महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों में महायुति की लहर दिखी लेकिन वैसा कुछ होने के संकेत पहले न किसी ने देखे, न सोचे। आधिकारिक नतीजों पर भरोसा न करने के कई कारण हैं, और इसके पीछे पर्याप्त परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी हैं कि यह जनादेश अनुचित युक्तियों की बैसाखी लेकर बनाया गया है। ठीक चुनाव पूर्व के तीन महीनों में महायुति सरकार ने रियायतों की बारिश करते हुए बेतहाशा खर्च किया जिनमें से एक ‘लाडकी बहीण योजना’ ने खासकर सुर्खियां बटोरीं।
खैरातों की बारिश शुरू होने से पहले, जिसके लिए निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने चुनाव आगे बढ़ाकर उसे और ज्यादा समय दिया- महायुति सरकार हर तरह से संकट में घिरी दिख रही थी। सत्तारूढ़ गठबंधन में अंदरूनी कलह और सरकार की अलोकप्रियता सामने थे। नतीजे अपेक्षाओं के इतना विपरीत न होते, तो कारण नहीं कि इन पर किसी को आपत्ति होती। इस तथ्य के मद्देनजर कि चुनाव पूर्व चीजें कैसी दिख रही थीं, सच यही है कि महायुति के लिए भी नतीजों पर एकबारगी भरोसा करना मुश्किल रहा।
1960 में राज्य के गठन के बाद पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं होगा, क्योंकि सत्तारूढ़ तिकड़ी के अलावा कोई भी दल 288 के सदन में न्यूनतम 29 सीटें हासिल नहीं कर सका है। बीजेपी को आरएसएस के पूर्ण सहयोग से 132 सीटें मिलीं जो महाराष्ट्र में उसकी अब तक की सबसे ज्यादा हैं। महायुति को 48 प्रतिशत वोट मिले जो लोकसभा के मिले वोट से पांच प्रतिशत ज्यादा है।
क्या एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले शिव सेना गुट ने ‘असली शिव सेना’ का सवाल सुलझा लिया? अगर सर्वेक्षण के आंकड़े मानें, तो उन्हें निश्चित रूप से ज्यादा वोट मिले, यानी शिव सेना (उद्धव) के 10 प्रतिशत के मुकाबले 12.4 प्रतिशत। अजीत पवार की एनसीपी ने शरद पवार की एनसीपी (11.3 प्रतिशत) की तुलना में कम वोट (9 प्रतिशत) लेकिन शरद पवार के 10 के मुकाबले 41 सीटें जीतकर सबको चौंकाया। राज ठाकरे के नेतृत्व वाली एमएनएस, प्रकाश अंबेडकर के नेतृत्व वाली वंचित बहुजन अगाड़ी (वीबीए) और शेतकारी संगठन जैसे अन्य उप-क्षेत्रीय दलों जैसे छोटे खिलाड़ी रिंग से ही बाहर हो गए। महा विकास अघाड़ी (एमवीए) को 33 प्रतिशत वोट मिले जो संख्या में 2.5 करोड़ हैं।
हालांकि झटके की गंभीरता को कम करके नहीं आंका जा सकता लेकिन संकेत हैं कि सदन में 50 से कम विधायक होने के बावजूद गठबंधन अब भी सदन में गंभीर चुनौतियां पेश कर सकता है। हालांकि यह कई कारकों पर निर्भर करेगा जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है इसकी एकता। बीजेपी के बारे में माना जा सकता है कि वह एमवीए के शेष नेताओं के पीछे जाकर उनके संगठनों के भीतर तोड़फोड़ जरूर करेगी। दलबदल के लिए प्रलोभन दिए ही गए हैं। क्या एमवीए और उसके विधायक दबाव झेल पाएंगे?
उम्मीद की किरण वोट शेयरों के ढेर के तरीके में निहित है- क्या क्षेत्रीय और छोटे खिलाड़ियों को भविष्य में एक असामान्य लेकिन असंभव सा दिखने वाले गठबंधन मजबूत करने की दिशा में जाना चाहिए। कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार) का संयुक्त वोट शेयर विधानसभा चुनावों में लगभग 24 प्रतिशत है जो कि बीजेपी के 26.77 प्रतिशत से थोड़ा ही पीछे है जबकि दोनों ने बीजेपी से कम सीटों पर चुनाव लड़ा। शिवसेना (उद्धव) को लगभग 10 प्रतिशत और बीजेपी विरोधी ‘अन्य’ को लगभग 14 प्रतिशत वोट मिले हैं जो दिखाता है कि जमीन पर विपक्ष की ताकत अब भी मजबूत है। सीटें भले कम हों, उनका सामाजिक आधार कायम है।
एमवीए के लिए तात्कालिक चुनौती इस असफलता से उबरना, ड्राइंग बोर्ड पर वापस आना और तीन साल की देरी से होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों में अच्छे प्रदर्शन की रणनीति है। सब जानते हैं कि स्थानीय चुनाव नए सामाजिक गठबंधन का अवसर देते हैं लेकिन परंपरा यही है कि सत्तारूढ़ दल अपनी वित्तीय मजबूती के कारण इनमें अच्छा कर जाते हैं। महायुति निश्चित रूप से इसलिए भी जल्दबाजी में स्थानीय चुनाव कराना चाहेगी।
