संजय कुमार का कॉलम: जब महंगाई-बेरोजगारी मुद्दा नहीं तो प्रदूषण कैसे होगा?

क्या कारण है कि भारत में होने वाले किसी भी चुनाव में पर्यावरण कभी कोई मुद्दा नहीं होता? इसका मुख्य कारण यह है कि चुनाव और पर्यावरण- ये दोनों शब्द ही एक-दूसरे से अपरिचित हैं। ये दोनों पूरी तरह से दो भिन्न दुनियाओं के शब्द हैं। अगर ये एक-दूसरे से विपरीत दिशाओं में यात्रा नहीं करते तो कम से कम रेल की पटरियों की तरह समांतर जरूर चलते हैं, जिनका कभी मेल नहीं हो सकता।

हर साल दिवाली के बाद खासतौर पर बड़े शहरों में प्रदूषण के स्तर को लेकर बहुत शोरगुल होता है। शुक्र है कि इस बार ऐसी स्थिति नहीं है, लेकिन इसका श्रेय सरकार को नहीं जाता है। इसका कारण यह बताया जा रहा है कि इस बार तेज हवाएं विशेषकर दिल्ली के दिवाली-उपरांत प्रदूषण को अपने साथ बहा ले गई हैं। तो इस साल भले ही इस बारे में अधिक बात न हुई हो, अनेक वर्षों से यह बहस का मुद्दा बना रहा है।

लोग इसके लिए सरकार को दोष देते हुए कहते हैं कि वह इस बारे में कुछ करती क्यों नहीं और राजनीतिक दल इस समस्या की उपेक्षा क्यों करते हैं? ऐसा नहीं कि राजनीतिक दलों को इस बारे में चिंता नहीं होती, लेकिन वह दिवाली के बाद चंद ही दिनों तक बनी रहती है। वादे किए और भुला दिए जाते हैं। लेकिन भारत की चुनावी-राजनीति में पर्यावरण कभी भी अहम मसला नहीं बन पाता।

यह स्थिति तब है, जब हमारे पास पर्यावरण के मामलों के लिए एक पूरा मंत्रालय बना हुआ है। यह स्थिति उतनी ही विचित्र है, जितना कि राजनीति में जाति और धर्म का उपयोग किया जाना। वैसे तो जाति और धर्म के आधार पर वोटरों को एकजुट करना कानूनी रूप से प्रतिबंधित है, लेकिन इन दोनों का उपयोग राजनीतिक दलों के द्वारा अपने हित में बहुतायत से किया जाता है। पर्यावरण का प्रश्न महत्वपूर्ण है भी और नहीं भी है।

महत्वपूर्ण इसलिए है कि पर्यावरण का तेज गति से क्षय हो रहा है और विशेषकर शहरी वर्ग इसको लेकर बहुत चिंतित है। वायु प्रदूषण का तो सीधा सम्बंध सांसों की अनेक बीमारियों से है। लेकिन साथ ही अगर हम चुनावी राजनीति के परिप्रेक्ष्य से देखें तो यह मसला महत्वपूर्ण नहीं है। मेरा मत है कि राजनीति और पर्यावरण एक-दूसरे से इतने अजनबी हैं कि वे आपस में कभी बतियाते ही नहीं हैं।

न तो राजनीतिक दल, न उम्मीदवार और न ही मतदाता कभी इसके बारे में चुनावों के समय चर्चा करते हैं। अगर आप पिछले कुछ चुनावों में विभिन्न दलों के घोषणा-पत्रों को देखें तो पाएंगे कि वे पर्यावरण में सुधार का कभी उल्लेख नहीं करते। अलबत्ता राजनीतिक दल अपने ही घोषणा-पत्रों को गम्भीरता से नहीं लेते हैं, क्योंकि वोटर भी उन पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। इसका कारण है घोषणा-पत्रों में किए जाने वाले वादे।

हाल के दिनों में चुनाव आयोग ने इस पर बहस शुरू की है कि क्या राजनीतिक दलों को चुनावी वादों के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए, लेकिन यह बहस अभी अपने शुरुआती दौर में ही है। अगर कोई पार्टी अपने मैनिफेस्टो में पर्यावरण-सुधार को जगह देती है तो कम से कम एक शुरुआत तो हो सकेगी। अभी तो हम एक शुरुआत की ही बाट जोह रहे हैं।

राजनीति केवल चुनाव जीतने के लिए नहीं होती, फिर भी चुनाव जीतना उसका सबसे बुनियादी आयाम है। राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को यह पता चल चुका है कि वोटरों को पर्यावरण के प्रश्न पर एकजुट नहीं किया जा सकता। इसके बजाय जाति और धर्म के आधार पर उनके लामबंद होने की सम्भावना अधिक है। भारत में जाति-आधारित मतदान की प्रवृत्ति बहुत प्रबल है।

धार्मिक पहचान और प्रतीकों का उपयोग भी प्रभावी तरीके से किया जाता है। जब एक आजमाई हुई युक्ति कारगर साबित होती हो तो राजनीतिक दल किसी दूसरे उपकरण का उपयोग क्यों करें? कुछ वोटर जरूर पर्यावरण के प्रति सजग हैं, लेकिन बहुतेरों की स्थिति यह है कि जब वे किसी पार्टी को वोट देने का मन बना लेते हैं तो फिर पर्यावरण के मुद्दे की ज्यादा चिंता नहीं करते।

हाल में हुए कुछ विधानसभा चुनाव इसका बेहतरीन उदाहरण हैं और वे यह बताते हैं कि वोटरों के निर्णय मुद्दों के बजाय किसी दूसरी चीज से प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि महंगाई और बेरोजगारी के बावजूद विपक्ष भाजपा को हरा नहीं पा रहा है। जब बुनियादी महत्व के इतने बड़े मसलों पर विपक्ष वोटरों को लामबंद नहीं कर पाया तो पर्यावरण जैसे मुद्दों से क्या उम्मीद की जा सकती है?

राजनीतिक दलों को यह पता चल चुका है कि वोटरों को पर्यावरण के प्रश्न पर एकजुट नहीं किया जा सकता। इसके बजाय जाति और धर्म के आधार पर उनके लामबंद होने की सम्भावना अधिक है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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