स्थाई सदस्यता चाहिए तो भारत को करनी होगी मानवाधिकारों की रक्षा

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 15 सदस्य हैं। इनमें से पांच स्थाई और 10 निर्वाचित सदस्य हैं। भारत आठ बार सुरक्षा परिषद का गैर-स्थाई यानी अस्थाई सदस्य रह चुका है। आखिरी बार यह 2021-22 में परिषद में था। और अब भारत ने 2028-2029 के लिए अपना दावा पेश किया है। दुनिया के सबसे बड़े देश और एक लोकतंत्र होने के नाते हमारा हक है कि हमारी आवाज इस वैश्विक मंच पर सुनी जाए।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के तत्कालीन उच्चायुक्त मिशेल बैचलेट ने 2021 में कहा था, “हालांकि यह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की प्राथमिक जिम्मेदारी है, लेकिन मानवाधिकारों को बढ़ावा देना और उनकी रक्षा करना संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के लिए अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के अपने जनादेश को हासिल करने के सबसे अच्छे तरीकों में से एक है।”

इसे ध्यान में रखते हुए, आइए पिछले कुछ वर्षों में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार व्यवस्था के साथ भारत की भागीदारी पर एक नज़र डालें।

तथ्य यह है कि भारत संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में कभी भी एक मजबूत नेतृत्व के तौर पर नहीं रहा, जो मानवाधिकार मूल्यों के जरूरी तौर-तरीकों कठिन और सैद्धांतिक रुख अपनाने को तैयार हो, न ही वह परिषदीय व्यवस्था के साथ विशेष रूप से रचनात्मक रूप से जुड़ा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के कुल 18 साल के कार्यकाल के दौरान भारत 16 साल तक इसका सदस्य रहा है। सबसे ताजा कार्यकाल 2019 से 2024 का है। मानवाधिकार परिषद के गठन के लिए लाए गए प्रस्ताव संख्या 60/251 में कहा गया है कि, “परिषद के सदस्य मानवाधिकारों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा के लिए उच्चतम मानकों का पालन करेंगे, परिषद के साथ पूरा सहयोग करेंगे, समय-समय पर उनकी भागीदारी और सदस्यता की शर्तों की सार्वभौमिक समीक्षा होगी।”

वर्ष 2019 से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों और मानवाधिकार आयोग के कार्यालय की तरफ से जारी 25 आलोचनात्मक बयानों में भारत एक विषय रहा है। इनमें सदस्यता के अंतिम दो कार्यकालों के दौरान भारत के घरेलू मानवाधिकार मुद्दों और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार जिम्मेदारियों को निभाने में नाकामी पर चिंता व्यक्त की गई।

भारत सरकार को 24 जनवरी 20211 से 24 सितंबर 2024 के दौरान संयुक्त राष्ट्र की विशेष प्रक्रिया के तहत 200 से ज्यादा संदेश दिए गए जिन्हें मानवाधिकार आयोग द्वारा नियुक्त ऐसे स्वतंत्र विशेषज्ञों ने तैयार किया था जिन्हें पूरी दुनिया में मानवाधिकारों की निगरानी के लिए नियुक्त किया गया है। इनमें से एक तिहाई से भी कम संदेशों का भारत सरकार ने जवाब दिया। भारत ने 2014 के बाद संयुक्त राष्ट्र की विशेष टीम को सिर्फ दो बार भारत आने का निमंत्रण दिया जबकि सदस्य देशों के लिए जरूरी होता है। फिलहाल भारत के पास 19 ऐसे यात्रा निवेदन लंबित हैं। कई तो 1999 से लटके हुए हैं।

आयोग ने अपने पिछले वैश्विक सार्वभौमिक समीक्षा में 21 देशों ने भारत से धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा में सुधार करने का आग्रह किया, जिसमें कई देशों ने बढ़ती हिंसा और अभद्र भाषा और सरकार द्वारा “धर्मांतरण विरोधी” कानूनों जैसी भेदभावपूर्ण नीतियों को अपनाने पर चिंता जताई। यह समीक्षा एक ऐसी प्रणाली है जिसके द्वारा प्रत्येक देश के मानवाधिकार रिकॉर्ड की जांच की जाती है और सुधार के लिए सिफारिशें की जाती हैं।

