डॉ. मनीष पाण्डेय
अभी हाल ही में भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने युवाओं से रोजगार ढूँढने की जगह उसेउत्पन्न करने का सुझाव दिया| यह एक तरह से राज्य के आत्मसमर्पण की स्वीकारोक्ति हो सकती है,कि वह युवाओं को समायोजित करने में स्वयं को कमजोर पा रहा है| यह नया भी नहीं है,कुछ ऐसा हीवाक़या कोई एक दशक पहले हुआ था जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई से लखनऊ में तत्कालीनमुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव ने पूछा था कि बी.टेक और एम.बी.ए. में खत्म होते अवसरों के बादकौन सा नया क्षेत्र है जहां युवा अपना भविष्य सुनिश्चित कर सकता है! उस सवाल का सीधा जवाब आज तक नहीं मिल पाया है|
इस देश की आधी आबादी 25 वर्ष के आसपास की है, जो कार्यक्षमता, सृजनऔर जज़्बे की दृष्टि से सर्वाधिक उर्वर मानी जाती है| फिर भी, असुरक्षित है, राज्य इतनी बड़ीकार्यक्षमता को समायोजित कर पाने में असफल साबित हो रहा है और जिस देश का युवा उत्साह की जगह अनिश्चित भविष्य से भयाक्रांत हो स्वप्नहीन होगा वह देश महाशक्ति बनने के सपने देखे तो इससे बड़ा फरेब कुछ नहीं हो सकता| विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में सबसे ज्यादा आत्महत्या स्वरोजगार में लगे लोगों के बीच ही देखी गई है|
यहाँ हर 90 मिनट में एक युवा आत्महत्या कर रहा है| 37.8 फ़ीसदी युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति है और इनमे 15 से 35 वर्ष आयुवर्ग के लोग शामिल हैं| 2004 के बाद दस से पंद्रह साल के बच्चों में आत्महत्या के मामलें में 75 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है| विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2012में 258752 आत्महत्या हुई जिसमें 1 लाख 58 हजार पुरुष और लगभग 1 लाख महिलाएं शामिल हैं|
संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों पर आधारित पत्रिका लांसेट मेडिकल जर्नल के मुताबिक़ युवा भारतीयों मेआत्महत्या मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा आम कारण देखा गया है|
थोड़ा सी हैरत होती है, जिस पर बड़ी गंभीर विवेचना हो सकती है, कि दक्षिण भारत में उत्तर की अपेक्षा अधिक आत्महत्या होती है| केरल, कर्नाटक, आंध्र और तमिलनाडु में 56.2 प्रतिशत जबकि अन्य राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश बाक़ी 43.7प्रतिशत में शामिल हैं| इन आंकड़ो की भयावहता के अलावा अक्सर ही तमाम घटनाएँ चर्चा में आ जातीहैं| अभी हाल ही में गाजियाबाद डीपीएस की सौ से ज्यादा पदक जीत चुकी तैराक छात्रा, 45000 रुपये के यात्रा खर्च के वहन की असमर्थता मे जान दे देती है|
हालांकि आंकड़े और फ्रेंच समाजशास्त्री एमिलदुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त से स्पष्ट है कि महिलाओं पर आत्महत्या का दबाव कम होता है लेकिनजैसे-जैसे पितृसत्तात्मक साँचे उन्हे पुरुष की तरह ढाला जा रहा है, उनमें आत्मनिर्भरता बढ़ रही है,आकांक्षा बढ़ रही है, उसी अनुरूप आत्महत्या की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है| रोहित वेमुला की अत्महत्या मेंभी कुछ ऐसे ही वित्तीय अभाव कि भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता| परंपरागत विषयाओं केज़्यादातर विद्यार्थी,ख़ासकर उच्च शिक्षा जैसे शोध आदि में सम्मिलित, अवसाद एवं निराशा के गर्त मेंदुबे हुए हैं, जिनकी उम्मीदों एवं संभावनाओं को उम्र की बढ़ती सीमा बड़ी तेजी से पीछे छोड़ती जा रहीहै|
आई.आई.एम, आई.आई.टी. और मेडिकल कालेज जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों तक में आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ रही हैं| अधिकांश छात्र आत्महत्या तब करतें है, जब उसकी शिक्षा अवसान की तरफ होती है,संभावनाएं खत्म होती लगती हैं और उसे समाज के नए रूप का सामना करना होता है, जहां तमाम सामाजिक-आर्थिक दबाव उसका इंतज़ार करते हैं| यही वह स्थिति है, जिससे सरकारें भी धीरे-धीरे अपना पल्ला झाड रही हैं| सर्व शिक्षा अभियान 2001 के सरकारी प्रचार के लिए बने एक गान की पंक्ति बताती है कि शिक्षा से जीने की वजह मिलती जाती है! आंकड़े उन वजहों को झुठला रहे हैं| उच्च संस्थानों में आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं|
