लिंगायत वोट को साधने के लिए भाजपा और कांग्रेस में शह-मात का खेल?

नई दिल्ली। कर्नाटक विधान सभा चुनाव के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर है। सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस दोनों ने राज्य की 224 सदस्यीय विधान सभा में 150 सीटों पर जीत हासिल करने का लक्ष्य रखा है और दोनों ही पार्टियां इस बार जोर-शोर से कर्नाटक के सबसे प्रभावी लिंगायत समुदाय को साधने की कोशिश कर रही है।

लिंगायत समुदाय एक जमाने में मजबूती के साथ कांग्रेस के साथ खड़ा नजर आता था। वीरेंद्र पाटिल के जमाने में लिंगायत कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा उस जमाने में लिंगायत समुदाय से आने वाले अपने मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को बर्खास्त करने के साथ ही लिंगायत समाज ने कांग्रेस से मुंह मोड़ लिया। बीएस येदियुरप्पा के जमाने में लिंगायत वोटरों ने भाजपा को वोट किया था।

भाजपा ने जैसे ही येदियुरप्पा को हटाया, लिंगायत समुदाय ने उन्हे सत्ता से हटा दिया और जब येदियुरप्पा फिर से भाजपा में वापस आए तो लिंगायत समुदाय ने पार्टी को राज्य की सत्ता में बैठा दिया। इतिहास बिल्कुल साफ है कि कर्नाटक में लिंगायत समुदाय ने जिस पार्टी को वोट दिया, उसी पार्टी की राज्य में सरकार बनी।

लिंगायत समाज की राजनीतिक ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2021 में जब पार्टी ने राज्य में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला किया तो लिंगायत येदियुरप्पा की जगह लिंगायत बसवराज बोम्मई को ही राज्य का सीएम बनाया।

सीएम पद से हटाने के बावजूद भाजपा आलाकमान ने येदियुरप्पा के राजनीतिक प्रभाव को देखते हुए उन्हें पार्टी के फैसले लेने वाली सर्वोच्च और सबसे ताकतवर संस्था भाजपा संसदीय बोर्ड का सदस्य बनाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सार्वजनिक मंचों पर उनके लिए लगातार अपने सम्मान का परिचय देते रहते हैं।

वहीं दूसरी तरफ इस बार कांग्रेस भी अपने पुराने वोट बैंक लिंगायत समुदाय को फिर से वापस पाने की पुरजोर कोशिश कर रही है। लिंगायत समुदाय को साधने की कांग्रेस की बेताबी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जैसे ही लिंगायत समाज से आने वाले भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार ने भाजपा का दामन छोड़ने का फैसला किया वैसे ही कांग्रेस ने उन्हे हाथों-हाथ लपक लिया।

विधान सभा चुनाव में टिकट नहीं मिलने की वजह से पार्टी छोड़ने वाले लिंगायत समुदाय के बड़े नेता जगदीश शेट्टार और लक्ष्मण सावदी को पार्टी में शामिल करने के साथ ही कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ एक अभियान छेड़ते हुए यह आरोप लगाना शुरू कर दिया कि भाजपा लिंगायत विरोधी है और लिंगायतों के साथ अन्याय करती रही है।

कांग्रेस के इस अभियान की गंभीरता को भाजपा ने तुरंत समझ लिया और पार्टी के शीर्ष नेताओं ने खासकर लिंगायत समुदाय से आने वाले राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कांग्रेस के आरोपों का जवाब देना शुरू कर दिया।

कांग्रेस के प्रचार अभियान से पैदा होने वाले खतरे की संभावना को देखते हुए शेट्टार के पार्टी छोड़ने के बाद बीएस येदियुरप्पा के घर महत्वपूर्ण बैठक हुई जिसमें ‘लिंगायत मुख्यमंत्री’ प्रचार अभियान चलाने तक के सुझाव आए और उसके बाद से भाजपा नेताओं ने राज्य की जनता को यह संदेश देना शुरू कर दिया कि बोम्मई ही मुख्यमंत्री बनेंगे और कर्नाटक का लिंगायत समाज अगर लिंगायत को मुख्यमंत्री बने देखना चाहता है तो उसे भाजपा को ही वोट देना चाहिए।

सीएम बोम्मई ने तो एक पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए यहां तक कह दिया कि 1967 के बाद से पिछले 50 वर्षों में कांग्रेस ने वीरेंद्र पाटिल के नौ महीने के कार्यकाल को छोड़कर किसी लिंगायत को मुख्यमंत्री नहीं बनाया है। यह भाजपा की तरफ से लिंगायत मतदाताओं के लिए एक तरह से स्पष्ट राजनीतिक संदेश हैं।

लिंगायत मतदाताओं का समर्थन हासिल करने के लिए भाजपा और कांग्रेस के बीच चल रही जोर-आजमाइश को समझने के लिए हमें कर्नाटक के राजनीतिक गणित को समझना चाहिए। लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है।

माना जाता है कि कर्नाटक में लिंगायत समुदाय की आबादी 18 प्रतिशत के लगभग है। उत्तरी कर्नाटक के जिलों में लिंगायत समुदाय का एक तरह से एकाधिकार है। कर्नाटक की 224 विधान सभा सीटों में से 110 यानी लगभग आधी विधान सभा सीटों पर लिंगायत समुदाय ही जीत-हार का फैसला करता है। 2018 के विछले विधान सभा चुनाव में लिंगायत समुदाय से लगभग 60 विधायक चुने गए थे।

लिंगायत समुदाय की आबादी और उसके राजनीतिक प्रभाव को देखते हुए ही कांग्रेस इस बार भाजपा के इस मजबूत वोट बैंक में सेंघ लगाने का पूरा प्रयास कर रही है तो वहीं भाजपा की कोशिश भी अपने सबसे मजबूत वोट बैंक लिंगायत समुदाय को किसी भी तरह से अपने साथ बनाए रखने की है।

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