‘हर घर तिरंगा’ से मुंह क्यों छिपा रहा है संघ! राष्ट्रीय ध्वज में आस्था ही नहीं

नई दिल्ली। यह विडंबना के साथ ही पीड़ादायक भी है कि आजादी के 75वें वर्ष में बीजेपी हमारे तिरंगे का एक तरह से अपहरण कर रही है जिसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ ने 2002 तक नागपुर स्थित अपने मुख्यालय पर कभी तिरंगा नहीं फहराया।

वे आजादी का महोत्सव मनाएं इससे कोई दिक्कत नहीं है, आखिर वे सत्ता में हैं। लेकिन उनकी आस्था तिरंगे में है ही नहीं और ‘हर घर तिरंगा’ अभियान के जरिए हमेशा की तरह उनकी मंशा अपने पूंजीपति मित्रों को लाभ पहुंचाना ही है। शायद यही कारण है कि पीएम की अपील के बाद भी आरएसएस ने अपने सोशल मीडिया की प्रोफाइल फोटो में तिरंगा नहीं लगाया है क्योंकि संघ को पता है कि इसका राष्ट्रवाद से उतना लेनादेना नहीं है जितना कि पूंजीवाद या कारोबार से है, और वह भी सिर्फ एक व्यक्ति और एक राज्य को मशीन द्वारा पॉलिएस्टर से बने झंडे बनाने का ठेका देने से है।

हमारी झंडा संहिता के मुताबिक तिरंगा हमेशा से हथकरघा पर बनी खादी से तैयार होता रहा है। मेरी राय में हथकरघा पर तिरंगा बनाकर जीवनयापन करने वाली महिलाओं को स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे मौकों पर तिंरगे की बिक्री से होने वाले लाभ से वंचित करना पूरी तरह से देशविरोधी काम है।

एक छात्र के रूप में, मुझे तिरंगे के बारे में बहुत ही सामान्य किताबी ज्ञान था। लेकिन इसके असली महत्व से मुझे स्वतंत्रता सेनानी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के अंगरक्षक रहे चेनप्पा वीरसंगप्पा वरद ने समझाया। उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्रीय तिरंगे को समर्पित कर दिया था।

पहली बार ऐसा हुआ कि एक गणतंत्र दिवस पर वह एक पुलिस कांस्टेबल के साथ हमारे गर्ल्स हॉस्टल में आ गए क्योंकि लड़कियों ने कथित तौर पर झंडा संहिता का उल्लंघन किया था। हमारी हॉस्टल वार्डन एक एंग्लो-इंडियन महिला थीं और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल रही थीं, वह झंडा संहिता को लेकर काफी सख्त थीं। उस दिन बाकी लोगों के लिए शायद छुट्टी का दिन होता था लेकिन उनके हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों को उस दिन बहुत सवेरे भोर में जागना पड़ता था और सफेद सूती कपड़े पहनकर सूर्य के पूरी तरह उदय होने से पहले ही तिरंगे को फहराकर उसे सलामी देनी होती थी।

उस साल हॉस्टल के किसी कर्मचारी ने शायद नींद में ही झंडा लगाया होगा और वह उलटा लग गया, यानी हरा रंग ऊपर और केसरिया नीचे। झंडा फहराते समय भी किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया और हम लोग तो हॉस्टल में रिपब्लिक डे लंच के लिए चले आए, तभी एकदम से शोरशराबा हुआ और रिसेप्शन की तरफ से कुछ तेज आवाजें आने लगीं।

जब वरद ने हमारी वार्डन को बताया कि क्या हुआ है, तो वार्डन भी बहुत ज्यादा गुस्से में आ गईं, क्योंकि तिरंगे का अपमान करने लिए वरद ने उन्हें भी काफी खरी-खोटी सुनाई थी, साथ ही बताया था कि झंडा संहिता का उल्लंघन करने पर जेल समेत क्या सजा मिल सकती है। वार्डन अपने हाथ मलते हुए गलती की माफी मांग रही थीं, और उन्होंने कहा कि उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि झंडा उलटा लग गया है। जब हम वहां पहुंचे तो उन्होंने लगभग रुआंसे भाव से उस लड़की को डांट पिलाई जिसने झंडा लगाया था।

इस बीच कांस्टेबल को एहसास हुआ कि सबकुछ गलती से हुआ है और उसने हमसे इस गलती को फौरन सुधारने को कहा। उसने गुस्से से लाल-पीले हो रहे वरद को भी बताया कि गलती हुई है और इन लोगों के खिलाफ कोई केस दर्ज नहीं होगा।

