नई दिल्ली। बीते कुछ दिनों से देश के अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग समुदायों के धार्मिक स्थलों में बजने वाले लाउडस्पीकरों को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। धार्मिक स्थलों या अलग-अलग कार्यक्रमों में बजने वाले लाउडस्पीकर को लेकर बकायदा कानून बना हुआ है। कानून के जानकारों का कहना है कि पूरे देश में आज तक कभी भी लाउडस्पीकर के मामले में कानून का पालन किया ही नहीं गया।
फिलहाल इस वक्त देश में एक बार फिर से सभी राज्य ध्वनि प्रदूषण नियम 2000 के तहत तय किए गए कानून का पालन कराने के लिए नई गाइडलाइन तैयार कर रहे हैं। जबकि कानून के जानकारों का कहना है कि 1998 में आए कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले से अगर राज्य सरकारें सीख ले लेतीं, तो शायद आज ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता।
रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक शोर नहीं
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता विष्णु नारायण कहते हैं कि सन 1998 में कोलकाता हाईकोर्ट का निर्णय ध्वनि प्रदूषण नियम के तहत आया था। उसमें कहा गया था कि 10 डेसिबिल से ज्यादा की आवाज के साथ कोई भी व्यक्ति या संस्था बगैर अनुमति के लाउडस्पीकर से ध्वनि प्रदूषण नहीं कर सकता।
वह कहते हैं कि इसके बाद सन 2000 में ‘चर्च ऑफ गॉड बनाम केकेआर मैजिस्टिक’ के तहत भी एक फैसला आया था, जिसमें रात को 10 बजे के बाद से लेकर सुबह 6 बजे तक कोई भी ध्वनि प्रदूषण न करने का आदेश दिया गया था। इसके अलावा विशेष परिस्थितियों में सेक्शन 5 के तहत जिम्मेदार अधिकारी से अनुमति लेने के बाद ही रात दस बजे से रात को 12 बजे तक एक तय डेसिबिल की अनुमति दी जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता विष्णु नारायण कहते हैं कि सिर्फ यही दो नियम नहीं, बल्कि इसके अलावा भी और कई अलग-अलग हाईकोर्ट के आदेश आए हैं, जिसके तहत स्पष्ट रूप से आदेश दिया गया है कि धार्मिक स्थलों या कार्यक्रम से बगैर अनुमति के लाउडस्पीकर से आवाज नहीं आनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं कि 28 अक्तूबर 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि राज्य सरकार अगर चाहे तो एक साल में 15 दिन धार्मिक या किसी त्योहार के दौरान रात 12 बजे तक लाउडस्पीकर बजाने की अनुमति दे सकती है। लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आवाज एक तय डेसिबिल से ज्यादा न हो और उसकी बाकायदा सक्षम अधिकारी से अनुमति ली गई हो।
वे कहते हैं कि लेकिन किसी भी राज्य में इसका ठीक से पालन किया ही नहीं गया। यही वजह रही कि समय-समय पर लाउडस्पीकर से होने शोरगुल से विवाद की स्थितियां पैदा हुईं।
‘लाउडस्पीकर से अजान इस्लाम का हिस्सा नहीं’
2016 में भी इसी तरीके से बांबे हाईकोर्ट ने लाउडस्पीकर के इस्तेमाल को किसी का भी मौलिक अधिकार मानने से इनकार किया। यही नहीं 2018 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने तो बाकायदा लाउडस्पीकर बजाने की सीमा ही इतनी तय कर दी कि लाउडस्पीकर का कोई मतलब ही नहीं रहा।
वरिष्ठ अधिवक्ता विष्णु नारायण कहते हैं कि उत्तराखंड हाईकोर्ट ने लाउडस्पीकर बजाने की आवाज पांच से 10 डेसिबिल तय कर दी। अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट ने बाकायदा सार्वजनिक स्थानों पर लाउडस्पीकर या किसी भी तरीके के ध्वनि यंत्रों के इस्तेमाल पर रोक लगाई है। कानून के जानकारों का कहना है कि जुलाई 2019 में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने भी किसी भी धार्मिक स्थल पर लाउडस्पीकर से बगैर अनुमति के बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तो बाकायदा 15 मई 2020 को अपने आदेश में स्पष्ट किया था कि मंदिर और मस्जिद में लाउडस्पीकर से होने वाली आवाज दूसरे लोगों के अधिकारों में दखल है। हाईकोर्ट ने कहा था की अजान इस्लाम का हिस्सा है, लेकिन लाउडस्पीकर से अजान इस्लाम का हिस्सा बिल्कुल नहीं है।
कानून के जानकार विष्णु नारायण कहते हैं कि अगर आप बीते दो दशक में आए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को समझेंगे तो आपको अंदाजा हो जाएगा कि देश में अब तक किसी भी राज्य ने ध्वनि प्रदूषण कानून 2000 के तहत होने वाले लाउडस्पीकर के माध्यम से आवाजों पर कोई रोक नहीं लगाई है।
वे कहते हैं कि जब कानून बना हुआ है कि रात 10 बजे से लेकर सुबह छह बजे तक किसी भी तरीके का लाउडस्पीकर बगैर अनुमति के नहीं बजाया जा सकता, तो धार्मिक स्थलों से बगैर अनुमति के लोगों के अधिकारों का हनन इन धार्मिक स्थलों से बजने वाले लाउडस्पीकर से क्यों किया जा रहा है?
वह कहते हैं कि अगर कोर्ट के बनाये गए कानून का पालन राज्य कर रहे होते तो आज जो लाउडस्पीकर को लेकर बवाल मचा हुआ है वह होता ही नहीं। उनका कहना है कि कोर्ट के आदेश का पालन कराना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है, जिसमें सरकारें और जिम्मेदार महकमे विफल रहे हैं।
कानून के जानकार और वरिष्ठ वकील हरजोत सिंह कहते हैं कि अगर किसी भी समुदाय का नेता या संगठन सड़कों से लेकर धार्मिक स्थलों पर बगैर अनुमति के लाउडस्पीकर का प्रयोग कर रहा है, तो यह पुलिस और राज्य सरकारों की नाकामी है। अब जब लाउडस्पीकर को लेकर बवाल मच रहा है तो सभी जिम्मेदार एक-दूसरे पर जिम्मेदारी थोप रहे हैं। हरजोत का कहना है कि सरकारों को इसके लिए सख्त कदम तो उठाने ही होंगे।