शाही ईदगाह मस्जिद के कब्जे की जमीन पर सुनवाई 30 सितंबर को

मथुरा। श्रीकृष्ण जन्मभूमि की 13.37 एकड़ भूमि के मालिकाना हक को लेकर दाखिल याचिका पर अब 30 सितंबर को सुनवाई होगी। सोमवार को मथुरा की सीनियर सीनियर सिविल जज छाया शर्मा की अदालत में जैसे ही इस प्रकरण की फाइल पहुंची तो उन्होंने महज पांच मिनट के भीतर इसकी अगली तिथि तय कर दी।

याचिकाकर्ता विष्णु जैन के पिता व वकील हरि शंकर जैन ने बताया कि उनकी पिटीशन पर 30 सितंबर की तारीख मिली है। अदालत को यह तय करना था कि इस याचिका को स्वीकार किया जाए नहीं? फिलहाल अभी इस पर निर्णय नहीं लिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के वकील ने दाखिल की है याचिका

दरअसल, बीते शनिवार को भगवान श्रीकृष्ण विराजमान की ओर से सुप्रीम कोर्ट के वकील विष्णु शंकर जैन ने मथुरा की अदालत में एक सिविल केस दायर किया है। इसमें 13.37 एकड़ जमीन पर दावा करते हुए स्वामित्व मांगा गया है और शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग की गई। इसमें जमीन को लेकर 1968 के समझौते को गलत बताया। यह केस भगवान श्रीकृष्ण विराजमान, कटरा केशव देव खेवट, मौजा मथुरा बाजार शहर की ओर से वकील रंजना अग्निहोत्री और 6 अन्य भक्तों की ओर से दायर किया गया है।

याचिका में दावा- जिस जगह मस्जिद खड़ी है, वही असली कारागार

याचिका ‘भगवान श्रीकृष्ण विराजमान’ और ‘स्थान श्रीकृष्ण जन्मभूमि’ के नाम से दायर की गई है। इसके मुताबिक, जिस जगह पर शाही ईदगाह मस्जिद खड़ी है, वही जगह कारागार था, जहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था।

वकील हरिशंकर जैन और विष्णु शंकर जैन ने बताया कि याचिका में अतिक्रमण हटाने और मस्जिद को हटाने की मांग की गई है। हालांकि, इस केस में Place of worship Act 1991 की रुकावट है। इस ऐक्ट के मुताबिक, आजादी के दिन 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस संप्रदाय का था, उसी का रहेगा। इस ऐक्ट के तहत सिर्फ रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को छूट दी गई थी।

क्या है 1968 समझौता?

1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाकर यह तय किया गया कि वहां दोबारा भव्य मंदिर का निर्माण होगा और ट्रस्ट उसका प्रबंधन करेगा। इसके बाद 1958 में श्रीकृष्ण जन्म स्थान सेवा संघ नाम की संस्था का गठन किया गया था। कानूनी तौर पर इस संस्था को जमीन पर मालिकाना हक हासिल नहीं था, लेकिन इसने ट्रस्ट के लिए तय सारी भूमिकाएं निभानी शुरू कर दीं।

इस संस्था ने 1964 में पूरी जमीन पर नियंत्रण के लिए एक सिविल केस दायर किया, लेकिन 1968 में खुद ही मुस्लिम पक्ष के साथ समझौता कर लिया। इसके तहत मुस्लिम पक्ष ने मंदिर के लिए अपने कब्जे की कुछ जगह छोड़ी और उन्हें (मुस्लिम पक्ष को) उसके बदले पास की जगह दे दी गई।

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