इसके अलावा 19 देशों ने कहा कि भारत को यातना विरोधी संयुक्त राष्ट्र संधि की पुष्टि करनी चाहिए। यह एक ऐसी संधि है जिस पर हमने 1997 में हस्ताक्षर किए थे लेकिन कभी इसकी पुष्टि नहीं की। वैसे भारत ने 2012 और 2017 की सार्वभौमिक समीक्षा के दौरान कहा था कि वह संधि की पुष्टि करने के लिए प्रतिबद्ध है। फिर भी भारत ने इस प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। जबकि इस दौरान भारत में पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों द्वारा निगरानी करने या “जबरन जुर्म स्वीकारने” के लिए नियमित रूप से लोगों को यातना देने और अन्य दुर्व्यवहार की बातें सामने आती रहीं।

वैसे भारत मानवाधिकारों पर हुई कुल 9 संधियों में से सिर्फ 6 में ही हस्ताक्षरकर्ता है महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन संबंधी कन्वेंशन और बाल अधिकार कन्वेंशन से जुड़ी भारत की रिपोर्टें भी अभी भी जमा नहीं की गई हैं।

भारत ऐसी दो रिपोर्ट में विषयवस्तु रहा है। 2018 और 2019 में मानवाधिकार आयोग के कार्यालय से कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघन पर दो रिपोर्ट आई थीं। दोनों रिपोर्ट में भारतीय अधिकारियों से इलाके में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों का सम्मान करने का आग्रह किया गया था। साथ ही सशक्त बल विशेषाधिकार अधिनियम (जम्मू-कश्मीर) और जम्मू-कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट जैसे कानूनों में बदलाव करने या उन्हें रद्द करने को कहा गया था। इसके अलावा पत्रकारों पर लगाए सारे प्रतिबंधों को खत्म करने का भी आह्वान किया गया था। इसका जवाब देने के बजाए भारत ने ऐसी रिपोर्ट्स को झूठा और बदनियती से जारी करने की बात कहते हुए मानवाधिकार आयोग पर आतंकवाद को वैध ठहराने का आरोप लगाया था।

भारत को लगातार संयुक्त राष्ट्र महासचिव की ऐसी रिपोर्ट में शामिल किया गया है, जिसमें मानवाधिकारों के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग करने के लिए व्यक्तियों और संगठनों के खिलाफ़ कथित बदले की कार्यवाही जैसे मामलों को शामिल किया गया है। 2020 की रिपोर्ट में, महासचिव ने निष्कर्ष निकाला कि भारत में “चल रही धमकी और प्रतिशोध की कार्यवाहियों ने कथित तौर पर नागरिक समाज के प्रतिनिधियों में भय पैदा किया है और उन्हें कार्यवाही के डर से संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग करने से रोक दिया है।”

सवाल है कि आखिर भारत की संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शामिल होने की कोशिशों के संदर्भ में मानवाधिकार आयोग के साथ विश्वसनीय जुड़ाव क्यों महत्वपूर्ण है? दरअसल सुरक्षा परिषद में सुधारों के बारे में चर्चा उम्मीदवारों के संयुक्त राष्ट्र के अन्य निकायों, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण मानवाधिकारों के मोर्चे पर प्रदर्शन और व्यवहार है, उसे अलग करके नहीं की जानी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र के किसी भी अंग की सदस्यता का इस्तेमाल मानवाधिकारों का ध्यान रखने और उनकी रक्षा करने के लिए किया जाना चाहिए, न कि सदस्य देशों या उनके सहयोगियों को उनके मानवाधिकार रिकॉर्ड की जांच से बचाने के लिए।

सभी देशों के लिए यही शर्त होनी चाहिए और इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि इस मुद्दे पर अन्य देश भी उतने ही बुरे या उससे भी बदतर हैं। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि भारत अपने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों और एक सदस्य के रूप में अपनी प्रतिबद्धताओं और संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न निकायों और तंत्रों के साथ अपने संबंधों में फिसड्डी रहा है।

सुरक्षा परिषद में सुधार पर चर्चा जल्द ही समाप्त नहीं होने वाली, लेकिन अगर भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने के अपने इरादे के बारे में गंभीर है, तो उसे सुनिश्चित करना होगा कि वह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं के साथ जिम्मेदारी से जुड़ सकता है। उसे मानवाधिकार आयोग की सदस्यता मानदंडों का सुसंगत और सैद्धांतिक तरीके से पालन करना होगा। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार तंत्र के साथ पूर्ण सहयोग करने के लिए मानवाधिकारों के प्रचार और संरक्षण में उच्चतम मानकों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा।

लेकिन जब ​​हम जानबूझकर सही काम नहीं करने का विकल्प चुनते हैं तो हम अपने अवसरों को ही नुकसान पहुंचाते हैं और उन्हें खो सकते हैं।

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