व्यंग्य: हंसने की आजादी थी तो लोग मुखिया जी पर हंसते थे, लेकिन अब…

रोने की आजादी तो हर देश में हर समय होती है मगर उस देश की विशेषता यह थी कि उसमें हंसने की भी पूरी आजादी थी। बहाना की देर थी, लोग अपनी -अपनी तरह से हंसने लगते थे और हंसते ही चले जाते थे। बिना किसी भेदभाव के सब हंसते थे। बच्चे भी, बूढ़े भी। औरतें भी, मर्द भी। किसान भी, मजदूर भी। अफसर भी, क्लर्क भी। दलित भी, सवर्ण भी। शहरी भी, ग्रामीण भी‌‌। हंसना सिर्फ उनकी आदत नहीं थी, उनका राष्ट्रीय संस्कार बन चुका था। एक अच्छी बात यह थी कि लोग ताकतवरों पर हंसते थे।

हां हंसने के सबके अपने- अपने अंदाज थे। कोई खुलकर हंसता थे तो कोई फिस्स करके हंसते थे। कोई सकारण कम, अकारण अधिक हंसते थे। कुछ ऐसे थे, उनकी बात पर कोई हंसे न हंसे, वे खुद देर तक अपनी बात पर हंसते थे। किसी और के नहीं हंसने पर वे दुखी हो जाते थे। बाज दफे उन्हें गुस्सा आ जाता था। गुस्से में उन्हें दूसरे की किसी बात पर हंसी आती थी, तो भी नहीं हंसते थे मगर बहुत देर तक वे हंसी रोक भी नहीं पाते थे।

कुछ को हंसना नहीं आता था, वे हंसने का अभिनय करते थे। कुछ स्वास्थ्य बनाने की फ़िक्र में सुबह- सुबह सामूहिक रूप से कर्कश ढंग से हा- हा, ही-ही, हू -हु, हू-हू हो- हो, हं-हं ,ह : -ह : करते थे। कुछ जो बड़े पदों पर थे,  सामनेवाले का पद देखकर हंसने या न हंसने का निर्णय करते थे। जब वे अपने मातहतों को हंसाने की कोशिश करते थे तो इस बात पर पैनी निगाह रखते थे कि उनकी बात पर कौन, कितना कम या कितना अधिक हंसा और कौन बिलकुल नहीं हंसा! अपने मातहतों की कार्यक्षमता का आकलन वे इसी आधार पर करते थे।

कुछ केवल दूसरों की मूर्खता पर हंसते थे और कुछ अपनी मूर्खता पर भी हंसना जानते थे। कुछ तो इतना हंसते थे, जितना कि लोग अमूमन दूसरों की मूर्खता पर भी नहीं हंसते। ऐसों को कोई उनके मुंह पर मूर्ख कह देता था तो इस बात पर भी वे हंस देते थे। अपने पर हंसने वालों को वे भ्रम में डाल देते थे !

कुछ बेहिसाब हंसते थे और कुछ हंसने का पाई- पाई का हिसाब रखते थे। एक पाई भी अधिक खर्च हो जाए तो परेशान हो जाते थे। उन्होंने अपने लिए हंसने का मासिक कोटा तय कर रखा था। उससे कम हंसने में वे अपना गौरव मानते थे और इससे अधिक हंसना वे अपनी शान के खिलाफ समझते थे। मान लो, किसी महीने, किसी मजबूरी में उन्हें अधिक हंसना पड़ जाता था तो अगले महीने कम हंसकर वे हिसाब बराबर कर लेते थे।

कुछ हिसाब से हंसनेवालों पर और कुछ बेहिसाब हंसनेवालों पर हंसते थे। कुछ मुसीबत पड़ने पर भी हंसते थे और कुछ मुसीबत को छोड़कर बाकी सब समय हंसते थे। कुछ अपने  दुख, परेशानी या भूख को छुपाने के लिए हंसते  थे। उनकी हंसी का फीकापन, नकलीपन न कोई पकड़ ले, इसलिए हंसी को जितना संभव था, उतना स्वाभाविक रंग देते थे और बाद में इस पर एकांत में रोते थे।

कुछ तो समझते थे,  हंसने के लिए ही वे इस दुनिया में पैदा हुए हैं और मरेंगे भी हंसते -हंसते। या तो हंसते- हंसते उनका हार्टफेल हो जाएगा या कोई उन्हें मार देगा कि इसे हमेशा हंसी क्यों आती रहती है? जरूर यह हम पर भी हंसता होगा।

हंसने का स्वभाव था तो लोग सरकार के मुखिया जी पर भी हंसते थे और जी खोलकर हंसते थे। अनेक बार हंसते -हंसते लोटपोट हो जाते थे ।उन पर हंसने को वे अपना नागरिक अधिकार और कर्तव्य, दोनों मानते थे। मुखिया जी इससे दुखी हो सकते हैं, इसकी सजा दे सकते हैं ,इस डर को परे रखकर वे बेखौफ हंसते थे। मुखिया जी इधर -उधर की बातें करके ध्यान भटकाते थे तो लोग थोड़ी देर भटक जाते थे, पर  फिर मुखिया जी पर हंसने लग जाते थे। कुछ तो मानते थे कि मुखिया जी की बातों या उनके काम पर न हंसना उनका अपमान करना है और उनका अपमान राष्ट्र का अपमान है, इस कारण हंसते थे।

दोष लोगों का भी नहीं था और मुखिया जी का भी नहीं। वह करतब ही ऐसे करते थे कि कोई हंसे बिना रह नहीं सकता था! वह अत्यंत कृपालु थे। अपने पर हंसने के अवसर लोगों को बार -बार देते थे और लोग भी इतने चालू थे कि इसका फायदा उठाने से चूकते भी नहीं थे। उनके दरबारियों की बातों पर भी लोग हंसते थे, ताकि उन्हें बुरा न लगे कि उनसे अधिक बुद्धिमान उनके दरबारियों को माना जा रहा है!

अपनी हंसी उड़ने के कारण मुखिया जी और उसके दरबारियों का मनोबल बहुत गिर  रहा था। उनकी घबराहट दिनों-दिन बढ़ रही थी। इस गिरे हुए मनोबल को उठाने के लिए उन्होंने यह  प्रचार किया कि हंसना नागरिकों का न तो जन्मसिद्ध अधिकार है, न यह उनका  संवैधानिक अधिकार है। आगे से लोगों को हंसने का लाइसेंस लेना होगा और लाइसेंस उसी को मिलेगा, जो मुखिया जी पर नहीं हंसने के कानूनी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करेगा।

यह सुनकर तो लोग इतना हंसे, इतना हंसे कि एकबार तो लगा कि लोग कहीं पागल तो नहीं हो गए  हैं!

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