अमिताभ बनर्जी
डॉक्टरों और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों में महामारीविद् सबसे कम जानकार और कुशल होते हैं। हालांकि व्यापक स्वास्थ्य के लिए बीमारी और स्वास्थ्य के मोटे तौर पर मूल्याांकन के नजरिये से कम प्रशिक्षित होना कमजोरी की जगह फायदेमंद भी हो सकता है क्योंकि इस काम के लिए दिमाग एकदम साफ और निष्पक्ष होना चाहिए। ज्यादा विद्वतापूर्वाग्रहों और अनावश्यक भटकाव की ओर ले जाती है।
महामारीविदों की तुलना अपराध स्थल पर वैसे पुलिस कांस्टेबलों से की जा सकती है जो अपराध या मृत्यु की जांच के दौरान ‘पंचनामा’, यानी गवाहों की गवाही समेत वहां मौजूद तमाम सबूतो को रिकॉर्ड करते हैं। यह जांच का सबसे प्रारंभिक स्तर है जिसमें अपराध स्थल पर मौजूद हर सबूत को रिकॉर्ड किया जाता है और इस दौरान किसी भी बात को सिद्ध या खारिज करने के लिहाज से कुछ नही किया जाता।
बस सीधा काम है- जो सबूत है, उसे रिकॉर्ड पर ले आओ। इस तरह तैयार ‘पंचनामा’ वह दिशा दिखाता है कि आगे की गहन जांच किन बातों को ध्यान में रखकर की जाए। वैसे, आगेकी कार्रवाई और पूछताछ उच्च अधिकारियों पर निर्भर करती है। केस को या तो बंद कर दिया जाता है या फिर जरूरत के हिसाब से आगे बढ़ाया जाता है।
चिकित्सकों के पास यह मौका होता है कि वे रोजाना बेहतर हो रही तकनीकों के साथ एक से एक जटिल क्लीनिकल स्थितियों का समाधान करें और अपने कौशल को बेहतर से बेहतर करें। लेकिन महामारी विज्ञानियों के साथ ऐसा नहीं। बीट कांस्टेबल की तरह उन्हें बस औसत बुद्धिमान होना चाहिए जो घटनास्थल से सबूत इकट्ठा करने से लेकर आम लोगों के स्वास्थ्य के मामले में किसी नतीजे पर पहुंचने में सामाजिक वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों और संबंधित अन्य लोगों की मदद कर सकें।
सार्वजनिक स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के मामले में तमाम दुविधाओं को खत्म करने में उनकी भूमिका होती है। उदाहरण के लिए, भारत में कुपोषण की वजह से रोजाना 2,000 से ज्यादा बच्चे डायरिया और गैर-कोविड-19 श्वसन संक्रमण जैसे रोके जा सकने वाले कारणों से मर जाते हैं। इनमें से ज्यादातर मौतों को सिर्फ सुरक्षित पेयजल, साफ-सफाई, आवास और सबको निहायत जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं और पोषण सुनिश्चित करके रोका जा सकता है।
इस तरह के बुनियादी और मामूली उपायों की तुलना में कोविड को लेकर हमारे व्यवहार को देखा जाना चाहिए। कोविड की वैक्सीन को न केवल फास्ट ट्रैक पर डालकर विकसित किया गया बल्कि 36 तो पाइपलाइन में हैं। सेलिब्रिटी चिकित्सक, खिलाड़ी, फिल्मी सितारे और बॉलीवुड गायक उन्हें प्रचारित कर रहे हैं। इसमें कहीं अधिक ग्लैमर है, सड़क पर नई कार की तरह।
सोशल मार्केटिंग ने नीरस और शुष्क विज्ञान का स्थान ले लिया है। आंकड़ों की तुलना में नारे जनता को अधिक लुभाते हैं। वे आंकड़े जो बहुत कम मृत्यु दर वाली बीमारी पर लगाए जा रहे संसाधनों के औचित्य पर सवाल उठा सकते थे। यहां तक कि हमने इस बुनियादी वैज्ञानिक सच्चाई को भी नजरअंदाज कर दिया कि प्राकृतिक तरीके से संक्रमण होने के बाद जो प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है, वह कहीं अधिक मजबूत होती है।
इसे छोड़कर व्यापक वैक्सीनेशन को मुद्दा बनाया जाता रहा। जिस भी व्यक्ति ने व्यापक टीकाकरण पर संदेह जताया, उसे एंटी-वैक्सीनेशन करार देदिया गया।
व्यापक वैक्सीनेशन के एक साल बाद वैश्वविक स्तर पर उभरने वाले वास्तविक आंकड़ों से जो पैटर्न और रुझान उभर रहे हैं, वे चिंताजनक हैं। बड़़े पैमाने पर वैक्ससीन रोलआउट से पहले और बाद में कुछ देशों के संक्रमण और मौतों के पैटर्न पर गौर करें तो स्थिति अपने आप साफ हो जाती है। जापान में अप्रैल, 2021 में वैक्सीन लगाया जाना शुरू हुआ और 7 मार्च, 2022 तक वहां 79.61 फीसदी आबादी का पूर्ण जबकि 1.17 फीसदी का आंशिक वैक्सीनेशन हो चुका था।