कोचिंग सेंटर का सुपर मार्केट हो चुके कोटा में प्रतियोगी परीक्षाओं की आत्महत्या महामारी का रूप धारण करती जा रही है,जहां 2014 में ही 100 से ज्यादा आत्महत्याएँ हुई| इनमें से अधिकांश परीक्षा एवं पढ़ाई के डर तथा पारिवारिक समस्याओं से ग्रस्त होकर अपेक्षाओं और
अंतहीन सपनों के दबाव में दम तोड़ रहे हैं| प्रतियोगियों की यह स्थिति अन्य जगहों और क्षेत्रों में भी बहुत पृथक नहीं है| इलाहाबाद, पटना और दिल्ली जैसी जगहों पर वह तमाम दबावों के साथ राजनीतिक हस्तक्षेप, लेटलतीफ़ी, भ्रष्टाचार और महंगे होते संसाधनों के बीच अवसाद और निराशा से भी वह अकेला लड़ रहा है| स्थितियाँ बदतर होती जा रही हैं| बचपन से ही वह बस्ते के बोझ और लगातार अव्वल रहने
की होड में पिसता जा रहा है|
शिक्षा पूरी तरह आर्थिक आधार पर स्तरीकृत हो चुकी है, जिसे बाहर निकलना दिन ब दिन मुश्किल होता जायेगा| इस स्तरीकरण में निचली पायदान का समूह लगातार वंचित होता जायेगा| उत्तर आधुनिक विचारक फूको ने कहा कि इस युग में जिसके पास ज्ञान है उसी के पास शक्ति है, लेकिन यह ज्ञान आर्थिक संसाधनों और संभावनाओं पर कब्जे के चलते कुछ लोगो तक सीमित होता जा रहा है| अप्रत्यक्षरूप से ज्ञान धन के माध्यम से कुछ समूहों के पास स्थायी रूप से संचित होता जा रहा है|
समान शिक्षादिवास्वप्न हो चुकी है| सरकारी नीतियों ने सरकारी स्कूलों, इसके अध्यापकों की हालत ऐसी कर दी है कि जनसंख्या के दबाव के बावजूद यहाँ सिर्फ अत्यंत गरीब और मजदूर के ही बच्चे पढ़ने आ रहे हैं| यही हाल उच्च शिक्षा ख़ासकर विश्वविद्यालयों का भी होता जा रहा है, जहां गुणवत्ता और मनोबल दोनों के गिरते स्तर ने लगभग विरक्ति पैदा कर दिया है|
अपेक्षाकृत ग्रामीण विश्वविद्यालों जैसे गोरखपुर आदि जगहों पर यह और विकट भी है,लेकिन संतुलित जीवन शैली तथा मजबूत पारिवारिक और नातेदारी संरचना के कारण यह स्थिति नियंत्रण में तो है| फिर भी, पलायन और निराशा के बीच बढ़ रही अभावबोधता और अनिश्चित भविष्य के बीच यहाँ भी आत्महत्या की महामारी फैलने से इंकार नहीं कियाजा सकता| इन सबके बीच निजी क्षेत्र टकटकी लाये बैठा है,कि इन संस्थाओं के फेल होने के साथ हीकैसे शिक्षा को बाजार का उत्पाद बना दिया जाये|
शिक्षा पूरी तरह निवेश और मुनाफ़े का खेल होती जा रही है| यहाँ के उच्च शिक्षा संस्थान महज 18 प्रतिशत लोगों को शिक्षित करने की क्षमता रखते है, और उसमें भी गाहे-बगाहे बदतर गुणवत्ता की रिपोर्टें आती ही रहती हैं| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज राज्य की सामाजिक विशेषकर आर्थिक नीति ही समाज की दशा और दिशा तय करते हैं जिनके बीच उसकी तमाम संस्थाएं अपना वजूद खो देती है|
फिर, उन संस्थाओं की भूमिका की ज़िम्मेदारी राज्य को लेनी पड़ती है; जैसे बढ़ते एकाकी परिवारों के बीच वृद्धाश्रमों और चाइल्ड केयर सेंटर्स का खुलना| शिक्षा के मामले में बड़ी विकट स्थिति है| यहाँ राज्य अपनी ही संस्था को संभाल नहीं पा रहा है| प्राईमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक बाजार और पूंजीपति की गिरफ्त में जा रहा है, जो मुनाफे के अतिरिक्त कैसे कुछ सोंच सकता है|
कुल मिलाकर परीक्षा का डर, पढ़ाई और अनवरत सफल रहने का दबाव, पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं, प्रेम-प्रसंगों, नशे की लत, अभिभावकों से सामंजस्य की कमी के साथ ही बढ़ते आर्थिक माहौल में विस्तार लेती अभावबोधता की मनःस्थिति और काल्पनिक भय ने युवाओं को हताश कर कर दिया है|
इन सबके अलावा महंगी होती शिक्षा के साथ नौकरियों के चयन में व्याप्त लेटलतीफ़ी, भ्रष्टाचार और प्राइवेट सेक्टर्स में हो रहे शोषण ने स्थितियों को और बुरा किया है| इन सबके बीच हमारा समाज भी अपने सदस्यों से हर बार सफलता के नए मुकाम हासिल करने पर ज़ोर देता है, जहां असफल होने वालों के लिए कोई ठिकाना नहीं!