रखता है। वास्तविक सोशल प्रिस्क्रिप्शन में क्या गतिविधि रखी जाती है यह ज्यादा मायने नहीं रखता। यह कला, प्रकृति या सामाजिक कार्यों से जुड़ी गतिविधि हो सकती है। जरूरत पड़े तो इसमें कुकिंग सीखना या अपने कुत्ते को रोज टहलाने जाना भी शामिल किया जा सकता है।
अमेरिका या अन्य देशों में सोशल प्रिस्क्राइबिंग अभी दुर्लभ ही है। अमेरिका में इसकी बड़ी पैरोकार डॉ. डेब बुचिनो हैं जो पश्चिमी मेसाचुसेट्स के बर्कशायर में मैकॉनी पेडियाट्रिक्स में पेडियाट्रिशियन हैं। डॉ. बुचिनो पिछले दो साल से सोशल प्रिस्क्राइबिंग कर रही हैं। वह मास कल्चरल काउंसिल की ओर से फंडेड कल्चर-आरएक्स अभियान का हिस्सा थीं। मगर यह अभियान शुरू होते ही कोरोना की वजह से दुनिया ठहर गई। हालांकि, कोरोना ने ही सोशल प्रिस्क्राइबिंग की जरूरत को और ज्यादा स्पष्ट कर दिया।
बच्चों में सामाजिक जुड़ाव बेहद जरूरी
डॉ. बुचिनो अपने मरीजों में से उन बच्चों को सोशल प्रिस्क्राइबिंग के लिए चुनती हैं जिन्हें इससे सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा। ये ऐसे बच्चे होते हैं जो अपने ज्यादा वजन, एंग्जाइटी या डिप्रेशन की वजह से कहीं आते-जाते नहीं। या फिर उनके परिवार में किसी न किसी वजह से दिक्कतें हैं जो उन्हें रोकती हैं। डॉ. बुचिनो के साथ इस प्रोग्राम में काम करने वाली नर्स एड्रियन कॉन्कलिन बताती हैं कि उनके क्लिनिक में एक 8 वर्ष का बच्चा जिमी आया था। वह एक दर्दनाक जन्मजात बीमारी से पीड़ित था।
परिवार में नशे की दिक्कत की वजह से वह अपनी दादी के पास रहता था। सीमित आय और अपनी बीमारी की वजह से उसका बाहर निकलना कम ही होता था। स्कूल में दोस्त भी नहीं बना पाता था। नर्स कॉन्कलिन ने जिमी के लिए ‘द लिटिल मरमेड’ नाटक के टिकट प्रिस्क्राइब किए। उसे यह नाटक अपने दोस्त के साथ देखना था। एक सप्ताह के बाद जब उन्होंने फॉलोअप के लिए जिमी की दादी को फोन किया तो नतीजे चौंकाने वाले थे।
दादी ने बताया कि एक घंटे का नाटक जिमी ने पूरे आनंद के साथ देखा। वह खुश थीं क्योंकि यह पहली बार था जब जिमी ने इतना वक्त इतने आनंद के साथ बिताया था। कॉन्कलिन कहती हैं कि थिएटर टिकट जैसी चीज बहुत छोटी सी चीज है। मगर समस्याओं से घिरे उस परिवार के लिए यह बहुत बड़ी बात थी। जिमी ने पहली बार पूरा एक घंटा खुशी से बिताया था।
डॉ. बुचिनो कहती हैं कि नियमित व्यायाम करने या पौष्टिक खाना खाने की डॉक्टर की सलाह पर कम ही मरीज ध्यान देते हैं। मगर सोशल प्रिस्क्रिप्शन की गतिविधियों की वजह से ये चीजें भी आसान हो गई हैं।
सोशल प्रिस्क्रिप्शन पर अभी और रिसर्च की जरूरत
अभी भी सरकार या इंश्योरेंस कंपनियों को इस ट्रीटमेंट का खर्च उठाने के लिए सहमत करना बड़ी बाधा है। इसके लिए व्यवस्थित शोध की जरूरत होगी और अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। जो शोध हुए हैं वह सोशल प्रिस्क्रिप्शन के पूरे प्रभाव को नहीं बताते। 2010 में प्लॉॅस मेडिसिन जर्नल में प्रकाशित 3 लाख बुजुर्गों पर किए गए एक शोध के मुताबिक, अकेलेपन से मौत का रिस्क एक दिन में 15 सिगरेट पीने जितना बढ़ जाता है।
2015 में लैंसेट ने एक स्टडी प्रकाशित की जिसमें प्राथमिक डिमेंशिया से ग्रस्त 1200 व्यस्कों में से कुछ को पारंपरिक स्वास्थ्य सलाह दी गई और कुछ को सामाजिक कार्यों और नियमित व्यायाम से जोड़ा गया। दूसरे ग्रुप में बेहतर नतीजे देखने को मिले, जबकि पारंपरिक स्वास्थ्य सलाह लेने वालों की स्थिति बिगड़ती गई।
कैंसर जैसी बीमारियों में इस तरह की थैरेपी से फायदा देखने को मिला है। मगर अभी तक इस पर कोई व्यवस्थित शोध नहीं है जिसकी वजह से मेडिकल कम्युनिटी पूरी तरह इसके पक्ष में नहीं आई है। जब तक यह नहीं होता, सोशल प्रिस्क्रिप्शन सीमित दायरे में वैकल्पिक उपचार ही बना रहेगा।