राजनीति से आजकल तेज ग़ायब है। उसका पानी सूख गया है। … और हम आम मतदाता, उस ख़ाली बाल्टी की तरह हैं जिसकी व्यथा कवि अशोक वाजपेयी ने बताई है। बाल्टी जो जब- तब भरती। अक्सर देर तक ख़ाली रहती है। तेज या पानी अक्सर कम पड़ जाता है। बाल्टी का ख़ालीपन बढ़ता जाता है। उसने अपने ख़ालीपन के भूरे सच को आत्मा की तरह जकड़ लिया है।
मौसम चुनाव का सिर पर हैं। झक सफ़ेद कुर्ते में नेता अब आपके घर आने वाले हैं। पाँच साल कुछ दिया हो या नहीं, माँगने ज़रूर आएँगे। उनसे हमें कहना चाहिए। अभी कल की ही तो बात है। आप आए थे। ऐसे ही। इसी तरह। वोट माँगने।
फिर पूरे पाँच साल हमारे इर्द- गिर्द अंधेरे सरसराते रहे। लाखों ख़ाली पत्तों की तरह। आपने कोई रोशनी हमारी तरफ़ नहीं फेंकी। अंधेरों से भी बात नहीं की। रोशनी नहीं दे सकते थे तो अंधेरों से ही कहते कि थोड़ी दूर चले जाएँ। हम दुखों के, समस्याओं के, आफ़तों के अंधकार में डूबे रहे, लेकिन आपके कुर्ते की सफ़ेदी में कोई कमी नहीं आई।
सिर्फ़ कुर्ते की सफ़ेदी से क्या होगा भला? आप में तो कोई रूहानी नूर भी नहीं है। सिर्फ़ कुर्ते के बटन चमकते रहते हैं। बस, बेलगाम जोश उछलता रहता है आपके खून में। बेक़रार आँखें घूमती हुईं। शक्ल क़ातिलों की सी है। पिण्ड भीगा रहता है पसीने से। नेताजी, तुमपे ये लिबास जमता नहीं। कोई प्रेमी क्यों नहीं बन जाते? कम से कम प्रेम के बदले प्रेम तो दे पाएँगे!
हो सकता है नेताओं को ये सब सवाल मामूली लगते हों। क्योंकि उन्होंने वह सब सहा नहीं है, जिसे हमें भुगतना पड़ता है। हमारी पीड़ा हम ही जानते हैं। क्योंकि कवि वासुदेव मोही के अनुसार, हम उनमें से एक हैं जो सुबह उठते ही चाय के लिए चिल्लाते हैं।
फिर दौड़ते- हाँफते, ब्लड प्रेशर को बढ़ाते हुए पहुँच जाते हैं दफ़्तर। शाम को लौटते वक्त वो भाजी- तरकारी, जिसकी लिस्ट थमाई थी हाथ में सुबह, उसे भूलकर घर आ धमकते हैं। फिर सुबह की चिंता करते- करते ऊँघने लगते हैं किसी बेस्वाद सपने की आस में।
हम उनमें से एक हैं जो अपने वक्त के उसूलों के लिए पूरी तरह पाबंद रहते हैं। लेकिन हमारे ही उसूलों ने हमारी ही ज़िंदगी को खोखला करके, गड्डे खोदे हुए हैं। हम उनमें से एक हैं – रगें जिनकी काँपी नहीं। मशीनों की तरह आवाज़ करती रहती हैं। … और इन्हीं मशीनों ने हमारी खुरदुरी- सी ज़िंदगी को पीस डाला है।
हम उनमें से एक हैं – जिन्हें ज़िंदगी और मौत का सवाल भी मामूली लगता है! हम उनमें से एक हैं जिन्हें मालूम ही नहीं, कि वे क्यों और किसलिए जी रहे हैं! … और हम उनमें से एक हैं जिन्हें पता ही नहीं कि वे मरते जा रहे हैं… और आख़िर एक दिन मर ही गए…!
हम तो वो हैं जो टूटते हुए घर की ड्योढ़ी पर बैठकर सहलाते रहते हैं उन घावों को जो हमारी आत्मा ने सहे हैं। ज़िंदगी की हारी हुई जंगों में जाने कितने घाव पड़े हैं और जाने कितने निशान अब भी हमारी आत्मा पर तारी हैं। फिर भी कोई बुजुर्ग आकर सिर पर हाथ रखता है और कहता है- भले ज़हर पीना पड़े, पर सदा अमृत ही बाँटना। सर में गंगा बहती रहेगी…!
बहरहाल, बात टिकटों की है। चुनाव की है। नेताओं- प्रत्याशियों की है और समग्र राजनीतिक माहौल की है। बात सिर्फ़ इतनी सी है कि नेताओं को आम आदमी की ज़िंदगी, समस्याओं- दिक़्क़तों का अनुभव होना चाहिए और इसके लिए पार्टी स्तर पर भी और संसद तथा विधानसभा स्तर पर भी क्षेत्रों में उनके दौरे तय करना चाहिए ताकि वे कम से कम हर महीने उस क्षेत्र की समस्याओं से दो- चार हो सकें।
जिस सड़क मार्ग से वे क्षेत्र में जाएँ उसकी हालत जान सकें। जिस क़स्बे या गाँव में वे रुकें वहाँ की समस्याओं से रूबरू हो सकें। रुकें भी सिर्फ़ गाँव या क़स्बे में, किसी चार- पाँच सितारा होटल में नहीं। यह भी तय हो कि रेण्डम तौर पर कोई दस आम लोगों से बात करके उनके मन को जानें। आम लोग यानी उनके पार्टी कार्यकर्ता नहीं।
अपरिचित लोग हों जो बेख़ौफ़ होकर सही बात नेताजी के सामने रख सकें। क्योंकि लीडर जब तक खुद चीजों को महसूस नहीं करता, उनके समाधान के प्रति भी नहीं सोच पाता। ऐसा नहीं करने वाले नेता को अगली बार टिकट नहीं देना चाहिए। वेतन – भत्तों पर भी रोक लगाने का नियम बनाया जाना चाहिए ताकि क्षेत्र में जाना इनके लिए हर हाल में अनिवार्य हो जाए।
हो सकता है इस बहाने गांवों, क़स्बों की समस्याएँ सुलझ जाएँ। वर्ना चाँद पर जाने वाले इस देश में गाँव तो आज भी वहीं हैं जहां सदियों पहले हुआ करते थे। कहने को मोबाइल फ़ोन और उनके टावर ज़रूर गांव- गाँव पहुँच चुके हैं लेकिन मूलभूत सुविधाओं की हालत ज्यों की त्यों बनी हुई है। छत से पानी टपकता रहता है। ओलतन दीवार पर ही ढेर होती रहती है। कीचड़ सिर तक आता है और फसलें बारिश का मुँह ताकती रहती हैं।