डा. सी. पी. राय
उत्तर प्रदेश का आने वाला चुनाव मील का पत्थर साबित होने वाला है ।बंगाल ने लम्बे समय बाद एक चुनौती को स्वीकार भी किया और चुनौती दिया भी और इबारत लिख दिया राजनीति के पन्ने पर की इरादा हो, संकल्प हो और आत्मबल हो तो कितनी भी बड़ी ताकते सामने हो उन्हे परास्त किया जा सकता है ।
अब बारी उत्तर प्रदेश की है तय करने की कि देश की राजनीति की दशा और दिशा क्या होगी ।विभिन्न कोनो से जो आवाज उठती है कि लोकतंत्र खत्म हो जायेगा और संविधान संघविधान मे बदल जायेगा तथा एक संगठन को छोड बाकी सब कैद मे जीवन काटेंगे ,क्या सचमुच वैसा कुछ होगा या ये सब एक भ्रम मात्र है । तय तो ये भी होना है की जो चल रहा है वही चलेगा या बदलाव आयेगा और खुली बयार फिर से बहेगी । तय होना है की उत्तर प्रदेश सिर्फ ठोको , मुकदमे लगाओ और जेले भरो पर ही चलेगा या रोटी रोजगार और सचमुच के विकास जिसका लोग सपना देखते है उसपर चलेगा ।
तय ये भी होना है कि 1989 से हर चुनाव मे सत्ता परिवर्तन की बयार इस बार भी बहेगी या कांग्रेस युग की वापसी होगी और सत्ता फिर वापस आयेगी ।
इस युद्द के मुख्य रूप से चार योद्धा है जिसमे भाजपा तथा आरएसएस और समाजवादी पार्टी फिलहाल आमने सामने दिखलाई पड़ रहे है । भाजपा के ऊपर जहा सरकार असफलताओ का बोझ है वही अपने ही विधायको नेताओ और कार्यकर्ताओ की नाराजगी का जोखिम भी ,जहा सभी चीजो की महंगाई का विराट प्रश्न सामने मुह बाये खड़ा है तो किसान आन्दोलन की आंच भी जलाने को तत्पर है ,बेरोजगार नौजवान हुंकार भर रहा है तो कुछ को छोडकर कर पूर प्रशासन तंत्र मे एक कसमसाहट है , या यूँ कहे की चुनावी जमीन भाजपा को निगलने को आतुर दिख रही है ।
नागपुर से लेकर दिल्ली और लखनऊ तक भगवा खेमे जबर्दस्त बेचैनी दिखलाई पड़ रही है और साम दाम दंड भेद सब कुछ इस्तेमाल कर किला बचाने की जद्दो-जहद भी साफ नज़र आ रही है । हिन्दू मुसलमान मुद्दा बना देने को कमर कसते नज़र आ रहे है भगवा खेमे के योद्धा चाहे उसकी आंच मे प्रदेश बर्बाद क्यो न हो जाये पर चुनाव बड़ी चीज है ।
दूसरी तरफ समाजवादी खेमा लम्बी नीद से उठ कर अपनी अंगडाई लेता हुआ दिख रहा है पर अभी भी जमीनी हकीकत और अपनी कमजोरियो से आंखे मूदे हुये लगता है । जहां भाजपा सैकड़ो चेहरे और संगठनो के साथ उछल कूद कर रही है वही समाजवादी पार्टी वन मैंन शो के साथ वन मैन आर्मी ही नजर आ रही है । अखिलेश यादव द्वारा मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष पद से हटाने के बाद पार्टी सभी चुनावो मे खेत रही है ।
पार्टी का दो मुख्य मजबूत वोट था जिसमे से पिछले विधान सभा चुनाव और लोक सभा चुनाव मे इसमे से यादव लोगो का भाजपा खेमे को काफी समर्थन मिला हिन्दू और मंदिर के नाम पर और अभी भी ये दावा नही किया जा सकता कि 100% यादव वोट पुरानी वाली ताकत तथा जज्बे से सपा के लिये लडेगा और वोट देगा ।
