लेखक-डा0 हिदायत अहमद खान
इसमें शक नहीं कि जो किसान धरती का सीना चीरकर फसल उगाना जानता है वह सरकार बनाने और गिराने में भी महारत हासिल रखता है। सिर्फ जरुरत इस बात की है कि संपूर्ण देश के किसान एकजुट हों और फैसला लें कि उन्हें इस देश की तरक्की के लिए क्या करना है और क्या नहीं करना है। इसके बाद संभवत: कर्ज माफी या फसल का उचित दाम पाने के लिए किसानों को सड़क पर आंदोलन करने की आवश्यकता नहीं होगी। सरकारें तब किसानों से भी वैसा ही बर्ताव करेंगी जैसा कि इस समय धनाढ्य कहे जाने वाले कारोबारियों या चंद उद्योगपतियों व उनके घरानों से किया जा रहा है।
कुल मिलाकर सड़क पर उतरे किसानों को पक्के इरादे के साथ संपूर्ण देश के किसानों को एकसूत्र में पिरोने के लिए काम शुरु करने की आवश्यकता है। गौर करने वाली बात यही है कि आज भी देश की 70 फीसद आवादी गांवों में ही निवास करती है और ज्यादातर ग्रामीणजन खेती-किसानी पर ही निर्भर होते हैं। ऐसे में लाखों-करोड़ों लोगों की उदरपूर्ति के लिए हर तरह की दुश्वारियां और चुनौतियों का सामना करता गरीब किसान आज यदि किन्हीं कारणों से अपनी ही सरकार से दु:खी व नाराज चल रहा है तो उसका हर्जाना किसी और को नहीं बल्कि मौजूदा सरकार को ही भुगतना है।
गौरतलब है कि इस समय कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी की मांग को लेकर देश का ‘अन्नदाता’ दिल्ली की सड़कों पर उतरा है। चूंकि शीतकालीन सत्र शुरु होना है इससे पहले किसानों ने राजधानी में पहुंचकर अपनी आवाज को सरकार के कानों तक पहुंचाने का काम किया है। देखने वाली बात यह भी है कि ‘किसान मुक्ति मार्च’ के बैनर तले हजारों किसान जब रामलीला मैदान से संसद मार्ग पहुंचते हैं तो तमाम विरोधी दल के नेता भी उनके समर्थन में सड़क पर उतर आते हैं, लेकिन सरकार या उनके नुमाइंदों को इसकी परवाह नहीं होती कि आखिर किसान उनके दरवाजे तक क्योंकर पहुंच रहा है। इस दौरान दिल्ली पुलिस कानून व्यवस्था का हवाला देते हुए आंदोलनरत् किसानों को संसद भवन की ओर जाने से रोक देती है और उन्हें वापस जाने को कहा जाता है।
अब सवाल यह है कि किसानों का यह पहला आंदोलन नहीं है, बल्कि लगातार किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं, लेकिन सुनवाई होती हुई कहीं दिखाई दे रही है। अब सवाल यह भी है कि जब किसान लगातार आंदोलन कर रहा है, तब केंद्र सरकार के कानों पर आखिर जूं तक क्यों नहीं रेंग रही है? ऐसा तो नहीं कि किसानों को भी दलगत तौर पर बांट दिया गया हो और उनकी समस्याओं को भी अच्छी और बुरी नजरों से देखा जाने लगा हो। यदि ऐसा नहीं है तो किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर आते उससे पहले ही उनकी समस्याओं का समाधान खोजा जाना चाहिए था।
अगर सरकार इन्हें दोहरे मापदंड पर रखकर देख रही है तो भी बहुत ही गलत बात है, क्योंकि यहां यह जान लेना होगा कि सरकारें किसी दल विशेष की नहीं होतीं, बल्कि उनके कंधों पर तो संपूर्ण देश की जिम्मेदारी बराबर से होती है। ऐसे में उसे इन किसानों के साथ भी वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा कि औद्योगिक क्षेत्र वालों से करती चली आई है। ऐसा नहीं हो रहा है इसलिए विरोधियों को भी किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राजनीति करने का अवसर मिल रहा है। याद दिलाने वाली बात तो यह भी है कि इस किसान आंदोलन से पहले तमिलनाडु से आए किसानों ने नग्न होकर प्रदर्शन कर देश व दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच लिया था।
तब उम्मीद बंधी थी कि सरकार इन किसानों के पक्ष में कुछ फैसला जरुर लेगी, लेकिन नोटबंदी और जीएसटी समेत अन्य बड़े-बड़े फैसले लेने वाली मोदी सरकार किसानों की समस्याओं से मानों बेखबर ही बनी रही और आज दिल्ली की सड़कों पर फिर किसान आंदोलन देखा गया। किसानों का यूं लगातार आंदोलन करना सही मायने में मोदी सरकार के साथ ही साथ भाजपा के लिए भी शुभ संकेत नहीं कहे जा सकते हैं। इस आंदोलन के पीछे छुपी आवाज को भी समझना और सुनना होगा, अन्यथा ये किसान विपक्ष की भांति यही कहते दिख रहे हैं कि आम चुनाव करीब आ रहे हैं तब न नाक दूर न हंसिया वाली कहावत तो चरितार्थ हो ही सकती है।