जाहिर है इस घटना के बाद हर बार हम लोग काफी एहतियात बरतने लगे थे, लेकिन इस सबने मेरी जिज्ञासा को बढ़ा दिया था। कुछ साल बाद 1985 में कांग्रेस के शताब्दी वर्ष में एक बार फिर मैं वरद से मिली। मुझे पता चला कि इंदिरा गांधी जब अपने पहले बच्चे से गर्भवती थीं और पंडित नेहरू को जेल जाना पड़ा था तो वरद को सेवादल कार्यकर्ता और पंडित नेहरू का अंगरक्षक होने के नाते इंदिरा गांधी का ध्यान रखने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी भी उस समय जेल में थे, इसलिए पंडित नेहरू ने इंदिरा गांधी को बॉम्बे में अपनी छोटी बहन कृष्णा हट्टिसिंह के पास छोड़ दिया था।

लेकिन जब जन्म का समय आया तो उस समय कृष्णा और उनके परिवार के लोग बाहर गए हुए थे, ऐसे में वरद ही इंदिरा गांधी को अस्पताल लेकर गए थे। राजीव गांधी का जन्म हुआ तो परिवार से वहां कोई मौजूद नहीं था और नर्स ने बालक राजीव को सबसे पहले वरद की गोद में ही दिया था। वरद ने मुझे बताया (और मेरे पास वरद के दावे को मानने के अलावा विकल्प नहीं है) कि जब राजीव उनकी गोद में आए तो उन्होंने सुनिश्चित किया कि जब वे आंख खोलें तो सबसे पहले तिरंगा देखें ताकि उन्हें पता चल सके कि दुनिया में उनके पदार्पण के समय उनके पिता, नाना या परिवार का कोई और शख्स वहां मौजूद क्यों नही था।

यह एक मार्मिक कहानी है, जिसे सुनने के बाद मेरे मन में तिरंगे की महत्ता कहीं अधिक बढ़ गई। स्वतंत्रता के बाद वरद ने नेहरू के अंगरक्षक के तौर पर सेवाएं खत्म कर दी थीं, लेकिन वे तिरंग के लिए सदा समर्पित रहे। वे हर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस सड़कों पर निकल जाते और ध्यान रखते कि कहीं तिरंगे का या झंडा संहिता का किसी तरह उल्लंघन तो नहीं हो रहा है। बिल्कुल उसी तरह जैसे कि वे हमारे हॉस्टल आ धमके थे।

तिरंगे को कोई गंदा तो नहीं कर रहा, उस पर मिट्टी तो नहीं लग गई आदि आदि, इस सबका वह ध्यान रखते। वे देखते थे कि कहीं तिरंगा फटा हुआ तो नहीं है, कहीं से उधड़ तो नहीं गया है, उसे पानी में तो नहीं डाला गया है या उसे सही ऊंचाई पर ही फहराया गया है या नहीं। उन्होंने अपना जीवन तिरंगे की सेवा में लगा दिया। एक मित्र के घर की बालकनी में एक संदूक में अपना सामान रखकर जीवन गुजारा और बाद में कुछ वक्त सरकारी अस्पताल में।

उनके संदूक में एक जोड़ी कपड़े और नेहरू, गांधी के फोटो, स्वतंत्रता संघर्ष के दौर के अखबारों की कतरनें और कई तिंरगे झंडे मिले थे। इनमें वह तिरंगा भी था जिसे 9 अगस्त, 1942 को मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में उस समय फहराया गया था जहां से महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ा’ का आह्वान किया था।

वरद ने दावा किया था कि चूंकि लगभग सभी मुख्य नेता एक दिन पहले ही गिरफ्तार कर लिए गए थे, ऐसे में अगस्त क्रांति मैदान में दादाभाई नौरोजी की बेटियों ने तिरंगा फहराया था, न कि अरुणा आसफ अली ने, जैसा कि लोकप्रिय कथन में कहा जाता है। उन्होंने बताया था कि हां अरुणा आसफ अली वहां मौजूद थीं, जहां झंडा फहराया गया था, और भी बहुत सी महिलाएं वहां थी जो अपने कपड़ों में तिरंगा छिपाकर लाई थीं।

मुझे जीवन भर इसका अफसोस रहेगा कि वरद की मृत्यु एक सरकारी अस्पताल में हो गई, उस समय मैं विदेश में पढ़ाई कर रही थी, और जब तक मैं वापस आई तो किसी को नहीं पता था कि वरद के उस संदूक और उस ऐतिहासिक तिरंगे का क्या हुआ। मौका मिलता तो मैं उनकी सभी स्मृतियों को अपने पास हमेशा के लिए सहेज कर रख लेती।