दूसरा अडिग वोट मुसलमान का रहा जो 1989 और फिर 1993 से पूरी ताकत के साथ सपा के साथ खड़ा रहा पर इस बार वो विचलित दिखलाई पड़ रहा है और आज़म खान के मामले मे अखिलेश यादव की तब तक की गई बेरुखी ,जब तक ओवैसी ने आज़म से मिलने की इच्छा व्यक्त नही किया और कांग्रेस की तरफ से भी उनके प्रति सहानुभूती नही दर्शाई गई ने भी पूरे मुस्लिम समाज को विचलित कर दिया है साथ मे कभी विष्णू के मंदिर तथा कभी परशुराम के मंदिर की बात कर अखिलेश यादव ने पाया कुछ नही बल्कि भाजपा की नीतियो का पिछलग्गू बनने का काम किया है ।
ऐसे मे यदि मुसलमान को कोई और विकल्प नही मिला तो उसका वोट तो मिल सकता है पर 1991की तरह ही जोश रहित और कम संख्या मे होगा ।पता नही क्यो अखिलेश यादव पर अति जातिवादी होने का ठप्पा भी लग गया है और बडी जातियो के प्रति बेरुखी वाला भाव भी ।ये गलती तो सपा ने प्रारंभ से ही किया कि वो अन्य पिछडी जातियो और अति पिछडी जातियो को ये एहसास नही करा पायी की पार्टी तथा सत्ता उनकी भी है ।
मुलायम सिंह के उलट अखिलेश का सुलभ न होना तथा पुराने लोगो के प्रति उपेक्षा भाव और अनुभवी वरिष्ठ लोगो से दूरी भी उनको भारी पड़ती दिख रही है और वो अपना ही राजनीतिक कुनबा ही पूरी तरह समेट नही पा रहे है ।जहा सिर्फ 30या 35 सीट की लडाई मे अपने चाचा शिवपाल यादव और मुलायम सिंह यादव को बाहर का रस्ता दिखा दिया वही कांग्रेस को 125 सीट दे दिया ।
यद्द्पि भाजपा के सामने आज तक सपा ही है पर अभी तक सपा और उनके सहयोगी 125/130 सीट से ज्यादा पर बढते हुये नज़र नही आ रहे है पर थोडा व्यव्हार और रणनीति बदल कर उछाल लेने से भी इंकार नही किया जा सकता है । कितना ये उनके व्यहार और रणनीति परिवर्तन पर निर्भर है ।
तीसरी पार्टी बसपा है जिसकी नेता मायावती यदि पैसे की भूखी नही होती और धन वैभव तथा अहंकार से दूर रही होती और अपने मिशन के साथियो को दूर नही किया होता तथा काशीराम के रास्ते पर चलती रही होती तो आज देश की सबसे बडी ताकतवर नेता होती । पर उनकी कमजोरियों और कर्मो ने उनकी लम्बे अर्से से भाजपा की सत्ता के सामने शरणागत कर दिया और लम्बे समय से दिल्ली मे बैठी वो केवल राजनीति की औपचारिकता निभाती हुयी दिख रही है । उनके कर्मो से उनका वोट ठगा हुआ मह्सूस कर रहा है ,फिर भी उनका वोट है ।
इस चुनाव मे भी वो पुराने हथकंडो के साथ मिश्रा जी के कन्धे पर चढ़ कर चुनाव को बस जीवित रहने लायक लड़ना चाह्ती है या भाजपा की बैसाखी बन अपनी सुरक्षा और अपने भतीजे की राजनीति मे स्थापना तक के ही इरादे से उतरना चाह्ती है ये वक्त बतायेगा । फिर भी मायावती यदि इस चुनाव मे पैसे का लालच छोड कर और क्षेत्रो के सम्मानित लोगो को ढूढ कर टिकट देती है और अपने खजाने का कुछ अंश लोगो के चुनाव लड़ने पर खर्च करती है तो वो 40 से ज्यादा सीट जीत सकती है और यदि ढर्रा पुराना ही रहता है तो 19 से भी नीचे ही जायेंगी। और कितना नीचे इसकी समीक्षा कुछ समय बाद हो सकेगी ।
चौथी पार्टी कांग्रेस है जिसके लिये इस बार सबसे अच्छा अवसर था क्योकी वो 1989 से ही उत्तर प्रदेश सरकार से बाहर है और प्रियंका के रूप मे ये नया चेहरा उनके पास था पर या तो कांग्रेस का नेतृत्व किसी दबाव मे है या फिर मन से हार चुका है और इतना कुण्ठित हो गया है कि नये विचार और कार्यक्रम सोच ही नही पा रहा है । लोगो को जोडने मे कांग्रेस का विश्वास नही नही है बल्कि स्थापित काग्रेसी इस चक्कर मे रह्ते है की जो है उनको भी कैसे निकाला जाये की उनका एकछत्र राज रहे चाहे बंजर जमीन पर ही सही ।
