नई दिल्ली। कांग्रेस पार्टी चली रायपुर इधर केंद्रीय सरकार के उठा पेट में दर्द कि कैसे बिगाड़े कांग्रेस का खेल। विपक्ष का खेल बिगाड़ने को ईडी है ही, बस रायपुर में कांग्रेस के विधायकों और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नजदीकियों के घर पहुंची ईडी। ऐसे समय में छत्तीसगढ़ कांग्रेसियों के घर ईडी छापों के दो उद्देश्य हैं।
पहला तो यही कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को ईडी मामले में उलझा दिया जाए और दूसरा जिस समय रायपुर में कांग्रेस अधिवेशन चल रहा हो तो उस समय भ्रष्टाचार का शोर मचाकर देश का ध्यान अधिवेशन से हटाकर भ्रष्टाचार पर लगा दिया जाए। गोदी मीडिया तो सरकार की चाकरी करने को हर वक्त तैयार है ही। साफ है कि ईडी छापों का शोर मचाकर लोगों का ध्यान इस बात से हटा दिया जाए कि कांग्रेस अधिवेशन में क्या हुआ।
लेकिन कांग्रेस को इसमें उलझने के बजाय अपने अधिवेशन पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि कांग्रेस पार्टी का यह महाधिवेशन केवल पार्टी ही नहीं देश के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है। तीन अहम मुद्दें हैं जिन पर इस अधिवेशन में कांग्रेस पार्टी को ध्यान देना होगा। पहला तो यह कि अगले साल यानी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में पार्टी ही नहीं बल्कि विपक्ष की क्या रणनीति होनी चाहिए, इस पर फैसला हो। राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा से जो मुहब्बत का पैगाम दिया है, वह एक नैरेटिव हो सकता है। दूसरा हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद जिस तरह अडानी घोटाला सामने आया है उस पर आधारित मोदी-अडानी घोटाले को राजनीतिक नैरेटिव का केंद्र बनाया जा सकता है।
इसके अलावा विपक्षी एकता भी अहम मुद्दा है। एक खास तरह की सोच वाले राजनीतिक विश्लेषक कहते नहीं थक रहे कि मोदी को सत्ता से हटाना बहुत मुश्किल है, लेकिन विपक्षी एकता इस दावे को हवा निकाल सकती है। जिस तरह 2004 में विपक्षी एकता ने बीजेपी को हराया था, उसी किस्म का नया नैरेटिव और रणनीति पर काम करना होगा।
तीसरी बात जो कांग्रेस के लिए इस समय आवश्यक है वह है कि पार्टी सिर्फ चुनाव ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संघर्ष के लिए तैयार रहे। पार्टी के शीर्ष स्तर से लेकर ब्लॉक स्तर तक पार्टी कार्यकर्ता सड़क पर उतरने में संकोच न करें। राहुल गांधी ने करीब 4000 किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा कर पार्टी को संघर्ष का रास्ता दिखा दिया है। रायपुर अधिवेशन में सड़क और संघर्ष का मंत्र कार्यकर्ताओं को देना होगा।
2024 का चुनाव दरअसल वैचारिक मुद्दों का चुनाव होना चाहिए। एक ओर संघ और बीजेपी खुलकर हिंदुत्व विचारधारा आधारित हिंदू राष्ट्र बनाने का ताना-बाना बुन रहे हैं। हालांकि यह बात खुलकर न तो बीजेपी कहेगी और न ही संघ, लेकिन हिंदुत्व को केंद्र में रखकर बीजेपी चुनावी समर में उतरेगी लगभग तय है। इसके विपरीत कांग्रेस को सदभाव की वैचारिक स्पष्टता के साथ मैदान में उतरना होगा।
इसके अलावा विपक्षी एकता को लेकर बातें भले ही बहुत हों, लेकिन इसे हासिल करना आसान काम नहीं है। अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति को बीजेपी भी अपनाती है, उसने न सिर्फ समाज को बल्कि राजनीति को भी बांटकर रख दिया है। इसके अलावा संघ के मोहरे तो विपक्ष में भी मौजूद हैं और यह बात भी अब छिपी नहीं रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल और एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी इस फेहरिस्त में शामिल हैं। लेकिन तमाम ऐसे दल हैं जो बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ हैं और उनका एकजुट होना बीजेपी के दांत खट्टे कर सकता है।
इसके अलावा कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संघर्ष का रास्ता अपनाना होगा। उनके लिए लिए चुनावी रैलियां सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन मात्र न रह जाएं। कार्यकर्ताओं को बूथ स्तर पर उतरकर वोटर को बीजेपी और कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष की विचारधारा समझानी होगी। और इसका रोडमैप रायपुर से ही निकलना चाहिए।