बॉलिवुड फिल्में एक अरसे तक रोमांस और फैमिली ड्रामा को पर्दे पर उतारने के लिए मशहूर रही हैं, लेकिन हाल के दिनों में कई फिल्मों में मन विचलित करने वाली हिंसा और क्रूरता का अतिरेक नजर आ रहा है। आखिर, कभी अपनी फिल्मों में श्रृंगार, हास्य, शांत और करुण जैसे रसों को तरजीह देने वाले बॉलिवुड को रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स रस क्यों लुभाने लगा है?
सिनेमाघरों में सुर्खियां बटोरने के बाद हाल ही में OTT पर आई फिल्म ‘किल’ को देखकर एक दोस्त की प्रतिक्रिया थी- ‘इसका टाइटल हत्या करने के 101 तरीके भी हो सकता था। पूरी फिल्म में सिर्फ हत्या, हत्या, वो भी बेहद वीभत्स तरीके से। OTT के बाद आजकल सिनेमाई फिल्मों में भी बहुत वॉयलेंस दिखाया जाने लगा है।’ गौर करें, तो उनकी बात बिल्कुल वाजिब है।
आम तौर पर रोमांस, कॉमिडी और फैमिली ड्रामा के लिए मशहूर रहे बॉलिवुड की हालिया फिल्मों में हिंसा और क्रूरता पर खासा जोर दिख रहा है। चाहे वह रणबीर कपूर की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘एनिमल’ हो, जिसमें वह ‘अर्जन वैली वे’ की धुन पर कुल्हाड़ी से लोगों को काटते जाते हैं या फिर देश की सबसे हिंसक फिल्म के तौर पर प्रचारित किल। हाल ही में आई ‘सेक्टर 36’ हो या फिर ‘युध्रा’, इन सभी में इतना विद्रूप (gory) वॉयलेंस और खून खराबा है कि कमजोर दिल वाले सिहर जाएं।
एक्शन-वॉयलेंस का दौर चल रहा है
वैसे, हॉलिवुड फिल्मों में दिल दहलाने वाले क्रूर एक्शन सीक्वेंस हमेशा से दिखाए जाते रहे हैं। हॉलिवुड के महान निर्देशकों में गिने जाने वाले क्वेंटिन टैरेंटीनो तो अपनी फिल्मों में ऐसे वीभत्स (gory) एक्शन और हिंसा दिखाने के लिए मशहूर ही हैं। उनकी फिल्म ‘रिजर्वायर डॉग्स’ हो, ‘पल्प फिक्शन’ हो या ‘किल बिल’, सभी में ऐसे हिंसक सीन है, जिसके लिए उनकी आलोचना भी हुई है।
बॉलीवुड फिल्मों में दिखता है रौद्र रूप
इसी तरह, कोरियन सिनेमा भी अपने मन विचलित करने वाले एक्शन के लिए जाना जाता है। साउथ सिनेमा में भी ऐसे रॉ एक्शन सीन दिखाए जाते रहे हैं। मगर बॉलिवुड के फिल्मकार नाट्यशास्त्र के नौ रसों श्रृंगार, हास्य, करुण, शांत, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत में से श्रृंगार, हास्य, शांत और करुण रस को तरजीह देते रहे हैं। ऐसे में, इन दिनों बॉलिवुड को रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स रस क्यों लुभाने लगा है?
