मित्रों, ‘कर्तव्यकाल’ में आपका स्वागत है…

आकार पटेल

देश में कर्तव्यकाल  के नए युग का पदार्पण हो चुका है, इसलिए अमृतकाल  में क्या हुआ, इसकी समीक्षा करना शिक्षाप्रद हो सकता है। 2017 में, नीति आयोग ने प्रधानमंत्री के आह्वान पर एक पंचवर्षीय योजना तैयार करना शुरू किया। उसी वर्ष अगस्त में, नरेंद्र मोदी ने एक प्रतिज्ञा ली थी और दूसरों से भी इस प्रतिज्ञा का पालन करने को कहा था। प्रतिज्ञा थी कि 2022 तक देश ‘न्यू इंडिया’ बनाया जाएगा।

मोदी युग में नए नाम से जाने गए योजना आयोग यानी नीति आयोग ने इसके लिए तमाम पहले मंत्रालयों, राज्यों और कई अन्य व्यक्तियों और संस्थानों से सलाह-मशविरा किया और फिर 200 पन्नों का एक दस्तावेज तैयार किया। इस दस्तावेज के लिए कुल 1,400 ‘हितधारकों’ से परामर्श किया गया और प्रधानमंत्री मोदी ने इस रणनीति दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए। इस दस्तावेज में मूल रूप से “हमारे नागरिकों की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए रणनीति में उल्लिखित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हमारी ऊर्जा को संयोजित करने” का आह्वान किया गया।

 

अर्थव्यवस्था के लिए मुख्य तौर पर जो लक्ष्य निर्धारित किए गए, उनमें “जीडीपी ग्रोथ को 8 फीसदी पर ले जाना, निवेश को 36 फीसदी पर ले जाना, टैक्स-जीडीपी अनुपात को 22 फीसदी पर ले जाना, श्रम बल में महिला भागीदारी को 30 फीसदी पर लाना, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ को मेक इन इंडिया के जरिए दोगुना करना और किसानों की आमदनी दो गुना करना” शामिल था।

इन सभी मोर्चों पर क्या स्थिति हुई, वह सर्वविदित है और इस कॉलम में कई बार उनका उल्लेख किया जा चुका है। लेकिन इन्हें फिर से संक्षिप्त तौर पर दोहराने की जरूरत लगती है।

जीडीपी विकास दर में लगभग निरंतर गिरावट जनवरी 2018 में शुरू हो चुकी थी। महामारी से पहले की 13 तिमाहियों के लिए; 2019-20 की आखिरी तिमाही तक यह गिरकर 3.1 फीसदी पर आ गई थी। ऐसे में आंकड़ों की कुछ बाजीगरी के सुझाव दिए गए और पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा था कि आंकड़ों को 2 प्रतिशत या उससे अधिक बढ़ा दिया गया था। फिर महामारी आ गई और आर्थिक गतिविधियों पर विराम लग गया और जीडीपी वृद्धि नकारात्मक हो गई। इस तरह हमने दो साल के विकास को खो दिया। अगर हम इस साल 8 प्रतिशत की दर से भी विकास करें, तो भी यह उस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएगा।

निवेश दर जहां थी वहीं बनी हुई है, यानी 30 प्रतिशत से नीचे। टैक्स-जीडीपी अनुपात 2019 में 11 प्रतिशत से गिरकर 2020 में लगभग 10 प्रतिशत हो गया और ईंधन पर टैक्स में बेतहाशा बढ़ोत्तरी के बावजूद लगभग 11 प्रतिशत पर आ गया है। यह स्पष्ट नहीं है कि नीति आयोग ने यह कैसे मान लिया कि 2019 में भारत के कॉर्पोरेट क्षेत्र को प्रत्यक्ष करों में बड़ी राहत देने के बाद 22 प्रतिशत का टैक्स-जीडीपी अनुपात संभव है।

श्रम बल भागीदारी की कहानी को सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) विस्तार से पेश करता रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े भी इसके ही समान हैं और भारत के श्रम बल की भागीदारी दर 40 प्रतिशत है, जो दक्षिण एशिया में सबसे कम है और चीन और वियतनाम की तुलना में लगभग आधी है। इन दोनों देशों में श्रम बल की भागीदारी 70 प्रतिशत से अधिक है।

सरकार के अपने आंकड़े भी ऐसी ही तस्वीर दिखाते हैं और चिंताजनक बात यह है कि दरों में दीर्घावधि की गिरावट आई है, जिसे सरकार ने कभी स्वीकार नहीं किया और इसी कारण से इसे सुधारने का कोई कदम भी नहीं उठाया गया।