एमवीए के तीन मुख्य घटकों में कांग्रेस और शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी स्वाभाविक सहयोगी हैं। कांग्रेस, जिसने बमुश्किल छह महीने पहले 18 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़कर 13 पर जीत हासिल की थी, विधानसभा चुनाव में उसके वोटों में पांच प्रतिशत से अधिक की गिरावट दिखाई दी। फिर भी, अपने नए सोच, एक समावेशी घोषणापत्र और हाशिये के समाज के साथ ही अल्पसंख्यकों के पक्ष में अधिक मजबूत रुख के साथ वह राज्य में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए बेहतर स्थिति में है। महाराष्ट्र के हर क्षेत्र में जड़ें होने के कारण यह अन्य की तुलना में बीजेपी-संघ से मुकाबला करने के लिए भी बेहतर स्थिति में है। संगठनात्मक रूप से इसे शरद पवार की एनसीपी से कमजोर माना जाता है जो दोनों पार्टियों के विलय के पक्षधर लोगों के पक्ष में है।
नतीजों में महाराष्ट्र भले ही बीजेपी के पक्ष में आ गया हो, लेकिन राज्य के प्रगतिशील आदर्शों को कमजोर करना आसान नहीं होगा। सिविल सोसाइटी समूह, जमीनी स्तर के कार्यकर्ता और उदार मतदाता एकजुट होकर काम करने के लिए कांग्रेस की ओर देख रहे हैं। शुरुआत के लिए, पार्टी केन्द्रीय और भीतरी इलाकों में फिर से अपने कार्यालय खोल सकती है। तमाम समर्थकों का कहना है कि जनता के आने, बैठने, चाय पीने और स्थानीय मुद्दों पर चर्चा के लिए एक खुली जगह ही उत्साह बढ़ाने वाला होता है।
शरद पवार की बढ़ती उम्र और गिरते स्वास्थ्य ने विधानसभा चुनावों में लगभग पूरे चीनी क्षेत्र को अजीत ‘दादा’ पवार के पक्ष में झुकाने में भूमिका निभाई होगी। चूंकि तीसरी पीढ़ी के वफादार अब भी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सके हैं और शरद पवार के चंद वफादारों को छोड़कर सभी उनके भतीजे के साथ हो लिए हैं, इसलिए भी पार्टी को संकट झेलना पड़ रहा है। ऐसे में क्या सीनियर पवार के 10 विधायक और वास्तव में अन्य एमवीए सदस्य भी क्या अपनी जगह बने रहेंगे, चिंता का विषय है। कुछ लोग सत्ता सुख और सुविधाओं की चाहत में महायुति का दामन थाम लें तो किसे आश्चर्य होगा!
नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि शरद पवार की एनसीपी को 12 फीसदी वोट शेयर मिला जो अजित पवार से ज्यादा था, भले ही वह सीटों में तब्दील नहीं हुआ। कांग्रेस के साथ विलय अंकगणितीय रूप से कुछ चुनावी संतुलन बहाल करने वाला होगा लेकिन इसमें एकमात्र बाधा पवार परिवार की अडानी समूह से निकटता है।
एक खिड़की उद्धव ठाकरे के पास भी खुली है- 10 प्रतिशत वोट, 20 विधायक और 6 सांसदों के साथ, वह अब भी अपनी पार्टी का क्षेत्रीय रुतबा फिर से हासिल कर सकते हैं जबकि एकनाथ शिंदे और अजीत पवार गुट बीजेपी की गिरफ्त में हैं। उद्धव के लिए एक और सकारात्मक बात यह रही कि उनकी शिव सेना (यूबीटी) ने मुंबई में अपने कुछ गढ़ों में 20 में से 10 सीटें जीतीं।फिर से उभरती बीजेपी को दूर रखने के लिए आने वाले चुनावों में बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) पर नियंत्रण बनाए रखना बड़ी चुनौती होगी। जैसे कि संकेत हैं, मान लेना चाहिए कि 2019 का बदला लेने के लिए संघ परिवार ठाकरे परिवार के खिलाफ पूरी ताकत से उतरेगा और कोई भी खेल करने में कसर बाकी नहीं रहेगी।
ADVERTISEMENT
राज ठाकरे की मनसे अपने सारे घोड़े खोल देने के बावजूद कुछ खास नहीं कर पाई, शिंदे सेना के बीजेपी की छाया से बाहर आने की संभावना नहीं है, और अजीत पवार की एनसीपी को अब तक एक क्षेत्रीय ताकत के रूप में माना नहीं जाता है, ऐसे में उद्धव ठाकरे क्षेत्रीय उभार का नेतृत्व करने और पार्टी को फिर से स्थापित करने के लिए बेहतर स्थिति में हैं। उनकी सबसे बड़ी वैचारिक दुविधा यह है कि इंडिया गठबंधन का हिस्सा रहते हुए हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के अपने संस्करण की फिर से कल्पना किस तरह की जाए। वह भाषाई या मराठी उप-राष्ट्रीय पहचान और अस्मिता के सवाल पर लौट सकते हैं जिसके आधार पर 1960 के दशक की मुंबई की मिलों और चॉलों में मूल शिव सेना का जन्म हुआ।
मोदी-शाह की उद्योगों और निवेशों को महाराष्ट्र से गुजरात की ओर मोड़ने की फितरत से मराठी माणूस बनाम ‘बाहरी गुजराती’ की लड़ाई तो देश की वित्तीय राजधानी में खमोशी से चल ही रही है। बीजेपी के ड्राइविंग की सीट पर होने और एकनाथ शिंदे के मजबूती से अपनी जगह पर खड़े होने के कारण शिंदे या अजित पवार के लिए अपने-अपने गुट को लंबे समय तक खुश रखना भी आसान नहीं होगा जो ठाकरे परिवार के लिए संभावना की एक और खिड़की खोलेगा।