श्याम मीरा सिंह
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एक छोटे से कबीलाई राज्य का मुखिया, दिल्ली के विशाल साम्राज्य से भिड़ने में एकपल के लिए भी नहीं अचकता, ऐसी ऐतिहासिक जिद पर कौन न इतराएगा?
लेकिन आज जबकि राजपूतों का एक बड़ा वर्ग नकली हिंदुत्व की जद में है, ऐसे में महाराणा प्रताप को सही अर्थों में सामने लाने का सही समय है.
बात पुरानी है, ऐसे समय की, जबकि दिल्ली का एक विशाल साम्राज्य छोटे-छोटे गांव-कस्बों को लीलता हुआ बढ़ रहा था, उसी समय भारत के एक महान योद्धा की जिद इतिहास में लिखी जा रही थी. उसका राज्य छोटा था, उसकी सेना उससे भी छोटी, लेकिन उसके कंधे बड़े थे, जिनपर अपनी औरतों, अपने खेतों, अपने पशुओं को बचाने का जिम्मा था. उन्हीं दिनों दिल्ली से एक बादशाह चला आ रहा था, पूरे उत्तर भारत को रोंदता हुआ. छोटे-छोटे राजाओं ने अपनी म्यान की तलवारें, उस बड़े राजा के पैरों में डाल दीं, अपने घोड़े, बड़े राजा के घोड़ों में मिला दिए. बड़े राजा की अधीनता स्वीकार करना ही उस दौर में एकमात्र और अंतिम विकल्प था.
छोटे राजाओं को दोबारा से ‘सरताज’ होने में या ‘सरकलम’ होने में से कोई एक चुनना था. प्रताप ने दूसरा विकल्प चुना. झुककर जीने का विकल्प कठिन था, लड़कर मरने का विकल्प सरल लगा. प्रताप लड़े,और खूब लड़े, घाव खाए, धरती पर सोए, लेकिन अपनी संस्कृति, अपने वतन को किसी और को सौंपने का विकल्प नहीं चुना. अपनी जाति का ही एक अन्य बड़ा राजा प्रताप के पास संधि का प्रस्ताव लेकर आया. प्रताप ने हिकाराते हुए कहा कि तुमने संकट के समय लड़ जाने की जगह, सिंहासन चुना, आराम चुना. तुम योद्धा नहीं, तुम मेरे पुरखों के खून नहीं….इससे पता चला चलता है युद्ध जातियों से ऊपर के लक्ष्य के लिए लड़ा जा रहा था।
लेकिन कभी सोचा? महाराणा किसकी लड़ाई लड़ रहे थे?…. अपने मुल्क की, अपनी हमवतन जनता की. स्वशासन की, जिसे गांधी लड़ रहे थे, जिसे कश्मीर लड़ रहा है, जिसे हांगकांग लड़ रहा है. प्रताप के सामने विशाल साम्राज्य था, और अपने हाथों में सिर्फ एक छोटा सा कबीलाई राज्य. लेकिन लड़ जाना था. भिड़ जाना था, भिड़ने का भी अपना सुकून है, जो जीत-हार की गिनती से मुक्त है। योद्धा की कीर्ति जीतने-हारने में नहीं, विजय-पराजय में नहीं, उसके लड़ जाने में है। जो लड़ा वो योद्धा, जो न थका वो योद्धा।
प्रताप का पक्ष कमजोरों का था, मजलूमों का था. प्रताप अपने राज्य के स्वशासन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे, अपने गीतों, प्रार्थनाओं, बैठकों, पेड़ों, घाटों, पक्षियों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. वह हिन्दू-मुसलमान से ज्यादा, बड़े साम्राज्य से छोटे साम्राज्य की लड़ाई थी. वह उपनिवेशवाद से स्वशासन की लड़ाई थी.
बड़े राजा का सेनापति हिन्दू था, प्रताप का सेनापति मुस्लिम. इसकी प्रताप बनाम अकबर की लड़ाई को हिन्दू बनाम मुसलमान कहना उस योद्धा का अपमान है। उसके सेनापति का भी अपमान है जो मुस्लिम होकर हिंदुओं के पक्ष में लड़ रहा था।
लेकिन इस इतिहास से आपको अनभिज्ञ रखा जाएगा, बताया जाएगा कि बताइए, अकबर महान था या महाराणा प्रताप? ये धीमी आंच पर हिन्दू-मुसलमान के बीच में नफरत फैलाने के संघी सिलेबस का हिस्सा है।
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अकबर महान राजा था, महान विजेता था, कुशल शासक था, धार्मिक रूप से वह आज के शासकों से भी अधिक सहिष्णु था. उसने अपनी हिन्दू पत्नि के मजहबी प्रतीकों को भी अपने राजमहल में संरक्षण दिया. एक मुस्लिम शासक के अपने राजमहल में मंदिर था, जहां कृष्ण की पूजा होती थी. उसकी जानमाल की रक्षा का जिम्मा हिंदुओं पर था. उसका सेनापति हिन्दू था. सेना हिन्दू थी.