दीपक डोबरियाल ने दिया जवाब
यह पूछने पर ‘सेक्टर 36’ में अपनी गंभीर भूमिका के लिए तारीफें बटोर रहे एक्टर दीपक डोबरियाल कहते हैं, ‘यह दौर-दौर की बात है। आजकल ऐसे एक्शन का दौर चल रहा है। अभी कोई पारिवारिक फिल्म या रिलेशनशिप ड्रामा चल जाए तो सब वही बनाने लग जाएंगे तो इंडस्ट्री में एक भेड़चाल भी चलती है कि जो जॉनर हिट हो जाए, सब उसी के पीछे भागते हैं। जैसे, स्त्री 2 इतनी बड़ी हिट हो गई, तो मैं दस जगह सुन रहा हूं कि हॉरर कॉमिडी कभी फेल नहीं होती है।’
लोगों को लुभाता है उत्तेजक एक्शन
वहीं, खांटी एक्शन वाली फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ और ‘रंगबाज: डर’ की राजनीति करने वाले एक्टर विनीत कुमार सिंह का कहना है, ‘ये सिनेमा के अलग-अलग जॉनर हैं। रोमांस या ड्रामा एक जॉनर है, जो हमेशा से रहा है, लेकिन पहले भी गाइड, दो बीघा जमीन जैसी फिल्मों में उस समय की समस्याएं या दुर्दशा पर्दे पर आई हैं।’
फिल्मों में विभत्स एक्शन सीन्स
‘समय के साथ चीजें इवॉल्व होती हैं तो जॉनर भी बढ़ते हैं। कई बार कुछ नए तरह के प्रयोग भी होते हैं। एक्शन लोगों में एक एड्रिनैलिन रश यानी उत्तेजना ले आता है जिसे देखने में उन्हें मजा भी आता है। हां, अब थोड़ा वीभत्स (gory) एक्शन का स्पेस भी खुला है जो हार्डकोर एक्शन है, जहां खून भी ज्यादा नजर आता है मगर यह डायरेक्टर पर निर्भर करता है उसका टेस्ट कैसा है। यह उनकी क्रिएटिविटी है कि एक चीज को वह किस तरह से देखता है। बाकी, आपको अगर नहीं देखना तो यह चॉइस हमेशा आपके पास है।’
विनीत कुमार सिंह का जवाब
‘यह कोई आधार कार्ड तो है नहीं कि बनवाना जरूरी है। आपको जो चीज नहीं देखनी, आप वो मत देखिए, लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो ऐसी चीजें देखना चाहते हैं, इसलिए डायरेक्टर अपनी कहानी कहने के लिए अलग-अलग माध्यम चुनते हैं। यह सही है कि आज बहुत सारी ऐसी फिल्में बन रही हैं जिसमें एक्शन बहुत ज्यादा है, पर मुझे लगता है कि उन्हें अपनी बात अपने तरीके से कहने की आजादी होनी चाहिए। किसी को वो चीज नहीं समझ में आती तो वह ना देखें।’
हिंसा के प्रति असंवेदनशील हुआ है समाज
सेक्टर 36 देखने के बाद कोरियन ड्रामा की शौकीन एक साथी जर्नलिस्ट का कहना था कि उनको विक्रांत के किरदार में वह क्रूरता महसूस नहीं हुई जो होनी चाहिए थी। शायद कोरियन ड्रामा देख-देखकर उन्हें ऐसे सीन्स निर्मम नहीं आम लगते हैं। तो क्या पर्दे पर हिंसा या क्रूरता भरे सीन देखना हमें असंवेदनशील बना सकता है?
फिल्मों की हिंसा पर डॉक्टर्स की राय
इस सवाल पर जाने-माने मनोचिकित्सक डॉक्टर हरीश शेट्टी का कहना है, ‘सिनेमा समाज का ही आईना होता है। सिनेमा वही दिखाता है, जो समाज में चल रहा होता है। दरअसल, हम समाज के तौर पर ही वॉयलेंस के प्रति असंवेदनशील हुए हैं। बीते सालों में आतंकवाद, युद्ध, अपराध की घटनाएं जिस तरह बढ़ी हैं, उसमें प्रिमिटिव इमोशंस यानी जलन, नफरत, गुस्सा, बदला प्रभावी होते हैं। जब समाज शांत होता है तो भजन गाता है, जबकि भागते हुए समाज को हिंसा अच्छी लगती है।
वायलेंस की लोगों को पड़ी आदत
ग्लोबलाइजेशन का सबसे बड़ा नुकसान ही है, डिस्कनेक्शन (अलगाव) और स्पीड ( गति)। जब गति बढ़ती है तो गर्मी बढ़ती है, उस समय प्रिमिटिव इमोशंस में लुत्फ आता है। अभी बांग्लादेश में इतने लोग मरे, हाथरस में मरे, किसी को फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि हम डीह्यूमनाइज हुए हैं, क्योंकि एक के बाद एक जब हम वॉयलेंस देखते हैं तो एक आदत सी हो जाती है। आज टीवी पर, न्यूज में हर जगह तो अपराध की खबरों का बोलबाला है, इसलिए लोगों को अब ये चीजें चौंकाती नहीं।’