लखनऊ। अमित शाह के अगुवाई में बने संगठन की आक्रामकता की वजह से विपक्षी दलों के भीतर सियासी डर पैदा करने वाली बीजेपी की यूपी इकाई क्या किसी आशंका से गुजर रही है? चुनावी साल के करीब आते-आते क्या पार्टी किसी बगावत के डर से सहमी हुई है। उत्तर प्रदेश की सियासत में यह सवाल तीखा होता जा रहा है?
विधानसभा के भीतर सौ से अधिक बीजेपी विधायकों के अपनी सरकार के खिलाफ धरना की खबर तो पुरानी पड़ गई है लेकिन पार्टी के भीतर से फिर ऐसी खबरें आने लगी है कि कम से कम 25 विधायकों का असंतोष एक बार फिर उफान मारने लगा है।
शीर्ष नेतृत्व के एकतरफा फैसले से कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं और विधायकों-मंत्रियों के बीच असंतोष के बीज बड़े हो रहे हैं। क्या बीजेपी नेतृत्व को इस बीज के सतह पर दिखने का आभास हो गया है?
राज्य सभा चुनाव का मामला हो या विधानसभा परिषद की सीटों पर अपनी पूरी क्षमता के साथ अपने उम्मीदवारों को उतारने का फैसला! पार्टी नेतृत्व का सधा हुआ दांव कुछ और ही कहानी बयान कर रहा है।
कहा जाने लगा है कि बीजेपी नेतृत्व को अहसास होने लगा है कि पार्टी के अंदरुनी हालात अच्छे नहीं है। नेतृत्व के प्रति कार्यकर्ताओं का असंतोष कभी भी सतह पर आ सकता है और इसीलिए सधी हुई चाल से उस स्थिति से बचने की कोशिश की जा रही है।
सवाल पूछा जा रहा है कि राज्यसभा चुनाव में अपने बचे हुए वोटों की ताकत से अपने प्रत्याशी जिताने की कोशिश के बजाय बीजेपी ने मायावती की पार्टी के उम्मीदवार को क्यों तरजीह दी। क्या बीजेपी को अपने चुनावी प्रबंधकों पर पूरा भरोसा नहीं था?
सवाल यह भी उठ रहा है कि विपक्ष में रहकर यदि सपा अपने विरोधी दल के विधायकों को तोड़ने का हुनर दिखा सकती है तो बीजेपी के चुनाव मैनेजर क्यों चुप बैठे रहे?
याद तो होगा ही कि अक्तूबर 2020 में राज्य सभा की 10 सीटों के लिए किस किस तरह के दांव खेले गए। बीजेपी ने बीएसपी के उम्मीदवार के लिए किस तरह वाकओवर देकर एक नया दांव दिखाने की कोशिश की। सियासत के धुरंधर कह रहे हैं कि दरअसल जिसे बीजेपी के दांव के तौर पर पेश किया गया वह असल में पार्टी की मजबूरी थी। तब भी पार्टी नेतृत्व को आशंका थी कि उसके विधायक क्रास वोटिंग करके सियासी फजीहत करा देंगे।
और इसीलिए उसे बीएसपी को उपकृत करने का नाटक रचा गया। यह तो अच्छी बात रही कि बीएसपी में भी ऐसा ही संकेत गया और मायावती ने एक भयंकर सियासी भूल करते हुए यहां तक कह दिया कि वह सपा को सबक सिखाने के लिए बीजेपी का भी साथ दे सकती हैं।
बहरहाल उस वक्त तो यह बात भी खूब चर्चा में रही कि सपा ने एक निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर प्रकाश बजाज को उतारकर बीजेपी-बीएसपी के अंदरुनी गठजोड़ से परदा हटा दिया। असलियत में तो कहानी कुछ और ही थी।
अब एक बार फिर जबकि विधानपरिषद के चुनाव हैं, बीजेपी का यही डर फिर सामने है। 12 सीटों के लिए 28 जनवरी को चुनाव होने वाले हैं। विधानसभा में विधायकों की संख्याबल के ताकत के हिसाब से 10 सीटों पर बीजेपी के लिए कोई चुनौती नहीं है जबकि एक सीट जीतने की क्षमता सपा के पास है। 12वीं सीट के लिए न तो कांग्रेस और न ही बसपा के पास वोटों की ताकत है। बावजूद इसके सत्ताधारी बीजेपी ने 12वीं सीट के लिए कोई प्रत्याशी नहीं उतारा है।
दूसरी ओर सपा ने एक की बजाय दो उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। जाहिर है यदि 12वें प्रत्याशी के लिए कोई चुनौती नहीं रहेगी तो दूसरे उम्मीदवार के तौर पर सपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी विधान परिषद पहुंच जाएंगे। बीजेपी की इस रणनीतिक और सांगठनिक कमजोरी को पार्टी के अंदरुनी हालातों से जोड़कर देखा जा रहा है।
भीतर की खबर रखने वाले कह रहे हैं कि शीर्ष नेतृत्व के लगातार एकतरफा फैसले की वजह से कार्यकर्ताओं के साथ मंत्रियों-विधायकों में भी घोर निराशा का माहौल है। किसी भी नेता कार्यकर्ता की सुनी नहीं जा रही है। अपने विभागों पर भी मंत्रियों का पूरा नियंत्रण नहीं है। ऐसे में वह कार्यकर्ताओं की मदद नहीं कर पा रहे हैं। जमीनी कार्यकर्ताओं के छोटे-बड़े किसी काम को सरकारी महकमों में तवज्जो नहीं मिल रही है। इससे पार्टी के भीतर घोर असंतोष है।
प्रदेश कार्यकर्ताओं के भीतर इस असंतोष की खबरें केंद्रीय नेतृत्व तक भी पहुंच चुकी है। माना जा रहा है कि केंद्रीय नेतृत्व ने इन्हीं बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए पूर्व आईएएस अधिकारी अरविंद कुमार शर्मा को यूपी में अहम जिम्मेदारी देने का मन बनाया है।
चूंकि 2022 के चुनाव अब बेहद करीब है, कार्यकर्ताओं के असंतोष और गुस्से को समाप्त करना बेहद जरूरी है। परिषद चुनाव में परचा भरने वाले अरविंद कुमार शर्मा के घर कार्यकर्ताओं की भीड़ इसी उम्मीद की वजह से उमड़ रही हैं। माना जा रहा है कि केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें पूरी ताकत और रणनीति के साथ इस असंतोष का मुकाबला करने के लिए यूपी भेजा है।
बाहर से आक्रामक दिखाई देने वाली भाजपा क्या यूपी में अंदर से कमजोर पड़ने लगी है ? एक के बाद एक ऊपरी सदन के दो चुनावों में जिस तरह से भाजपा ने खुद की कमजोरी सामने न आने देने के लिए पैंतरेबाजी की है वो तो यही कहानी कह रहा है।