डा. रवीन्द्र अरजरिया
देश में सम्प्रदायवाद का जहर तेजी से घुलता जा रहा है। मजहबी दूरियां निरंतर बढतीं जा रहीं हैं। स्वाधीनता के बाद से पर्दे के पीछे चलने वाला षडयंत्र अब खुलकर ठहाके लगाने लगा है।
राजनीति से लेकर फिल्मों तक ने जानबूझकर हौले-हौले देश को मानसिक गुलामी के मायाजाल जकडना शुरू कर दिया था। वही बारूद आज खतरनाक विस्फोटक बनकर चुनौती दे रहा है। लोग अब दूसरे मजहब को मानने वाले पडोसियों से भी डरने लगे हैं।
धर्म के नाम पर बाजार बटने लगे हैं। रंगों के आधार पर संगठन खडे हो रहे हैं। अनेक राजनैतिक दलों से चुनौती पूर्ण बयानों की चिन्गारियां फैंकी जा रहीं है। अनेक सत्ताधारी दल के विशेष कार्यकर्ताओं का तांडव खुलकर सामने आने लगा है।
कभी राजस्थान सुलगता है तो कभी दिल्ली, कभी बंगाल में अपराधी खुलकर ठहाके लगाते हैं तो कभी पंजाब में। मध्य प्रदेश हो या फिर केरल, कर्नाटक हो या छत्तीसगढ। कश्मीर तो शुरू से ही चन्द लोगों की ऐशगार रहा है।
यह सब कुछ एक सोची समझी साजिश के तहत चरणबध्य रूप से सम्पन्न होता रहा है। विदेशों से समाजसेवा के नाम पर आने वाले पैसों से दंगे, हडताल, प्रदर्शन, घेराव, रैलियों का खुलकर आयोजन हो रहा है।
सम्प्रदाय के नाम पर बांटने का क्रम तो बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक जैसी विभाजनकारी व्यवस्था से स्वाधीनता के तत्काल बाद ही शुरू कर दिया गया था। तुष्टीकरण की नीतियों पर चलते हुए आरक्षण जैसी खाइयां पैदा की गईं।
प्रतिभाओं को हताशा और प्रतिभाहीनों को सम्मान देने की चालें चलीं गईं। सत्ताधारी दलों ने अपने भविष्य को सुरक्षित करने की गरज से मुफ्तखोरी की आदतें डालकर लोगों को पंगु बना दिया। शायद ही कभी राज्यों से लेकर केन्द्र तक के बजट में लाभ की स्थिति को रेखांकित किया गया हो।
अधिकांश समय घाटे का बजट ही पेश होता रहा है। ईमानदार करदाताओं के खून में सनी कमाई पर हर बार अतिरिक्त बोझ डाला गया। हर बार हरामखोरों को लाभ देकर वोट बैंक पक्का करने के मनसूबे पाले गये। यही सब मिलकर वर्तमान में राष्ट्र पर बोझ बन गया और हो गई देश की आंतरिक हालात बद से बदतर।
कभी हिजाब मुद्दा बना तो कभी सडक पर नमाज का हक जताया गया। कभी रास्तों पर हरा रंग पोत कर उसे मजार बना दिया गया तो कभी मूर्ति स्थापित करके मंदिर का निर्माण कर दिया गया। स्वयं को अलग हटकर दिखाने और धर्म की आड में खुली गुंडागर्दी करने वाले युवाओं को गुमराह करने वाले चन्द सिक्कों के लालच में अपना जमीर बेच चुके हैं, वे अब मुल्क को बेचने की फिराक में हैं।
इतिहास गवाह है कि जब-जब आक्रान्ताओं ने अपनी दरिन्दगी की दम पर आवाम को गुलाम बनाया, तब-तब जमीर वालों ने आगे आकर शहादत दी, मगर जुल्म के आगे झुके नहीं। यह सब कब से शुरू हुआ, शांति कब से समाप्त हुई, भाईचारे ने कब से कफन ओड लिया, राष्ट्रवाद के स्थान पर परिवादवाद कब से स्थापित हो गया, स्वार्थ ने मानवता को कब से बंदी बना लिया, इस तरह के अनगिनत सवाल हमें स्वयं चिन्तन की ओर बढाते हैं।
हमें अतीत की गहराइयों में उतरना पडेगा। पशु-पक्षियों से लेकर प्रकृति के अन्य घटकों में किसी भी तरह का विभाजन नहीं है। प्रत्येक परिस्थितियों में वे स्वयं की काया में स्वस्थ और प्रसन्न रहने की कोशिश करते हैं मगर हम सुख के संचय की मृगमारीचिका के पीछे भागते हुए प्राकृतिक मूल्यों को निरंतर तिलांजलि देते जा रहे हैं।
धर्म के अर्थ बदल गये हैं। लोगों ने मानवीय धर्म को भाषा, क्षेत्र, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय आदि में विभक्त करके सीमित कर दिया है। अब तो एक नया धर्म भी फैशन में आ गया है जिसे दलगत धर्म के रूप में स्वीकारोक्ति भी मिल गई है। सत्ताधारी दलों के मुखिया स्वयं की नीतियों, सिध्दान्तों और मान्यताओं को अपने अनुयायियों पर थोपने लगे हैं।
अवसरवादी अनुयायी भी सत्ता-सुख के मद में मनमाना आचरण करते हुए ऐन-केन-प्रकारेण धन संचय की करने में जुटे हैं, आतंक फैैलाते हैं, समाज को डराकर उन्हें अघोषित गुलाम बनाते हैं। ऐसे लोगों के सामने संविधान की व्यवस्था केवल और केवल किताबों के पन्नों में ही सिमट कर रह जाती है।
एक ही जुल्म के लिए अलग-अलग सजाओं का प्राविधान किया गया है यदि मंशा, अपराध का ढंग और साधन में विभेद है। यही विभेद सिध्द करने के लिए विधि विशेषज्ञों का ज्ञान, तर्क और विवेचना उत्तरदायी बनता है। महाराष्ट्र में जिस तरह से एक सांसद और एक विधायक की गिरफ्तारी हुई है, उनसे मिलने पहुंचने वालों पर हमले हुए, उससे अनेक प्रश्नचिन्ह अंकित होने लगे हैं।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के त्रिकोण पर टिकी संवैधानिक व्यवस्था अनेक बार विसम परिस्थितियों में पहुंच जाती है। अधिकारों पर अतिक्रमण का तीव्र होता दंश, आज विकराल रूप में सामने आने लगा है। लोगों के मनमाने आचरण से चार कदम आगे बढकर सत्ता के इशारे पर लालफीताशाही के कृत्य सामने आ रहे हैं।
राज्य और केन्द्र सरकारों के मध्य सत्ताधारी दलों की भिन्नताओं के कारण खींचतान निरंतर बढता ही जा रहा है। बंगाल, केरल, राजस्थान और पंजाब जैसे राज्यों की स्थितियां नित नये गुल खिला रहीं हैं। सत्ताधारी दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में उल्लेखित बिन्दुओं से राज्यों के हालात रसातल में पहुंचते जा रहे हैं।
मुफ्तखोरी, विभाजनकारी और मजहबीउन्माद का दावानल समाज को अपने आगोश में लेने को बेताब हो रहा है। इस हेतु हमें स्वयं को विवेचना के आइने में देखना पडेगा तभी सार्थक परिणाम सामने आ सकेंगे। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।