लेकिन वैक्सीन लगने के बाद धीरे-धीरे संक्रमण बढ़ता गया और 24 फरवरी, 2022 तक संक्रमण के रोजाना मामले एक लाख हो गए। अमेरिका में दिसंबर, 2020 में वैक्सीन लगना शुरू हुआ और 7 मार्च, 2022 तक 64.88 फीसदी लोगों का पूर्ण वैक्सीनेशन हो चुका था। इसके बाद भी फरवरी के मध्य तक वहां रोजाना औसतन दो हजार लोगों की संक्रमण से मौत होती रही।
इंग्लैंड में दिसंबर, 2020 में लोगों को वैक्सीन मिलना शुरू हुआ और 7 मार्च, 2022 तक वहां 72 फीसदी लोगों का वैक्सीनेशन हो चुका था फिर भी वहां फरवरी के महीने में रोजाना औसतन सौ से ज्यादा लोगों की मौत होती रही। इन सब आंकड़ों को पब्लिक डोमेन (वर्ल्डोमीटर और वैक्सीन ट्रैकर) से इकट्ठा किया गया है और ये बड़े ही निराशाजनक हैं। सबने उम्मीद की थी कि व्यापक वैक्सीनेशन के बाद संक्रमण के मामलों और मौतों की संख्या में कमी आएगी। लेकिन ये आंकड़े कुछ और ही बयां कर रहे हैं।
क्या इस विरोधाभास की जांच की जरूरत नहीं है?
हालांकि यूरोपियन जर्नल ऑफ एपिडेमियोलॉजी में प्रकाशित एक कहीं बड़े अध्ययन में 68 देशों और 2947 अमेरिकी काउंटियों से आंकड़े जुटाए गए जिससे पता चता है कि व्यापक वैक्सीनेशन और संक्रमण के मामलों में वृद्धि के बीच कोई रिश्ता नहीं है। इस महामारी के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि महामारी विज्ञानियों के बजाय चिकित्सकों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति तय की जिसमें लॉकडाउन, मास्क को जरूरी बनाना और सामूहिक टीकाकरण शामिल हैं।
ज्यादातर सफल चिकित्सक आज मीडिया के प्रचार और चिकित्सा प्रौद्योगिकी में प्रगति के कारण सेलिब्रिटी बन गए हैं। उन्हें आम लोगों से लेकर नीति निर्धारकों का भरोसा प्राप्त है। इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि अपनी विशेषता में सक्षम होने के बावजूद, उनमें जनसंख्या के स्तर पर स्वास्थ्य और बीमारियों से संबंधित बड़ी तस्वीर को लेकर समझ कम है।
किसी महामारी के समय नीति निर्माण के शीर्ष पर एक चिकित्सक की तुलना ऐसे व्यक्ति से की जा सकती है जिसे अनुभव तो केवल दोपहिया वाहन चलाने का होता है लेकिन वह अचानक खुद को हाईवे पर भारी-भरकम ट्रक की स्टीयरिंग के पीछे पाता है। वास्तविक वैश्विक डेटा उस ‘पंचनामे’ की तरह है जिसके लिए ऐसे जानकार शोधकर्ताओं की जरूरत होती है जो निष्पक्ष और किसी भी पूर्वाग्रह से मुक्त हों।
इन आंकड़ों की जांच इसी तरह होनी चाहिए लेकिन अफसोस की बात है कि जटिल और अमूर्त गणितीय मॉडल को सामने रखकर उठाए गए सार्वजनिक कदमों को सही ठहराया जाता है चाहे वह लॉकडाउन हो, स्कूल बंदी हो, मास्क पहनने को अनिवार्य करना हो या अब सामूहिक टीकाकरण।
लैंसेट में प्रकाशित ऐसा ही एक हालिया गणितीय मॉडल बताता है कि वैक्सीन रोलआउट की वजह से पहले साल के दौरान 1.44 से 1.98 करोड़ मौतों को टाला जा सका। इस गणितीय मॉडलिंग अध्ययन को बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन, डब्ल्ययूएचओ और अन्य हितधारकों द्वारा वित्त पोषित किया गया था! अब यह पाठकों पर निर्भर करता है कि वे आभासी वास्तविकता का खाका खींचने वाले गणितीय मॉडलिंग के विज्ञान पर भरोसा करें या फिर वास्तविक दुनिया से इकट्ठा किए गए आंकड़ों के ‘पंचनामे’ पर जो पब्लिक डोमेन में हैं और कोई भी इसकी सच्चाई जांच सकता है।
उम्मीद है कि ‘कांस्टेबल स्तर’ के इस पंचनामे पर हमारे ‘चौकीदार’ या चौकीदारों ने गौर किया होगा और इस मामले में गहन वैज्ञानिक तफ्तीश का रास्ता निकलेगा।
(लेखक डीवाई पाटिल मेडिकल कॉलेज में कम्युनिटी मेडिसिन विभाग के प्रमुख हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)