अकबर के महान होने से प्रताप कम महान नहीं हो जाते, और न ही प्रताप के महान होने से अकबर की गाथा कमजोर हो जाती. दोनों महान थे, हल्दीघाटी का युद्ध दो महान राजाओं का युध्द था, दो महान योद्धाओं का द्वंद था.
अकबर के साथ लड़ने वालों में एक बड़ा वर्ग हिंदुओं का था, हिन्दू राजाओं के साथ भी मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग था. अकबर जब लड़ता था तो मुसलमान को भी रौंदता था, मुसलमान का भी कत्ल करता था. युध्द मजहबों से नहीं बल्कि महत्वाकांक्षाओं के चलते लड़े जाते हैं. अकबर की लड़ाई भी हिन्दू लड़ रहे थे. उस समय के हिन्दू आपसे कम हिन्दू नहीं थे। साम्राज्यों की लड़ाई में साथ देने के लिए राजा आते हैं, शासक आते हैं, हिन्दू और मुसलमान नहीं।
क्या उस समय के हिंदुओं के अंदर राम नहीं थे?
सब के अंदर थे, सब उतने ही धर्मावलंबी थे जितने आप हो, वह समय तो और अधिक चुनौतियों का था उनके हिंदुत्व पर सवाल करने का प्रश्न धूर्तता से अधिक नहीं। लेकिन आज नया हिंदुत्व गढ़ा जा रहा है, नया हिंदुत्व लिखा जा रहा है. उसमें ऐतिहासिक रूप से मिलावट करके जटिल किया जा रहा है. क्या चौहानों का तोमरों से युद्ध नहीं होता था? क्या चंदेलों का चालुक्यों से युद्ध नहीं होता था? क्या यादव राजपूतों का अन्य राजपूतों से युद्ध नहीं होता था? होता था, राजपूतों के खुद अपने गोत्रों में अनगिनत युद्ध हुआ करते थे, लेकिन उनका जिक्र कोई नहीं करेगा क्योंकि उसका कोई अर्थ नहीं आना. लेकिन हिन्दू-मुस्लिम राजाओं के युद्धों को बार बार गर्म हीटर पर उफानकर आपको पिलाया जाता रहेगा।
अगर प्रताप के ही अक्षरों में गर्व करना है, तो लड़िए अपने आसपास के कमजोर लोगों के लिए, लड़िए अपने आसपास लड़ी जा रही लड़ाइयों के लिए. यदि आप योद्धाओं के रक्त से हैं तो लड़िए ऐसे लोगों के खिलाफ जो मुल्क के एक हिस्से को दोयम दर्जे की तरह ट्रीट करना चाहते हैं. लड़ना ही है तो मजदूरों के लिए लड़िए।
लेकिन आपका हिंदुत्व बदल दिया गया है,आपके प्रताप भी बदल दिए गए हैं. लेकिन एक बार सोचिए? आपके ही देश में अपनी नागरिकता और सम्मान की लड़ाई लड़ रहे लोगों को गाली देकर प्रताप को शर्मिंदा नहीं कर रहे। प्रताप की लड़ाई आस्तित्व और सम्मान की लड़ाई थी तो नागरिकता की लड़ाई भी तो आस्तित्व और सम्मान की लड़ाई है। प्रवासी मजदूरों की लड़ाई भी तो आत्मसम्मान की लड़ाई है।
प्रताप से यदि एक अक्षर भी सीखा होगा तो इस देश में जिस भी कौम, वर्ग, जाति के लोगों को सताया जा रहा होता है तब तब आपके दिल में कुछ ठसकना चाहिए. अन्यथा यही माना जाएगा कि आप जिस राजा पर फक्र करते हैं, जिस प्रताप पर फक्र करते हैं, आप उन्हें शर्मिंदा कर रहे हैं। या आप प्रताप से कुछ सीखे ही नहीं। अकबर बनाम महाराणा प्रताप की बहसों से कुछ सीखना ही है तो अकबर जितना धार्मिक सहिष्णु बनिए और प्रताप जितने स्वाभिमानी।
लेकिन टीवी पर आने वाली अकबर बनाम महाराणा प्रताप की बहसों को देखकर मुझे एक इतिहासकार की बात याद आती है जिसने कहा था “इतिहास से हमने यही सीखा है, कि इतिहास से हमने कुछ भी नहीं सीखा है”
(हिन्दू पंचांग के हिसाब से आज महाराणा प्रताप जयंती है)