तिरंगे को लेकर समर्पण की यह तो एक व्यक्ति की एक कहानी है, लेकिन देश भर में ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी होंगी। यही कारण है कि जब संघ तिरंगे का सम्मान नहीं करता है तो मेरा मन इस तथ्य को सोचकर गुस्से से भर जाता है कि 2002 तक संघ ने अपने मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया।

और 2002 में भी तब जब राष्ट्रप्रेमी युवा दल के तीन युवाओं ने जबरदस्ती संघ मुख्यालय में घुसकर भगवा झंडे को उतारा और उसकी जगह तिरंगा फहरा दिया था। संघ ने इस घटना की एफआईआर दर्ज कराई थी लेकिन नागपुर कोर्ट के जज ने इसे खारिज कर इन युवाओं को दोषमुक्त कर दिया था। इसके बाद ही संघ ने अगले साल गणतंत्र दिवस पर अपने मुख्यालय में तिरंगा फहराया था।

लेकिन इससे पहले तक तो, आरएसएस तिरंगे को कथित तौर पर बुराई का प्रतीक बताता रहा था। उसका कहना था कि इसकी तीन पट्टियां अशुभ हैं। लेकिन वह इस बात की कोई व्याख्या नहीं कर पाया कि आखिर हिंदुत्व की धारणा तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति में है, भगवान शिव का अस्त्र तो त्रिशूल ही है। ऊँ शब्द को जब देवनागरी में लिखें तो तीन अक्षर ही आते हैं और गायत्री मंत्र के भूर, भुवा और स्वाहा तो चरित्र के नियंत्रण, विचार, वचन और कर्म को निर्धारण में प्रयुक्त होते हैं और तपस्वियों का आह्वान करते हैं।

ऐसे में जब तीन पट्टियों को डेविल या दुरात्मा कहने का तर्क (वैसे भी डेविल ईसाइयों में प्रचलित है, हिंदु धर्म में इसकी कोई धारणा नहीं है) संघ नहीं पेश कर पाया तो फिर उसने स्वतंत्रता सेनानियों पर आरोप लगाया कि इसे तो फ्रांस से नकल किया गया है जहां तिरंगे रंग का अर्थ समानता, न्याय और बंधुत्व का प्रतीक है। लेकिन यह तो दरअसल हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्र निर्माताओं की प्रशंसा ही थी क्योंकि यही तीनों शब्द या भावना हमारे संविधान का मूल हैं।

इसके बाद संघ ने एक और शिगूफा छोड़ा था कि कांग्रेस ने तिरंगे का डिजायन विभिन्न धर्मों को दिखाने के लिए इस्तेमाल किया है। केसरिया को हिंदुओं को लिए, हरे को मुस्लिमों के लिए और सफेद को बाकी धर्मों के लिए इस्तेमाल किया गया। अगर यह सही भी है तो भी कोई बुरी बात नहीं है।

लेकिन दरअसल हमारे तिरंग की अवधारणा अलग है। इसमें केसरिया रंग को शांति के लिए, हरे रंग को प्रकृति के लिए, क्योंकि हम एक कृषि बहुत देश हैं और सफेद रंग को विचार, वचन और शरीर, मन और कर्मों की शुद्धता के लिए इस्तेमाल किया गया है।

इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं कि करीब आधी सदी तक आरएसएस ने अपने मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया क्योंकि वे कभी शांति के समर्थक नहीं रहे और न ही उनके चरित्र से ऐसी मंशा झलकती है। और अब जब कांग्रेस के साथ ही तमाम लोग सवाल उठा रहे हैं कि आखिर संघ ने अपने प्रोफाइल में तिरंगा क्यों नहीं लगाया तो उसके पास जवाब नहीं है। और सही भी है, कम से कम दोमुंहापन तो नहीं दिखा रहा है जैसा कि अन्य कर रहे हैं क्योंकि उनकी नजर में तो तिरंगे का कोई सम्मान है ही नहीं।

लेकिन यह उन लोगों के साथ अन्याय है जिन्होंने तिरंगे के लिए स्वतंत्रता से पहले और बाद में अपने जीवन का बलिदान दिया। राहुल गांधी सही कहते हैं कि– आरएसएएस देशभक्त संस्था नहीं है, और किसी को इसमें शक भी नहीं होना चाहिए।

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