खुद राहुल गांधी पूरे परिवार की पूरी ताकत लगाने के बावजूद अपनी पारम्परिक सीट अमेठी हार चुके है और जब सोनिया या राहुल जीतते भी है तो अपने जिले की विधान सभा नही जीता पाते पर अभी ये परिवार स्वीकार नही कर पा रहा है की राजनीति कहा जा चुकी और आप करिश्मा करने वाले नही रहे । वैसे भी इधर कांग्रेस सिर्फ उन प्रदेशो मे चुनाव जीती जहा किसी दल से सीधी टक्कर हो और उस प्रदेश मे कांग्रेस का मजबूत नेता हो जिसने अपने प्रदेश मे अपनी साख कायम रखी हो ।
बंगाल मे शून्य पर आकर और तमिलनाडु केरल तथा असम मे पूरी ताकत और समय लगाकर भी दोनो कूछ हासिल नही कर सके पर अभी भी अपनी कमजोरियो दूर करने और जमीन की हकीकत समझने का कोई इरादा नही दिखता है ।शायद भाजपा और आरएसएस पर ही निगाह रखते तो कुछ तो कमजोरिया दूर कर सकते थे ।
इसका क्या जवाब है कि अच्छे खासे पंजाब के नेतृत्व को कमजोर करने की क्या जरूरत थी । सिंधिया छोड सकते है महीनो से पता था पर क्यो नही रोक पाये ,सचिन पाइलट ने 5 साल मेहनत की पर उनकी उपेक्षा क्यो और क्यो कुछ फैसला नही ।मध्य प्रदेश में 28 सीटो का चुनाव था और सत्ता का फैसला होना था पर भाई बहन सहित पूरी पार्टी ने कमल नाथ को अकेला छोड दिया ।
इतिहास ही याद कर लेते की 1978 मे सिर्फ एक सीट पर इन्दिरा जी ने कैसे गाँव गाँव पैदल नापा था और जिस गाँव मे जहा जगह मिली रुक गई । सांकेतिक राजनीति का तजुर्बा तो हो चुका भट्टा और परसौल मे । जरा पन्ना पलट कर देख लेना चाहिए कि वो सब कर के कितना वोट मिला दोनो जगह ।
उत्तर प्रदेश में मे भी कही कांग्रेस इसी तरह चलती रही तो कही बंगाल ही न दोहरा दे और अब भी अपने रंगीन चश्मे उतार दे और राजनीतिक पर्यटन को छोडकर कर डट जाते पूर्णकालिक तौर पर और व्यवहारिक राजनीति कर ले तो शायद कुछ साख बच जाये ।वो सत्ता की तरफ जाने वाला रास्ता और समय तो पीछे छूट गया पर सम्मान बचा सकती है और 2024 के लिये बुनियाद रख सकती है ।
कुल मिलाकर पूरा माहौल भाजपा और योगी विरोधी होने के बावजूद आज की तारीख तक विरोध की अकर्मण्यता,सिद्धांतो से विचलन और धारदार राजनीति का अभाव तथा सुविचारित रणनीति का अभाव भाजपा को फिर मुकुट पहना सकता है ।ऊपर लोगो की जिन आशंकाओ का जिक्र किया गया है उनका जवाब देने और फैसलाकुन युद्द छेड़ने की जिम्मेदारी तो विपक्ष के नेताओ की है ।
देखते है की 1989 का सिलसिला जारी रहता है और सत्ता बदलती है या 80 के दशक का कांग्रेस का इतिहास भाजपा दोहरा देती है । यदि विपक्ष रणनीतिक साझेदारी के साथ आरएसएस और भाजपा के धार्मिक और जातीय ट्रैप से बच कर फैसलाकुन लडाई लडने उतर सका तो भाजपा को 100 सीट भी नही मिलेगी और सत्ता परिवर्तन होगा और यदि यही ढर्रा रहा तो भाजपा 160 से 210 तक सीट जीतने मे कामयाब हो जाएगी सारी विपरीत स्थितियो के बावजूद भी । सवालो के जवाबो की प्रतीक्षा जनता को भी है और भविष्य के इतिहास को भी ।
(लेखक स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)