निस्संदेह समस्या का एक बड़ा कारण श्रम बल में महिलाओं की कमजोर भागीदारी है, लेकिन पुरुष भागीदारी भी कोई बहुत अच्छी नहीं रही है क्योंकि नौकरियां तो हैं ही नहीं। जहां तक आंकड़े जमा करने की बात है, तो इस कॉलम में पहले भी इस मुद्दे को उठाया गया है, तो पिछले मुख्य आर्थिक सलाहकार के बार-बार कहने के बावजूद सरकार ने ये आंकड़े जारी नहीं किए।

खासतौर से बेरोजगारी के आंकड़ों पर तो खुद नीति आयोग ने नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) की उस रिपोर्ट को नकार दिया था जिसमें बेरोजगारी दर के रिकॉर्ड 6 फीसदी बताया गया था। इस आंकड़े को भी चुनावी नतीजों के बाद जारी किया गया था, फिर इसके बाद से बेरोजगारी दर लगातार 6 फीसदी से ऊपर बनी रही है।

20 दिसंबर 2019 को पीटीआई ने एक रिपोर्ट में बताया कि, ‘सांख्यिकी मंत्रालय ने 28 सदस्यीय एक कमेटी बनाई है जो आंकड़ों की गुणवत्ता का ध्यान रखेगी। इस कमेटी का अध्यक्ष मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन को बनाया गया।’ इस समिति में लगातार जारी राजनीतिक दखल को लेकर सरकार की आलोचना भी हुई और  सेन ने कहा भी कि, “समिति की पहली बैठक 6 जनवरी 2020 को होगी। इस बैठक का एजेंडा बहुत विस्तारित है। इसके बारे में हमें सिर्फ अगले माह होने वाली बैठक में ही पता चलेगा।“ इसके बाद इस समिति का क्या हुआ, किसी को नहीं पता।

मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में भी कोई विकास नहीं हुआ और इसके बजाए जीडीपी में मैन्यूफैक्चरिंग की हिस्सेदारी मेक इन इंडिया से पहले 16 फीसदी से नीचे गिर गई। आज यह 13 फीसदी पर है। इस सेक्टर में नौकरियों की संख्या भी घट गई। कुल मैन्यूफैक्चरिंग में आधे से अधिक की हिस्सेदारी वाले ऑटोमोबाइल सेक्टर की तरक्की भी पिछले एक दशक से स्थिर है।

भारत में 2014-15 में कुल 34 लाख वाहनों (घरेलू और विदेशी बाजार के लिए मिलाकर) का निर्माण हुआ था, महामारी से पहले 2019-20 में भी यह संख्या 34 लाख ही थी। पिछले तीन साल का औसत देखें तो सेक्टर सप्लाई चेन की समस्याओं को हटाकर देखने के बाद भी मांग पूरी करने में हांफ रहा है और अब भी उतने ही वाहन बना रहा है।

सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफैक्चरर्स ने मार्च 2020 तक की अपनी विकास यात्रा को देखते हुए सरकार के सामने 2021 में आग्रह भेजा था। यह महामारी से पहले की बात है। इसमें कहा गया था कि भारतीय ऑटोमोबाइल सेक्टर में लगातारनर्मी है और लंबी अवधि में इसमें मंदी आ जाएगी जो बहुत गहरी होगी। साथ ही कहा था कि इसके कारण जानने के लिए व्यापक शोध की जरूरत है। लेकिन शोध तो सिर्फ उन्हीं विषयों या समस्याओं पर हो सकता है जिन्हें हम स्वीकार करें। लेकिन सरकार तो मानती है कि कोई मंदी है ही नहीं।

किसानों की आमदनी भी दोगुना नहीं हुई। रिजर्व बैंक के कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे को देखें तो आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी और महंगाई के हालात बीते लगातार सात साल से निगेटिव में हैं।निर्यात को भी पिछले साल एक सक्सेस स्टोरी के तौर पर पेश किया गया, जबकि 2014 के बाद से यह लगातार निगेटिव में ही था। भारत ने 2014 में 300 अरब डॉलर का निर्यात किया था। 2021-22 में कोविड पाबंदियां उठने के बाद वैश्विक कारोबार में 23 फीसदी का उछाला भी आया। लेकिन अब वह उछाल ठहर चुका है और निर्यात फिर से निगेटिव में आ गया है।

यह तो न्यू इंडिया@75 का रिकॉर्ड है। 2023 का आधा वर्ष बीत चुका है, लेकिन इस पंचवर्षीय योजना का कहीं कोई जिक्र नहीं है। नीति आयोग ने यह नहीं बताया है कि जो लक्ष्य हासिल किया जाना था उसे हासिल करने या न हासिल करने के क्या कारण थे, या भविष्य के लिए क्या सबक सीखा जा सकता है।

इसके बजाय, प्रधानमंत्री ने अब हमारे समय का नाम बदल दिया है। इसे अमृतकाल यानी शाश्वत युग, जोकि जाहिर तौर पर किसी तरह शाश्वत नहीं था और अब कर्तव्य युग हमारे सामने है।

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